ये पॉलिटिक्स है प्यारे

मनोज पटेल समर्थकों ने बैठे-बिठाए ले लिया पंगा

मनोज पटेल जैसे नेता के जीतने की बात तो हर किसी को हजम नहीं हो रही थी, क्योंकि पटेल की फोन नहीं उठाने और चुनाव आने पर ही सक्रिय होने की आदत सबको मालूम है। विशाल पटेल भी अपने आपको दूसरी बार का विधायक मानकर चल ही रहे थे, लेकिन बाजी उलटी हो गई और मनोज पटेल विधायक हो गए। वहीं देपालपुर विधानसभा का वह मिथक भी कायम रहा, जिसमें एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस का विधायक यहां से जीतता रहा है। इसी बात को मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने मजाकिया लहजे में कह दिया कि मनोज जीत सकता है तो फिर….बस क्या था, मनोज पटेल समर्थकों को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने बैठे-बिठाए विजयवर्गीय जैसे कद्दावर नेता से पंगा ले लिया और उनका पुतला जलाकर विरोध कर दिया। खैर इस विरोध में नुकसान पटेल का होना है समर्थकों का नहीं।

हवा निकल गई भाजपा के मोर्चा-प्रकोष्ठ की
भाजपा के मोर्चा और प्रकोष्ठ के पदाधिकारी कुछ तो नेताओं की परिक्रमा करते-करते बन गए और कुछ अपने पराक्रम से। भाजपा में 7 मोर्चा हैं, लेकिन इसमें दो-तीन को छोड़ दिया जाए तो बाकी के विधानसभा चुनाव प्रचार में अपने-अपने आकाओं की परिक्रमा में लगे हुए थे। वहीं प्रकोष्ठ भी दो दर्जन हैं, लेकिन काम करते कुछ ही नजर आए और बाकी हाजरी भराने में लगे रहे। वो तो भला हो मोदी का कि उनका जादू चल गया और शहर की 9 की 9 सीटें भाजपा के खाते में आ गईं, नहीं तो मोर्चा-प्रकोष्ठ के भरोसे चुनाव नहीं लड़ा जा सकता था।

ताई की मजबूरी या दिखावे की बात
मुख्यमंत्री के इंदौर आगमन पर भाजपा कार्यालय पर हुई बैठक में ताई भी नजर आई। ताई ने इस तरह से अपना भाषण दिया, जिसमें उनका रुंआसापन झलक रहा था। उन्होंने कहा कि मेरी भूमिका अब मां की हो गई है। उन्होंने यह भी स्वीकारा कि मैं बहुत दिनों बाद आई हंू। एक मां के नाते आपको आशीर्वाद दे दूं कि सारी सीटें आपने जिता दी। मैं चुनाव में पता करती रहती थी कि कौन क्या कर रहा है? आखिरकार ताई ने भी मान लिया कि वे अब मार्गदर्शक की भूमिका में हैं और उन्होंने इसका उदाहरण भी दिया।

चुनाव लडऩे वाले सारे कांग्रेसी गायब
कांग्रेस लाख जतन कर लें, लेकिन संगठन को मजबूत नहीं कर पाएगी। कारण, जब भी कोई चुनाव आता है तभी कांग्रेस एक्टिव होती है और इसमें सबसे आगे दिखते हैं वे लोग जो चुनाव लडऩे के इच्छुक होते हैं। जैसे ही चुनाव समाप्त होता है वे घर बैठ जाते हैं। कम से कम इंदौर के मामले में तो ये बात कही जा सकती है। पिछले दिनों रीगल तिराहे पर सांसदों के निलंबन के विरोध में धरना-प्रदर्शन हुआ, लेकिन चुनाव लड़े 9 प्रत्याशियों में से एक भी नजर नहीं आया। किसी ने बहाना बनाया कि वे शहर से बाहर हैं तो कुछ पारिवारिक कारणों से व्यस्त हैं। बस यही है कांग्रेस। जिन्हें मुंह दिखाना था वे जरूर आए, लेकिन वे भी जल्दबाजी में ही दिखे। 29 लोकसभा में से एक सीट पर कांग्रेस हैं और वह भी छिंदवाड़ा में। अभी से कांग्रेस की इस हरकत को देखकर साफ नजर आ रहा है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेसी कोई गुल खिलाने वाले नहीं है और अगर कुछ किया नहीं तो प्रदेश अध्यक्ष पटवारी की साख का क्या होगा?

पार्षद नहीं करवा पाए
पार्षदों की निगम में सुनने वाला कोई नहीं है। एक ऐसे ही मामले में जब एक भाजपा कार्यकर्ता के घर के सामने चैम्बर की गाद निकालकर ढेर लगा दिया और उसे उठाने की बारी आई तो निगमकर्मी टालते रहे। भाजपा नेता ने अधिकारियों तक से बात की, लेकिन नतीजा जस का तस निकला। आखिर में हारकर क्षेत्र के पार्षद से गुहार लगाई, उन्होंने अधिकाािरयों से कहा, लेकिन अधिकारी सुनने वाले कहां। उनका मन जब हुआ तब ही वहां से गाद हटी। पार्षद एक बड़े नेता के बड़े समर्थक हैं, फिर भी उनका काम नहीं हुआ तो आगे क्या होगा?

सांसद से मोहभंग
सांसद के आगे-पीछे घूमने वालों का अब मोहभंग होने लगा है। इनमें तो सांसद के एक करीबी ऐसे हैं जो साये की तरह साथ रहते थे, लेकिन अब नए-नवेले क्षेत्रीय विधायक के साथ ज्यादा नजर आ रहे हैं। हालांकि सांसद की सांसदी में 4 महीने से भी कम समय बचा है और ऐसे में अब नया ठिकाना भी जरूरी है। वैसे उक्त नेता ने मान लिया कि अपने सांसद को अब टिकट नहीं मिल पाएगा तो क्यों न सांसदी की दुकान मंगल होने के पहले नई दुकान सजा ली जाए। इसको लेकर सांसद के ग्रुप में ही चकल्लस चल रही है। कुछ तो सांसद से नाराज भी हैं कि उन्होंने अपने खास को ही आगे किया।

मधु भैया ने ऐसा हराया कि प्रदेश अध्यक्ष बन बैठे
जीतू पटवारी के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के पीछे राऊ में एक नई चर्चा चल पड़ी है। भाजपाई कहते सुने जा रहे हैं कि मधु भैया अगर जीतू पटवारी को नहीं हराते तो वे कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बन पाते। अब इसके पीछे की बात कर लें तो पटवारी ने जिस तरह से चुनाव लड़ा, उससे उनके समर्थक भी नाखुश रहें। पटवारी अपने भाषण में मधु वर्मा की तारीफ करते हुए उन्हें अपना पिता समान बताने लगे। वे तो कटाक्ष कर रहे थे, लेकिन राऊ के लोगों ने मधु वर्मा को ही सर्वेसर्वा समझ लिया और जब परिणाम आए तो मधु भैया विधायक बन गए। पटवारी को हराने के पीछे कई कारण रहे और इसमें उनकी पारिवारिक भूमिका भी रहीं, जिसमें उनके एक भाई पर कार्रवाई होना और कांग्रेस के दूसरे पदाधिकारियों पर विश्वास करना महंगा साबित हो गया। खैर जो भी होता है अच्छे के लिए होता है। अब पटवारी की राजनीति तो कम इंदौर तक सीमित न ोकर भोपाल की हो गई।

इंदौर के नजदीकी जिले की एक सीट पर बुरी तरह से हारे कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहीं मुंह नहीं दिखा रहे हैं। न ही सार्वजनिक तौर पर नजर आ रहे हैं। नेताजी को विश्वास था कि वे सामने वाले प्रत्याशी को अपने क्षेत्र में जाए बिना हरा सकते हैं, लेकिन ऐसी तगड़ी घेराबंदी हुई कि नेताजी को अहसास भी नहीं हुआ कि वे अपने क्षेत्र से चुनाव हार रहे हैं। -संजीव मालवीय

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