व्यंग्य : दावेदारी का मनोविज्ञान

किसी भी चुनाव से ऐन पहले राजनीति में सबसे ज्यादा पैदा होने वाली प्रजाति है दावेदार । असल में ये राजनीति का कबाड है, लेकिन, ये ऐसा मानते कभी नहीं। चुनाव की आहट पाते ही ये खुद को झाड-पोछकर मार्केट में ले आते हैं, कुछ हुआ तो ठीक वरना फिर से यथास्थिति में पहुंच जाते हैं। अपने शहर , बल्कि हर शहर में कुछ अखण्ड टाइप के दावेदार होते ही हैं। इनके अलावा सबको पता होता है कि ये महाशय जीतेंगे हरगिज नहीं। अब चूंकि विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है, तो बिना दावेदारों के बात पूरी नहीं हो सकेगी।
दावेदार न हों तो राजनीति का आधे से ज्यादा धंधा एक झटके में बंद हो जाएगा। बड़े नेताओं की पूरे पांच साल तक पूजा ही इसलिए की जाती है कि इलेक्शन में टिकट मिलेगा। बड़ा नेता भी आखिर बड़ा वाला ही होता है, वो भी दावेदारों से खेलता रहता है, कभी सच्चाई नहीं बताता।

झूले में झुलाए रहता है। एक ही टिकट के लिए कई दावेदारों से प्रसाद चढ़वा लेता है। असली मजे बडे नेता ही लेता है। दावेदार की पूरी तपस्या पर आप गौर करेंगे तो आपको निश्चित तौर पर इनसे सहानुभूति हो जाएगी। जब कभी जोश में ये निर्दलीय खडे हो जाते हैं तो मिलने वाले सभी वोट सहानुभूति से उपजी प्रतिक्रिया मात्र ही होती है, और कुछ भी नहीं। परमात्मा भी शायद ही जानता हो कि टिकट का दावेदार अपने बारे में क्या सोचकर ये तय करता है कि उसे मैदान में उतरना है। बडी पहेली है ये। जिन्हें शहर का भूगोल और इतिहास धुंधला सा भी नहीं मालूम, उनके पोस्टर चौराहों पर ऐसे लगते हैं जैसे अब सब बदल जायेगा। एक भी दावेदार नहीं है, जिसके पास शहर या कस्बे के विकास का प्लान या डेवलपमेंट विजन हो, मगर टिकट का दावा अटल है। जो अपनी सारी योग्यता खर्च कर दें तो भी एक छोटा सा सारगर्भित भाषण नहीं दे सकते, उनका दावेदार हो जाना हास्य मिश्रित निराशा है। दावेदारों के सामने वाह-वाह करने वाले मुंह फेरते ही ठहाके मारकर हंसी उड़ाते हैं। दावेदार एक अच्छे कॉमेडियन की भूमिका भी निभा जाता है। प्रत्येक दावेदार को लगभग सभी मूर्ख ही समझते हैं, जो ऐसा नहीं समझते, वो अच्छे से जानते हैं कि बंदा इस श्रेणी से भी ऊपर का आदमी है। लेकिन, मुझे ऐसा नहीं लगता, मैं मानता हूँ कि दावेदार ही भारत की राजनीति के भविष्य की असल सम्भावनाएं हैं। जो आज कुर्सी पर फेविकोल से चिपके हुए बड़े नेता हैं, वे भी कभी दावेदार ही तो थे। लिहाजा, दावेदारी तो करनी ही चाहिए, क्या पता किस दिन दरवाजा खुल जाए और राजनीति और समाज को सच्चे अर्थों में नेता की प्राप्ति हो जाये।
मदन मोहन अवस्थी

Leave a Comment