सरकार के रडार पर दवा कंपनियां, 68% में नहीं बन रही सही क्वालिटी की मेडिसिन

नई दिल्ली: भारत को दुनिया की फार्मेसी कहा जाता है, क्योंकि यहां से पूरी दुनिया में दवाओं की सप्लाई होती है. भारत में जहां बड़ी-बड़ी दवा कंपनियां ब्रांडेड दवाएं बनाती हैं. वहीं एमएसएमई सेक्टर की दवा कंपनियां मुख्य तौर जेनेरिक मेडिसिन बनाती हैं जिनकी देश-विदेश में बहुत डिमांड रहती है. इसलिए सरकार अब इन कंपनियों की दवाओं की क्वालिटी को लेकर काफी सजग हो गई है.

हाल में गाम्बिया ने उसके यहां हुई बच्चों की मौत के लिए भारत में बनी कफ सीरप को जिम्मेदार ठहराया था. इसी को ध्यान में रखते हुए सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) ने राज्य स्तर के दवा इंस्पेक्टरों के साथ मिलकर देशभर में दवा कंपनियों का इंस्पेक्शन किया. ताकि देश में खराब क्वालिटी की दवाइयां बनाने वाली कंपनियों की पहचान की जा सके.

68% कंपनियों की दवाएं खराब क्वालिटी की
ईटी की खबर के मुताबिक इस अभियान के दौरान माइक्रो, स्मॉल और मीडियम सेक्टर की जितनी फर्म्स का इंस्पेक्शन किया गया, उसमें से करीब 68% कंपनियों की दवाओं को ‘स्टैंडर्ड क्वालिटी’ का नहीं पाया गया. ये इंस्पेक्शन पिछले साल दिसंबर से चालू था. सूत्रों ने जानकारी दी कि इन सभी एमएसएमई कंपनियां में से 30 प्रतिशत कंपनियों को काम बंद करने के आदेश जारी कर दिए गए हैं. ये चेताने वाली स्थिति है.

चल रही चौथे चरण की जांच
अभी दवाओं के रिस्क बेस्ड इंस्पेक्शन का ये चौथा चरण चल रहा है. इस दौरान अभी तक 22 कंपनियों के 446 सैंपल इकट्ठे किए गए हैं. इनमें से 271 के बारे में विस्तृत जांच कर ली गइ ली गई है. इन 271 सैंपल में से 230 को स्टैंडर्ड क्वालिटी का पाया गया है, जबकि 41 स्टैंडर्ड क्वालिटी के नहीं मिले. साल 1988 में देश के अंदर जीएमपी सिस्टम लाया गया था. ‘गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस’ (GMP) नियमों का मकसद दवाइयों की स्टैंडर्ड क्वालिटी को मेंटेन रखना है. इसमें आखिरी संशोधन 2005 में हुआ था.

इस साल अगस्त में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने ऐलान किया था कि जिन कंपनियों का टर्नओवर 250 करोड़ रुपए या उससे अधिक होगा उन्हें 6 महीने के अंदर जीएमपी लागू करना होगा. बाकी कंपनियों को इसके लिए 1 साल मिलेगा. समय से ऐसा नहीं करने पर कंपनियों पर जुर्माना लगाया जाएगा.

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