ब्‍लॉगर

बाबा साहेब के अनाम सहयोगियों को भी याद रखा जाना चाहिए

– आर.के. सिन्हा

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 27 सितंबर 1951 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की केन्द्रीय कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। दोनों में हिन्दू कोड बिल पर गहरे मतभेद उभर आए थे। बाबा साहेब ने अपने इस्तीफे की जानकारी संसद में दिए अपने भाषण में दी। वे दिन में तीन-चार बजे अपने सरकारी आवास वापस आए। इस्तीफे के अगले ही दिन 22 पृथ्वीराज रोड के अपने आवास को छोड़कर वे 26 अलीपुर रोड में शिफ्ट कर गए।

कैबिनेट से बाहर होने के बाद बाबा साहेब का सारा वक्त अध्ययन और लेखन में गुजरने लगा। उन्होंने 26 अलीपुर रोड में रहते हुए ही ‘’द बुद्धा ऐण्ड हिज़ धम्मा’ नाम से अपनी अंतिम पुस्तक लिखी। इसमें डॉ. अंबेडकर ने भगवान बुद्ध के विचारों की व्याख्या की है। इसका हिन्दी, गुजराती, तेलुगु, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड़, जापानी सहित और कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। बाबा साहेब की 26 अलीपुर रोड में ही दिसम्बर 1956 में मृत्यु हुई।

दरअसल, 1951 से लेकर जीवन के अंतिम समय तक उनके करीबी सहयोगियों-शिष्यों में तीन-चार लोग ही रहे। उन सबकी बाबा साहेब के प्रति उनके विचारों को लेकर आस्था अटूट थी। भगवान दास भी उनमें से एक थे। बाबा साहेब के विचारों को आमजन के बीच में ले जाने में भगवान दास का योगदान अतुलनीय रहा। वे बाबा साहेब से उनके 26 अलीपुर रोड स्थित आवास में मिला करते थे।

शिमला में 1927 में जन्मे भगवान दास एकबार बाबा साहेब से मिलने दिल्ली आए तो यहीं के होकर रह गए। उन्होंने बाबा साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका “दस स्पोक अंबेडकर” शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ है, जिनके जरिये बाबा साहेब के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे। उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत-सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये।

जमीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। भगवान दास ने सफाई कर्मचारियों पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक “मैं भंगी हूँ” अनेक भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज है। एकबार दलित चिंतक एस.एस दारापुरी बता रहे थे कि भगवान दास जी दबे-कुचले लोगों के हितों के प्रति जीवन भर समर्पित रहे। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं। भगवान दास ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतिहासिक काम किया। भगवान दास का 83 साल की उम्र में 2010 में निधन हो गया।

बाबा साहेब की निजी लाइब्रेरी में हजारों किताबें थीं। उन्हें अपनी लाइब्रेरी बहुत प्रिय थी। उस लाइब्रेरी को देखते थे देवी दयाल। वे बाबा साहेब से 1943 में जुड़े। बाबा साहेब जहां कुछ भी बोलते देवी दयाल उसे प्रवचन मानकर नोट कर लिया करते थे। कहना कठिन है कि उन्हें यह प्रेरणा कहां से मिली थी। वे बाबा साहेब के पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों और बयानों आदि की कतरनों को भी रख लेते थे। बाबा साहेब के सानिध्य का लाभ देवी दयाल को यह हुआ कि वे भी खूब पढ़ने लगे। वे बाबा साहेब के बेहद प्रिय सहयोगी बन गए।

उन्होंने आगे चलकर ‘डॉ. अंबेडकर की दिनचर्या’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब ही लिखी। उसमें अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। मसलन कि 30 जनवरी, 1948 को बापू की हत्या के बाद बाबा साहेब की क्या प्रतिक्रिया थी? बापू की हत्या का समाचार सुनकर बाबा साहेब स्तब्ध हो जाते हैं। वे पांचेक मिनट तक सामान्य नहीं हो पाते। फिर कुछ संभलते हुए बाबा साहब कहते हैं कि ‘बापू का इतना हिंसक अंत नहीं होना चाहिए था।” देवी दयाल को इस किताब को लिखने में उनकी पत्नी उर्मिला जी ने बहुत सहयोग दिया था क्योंकि पति की सेहत खराब होने के बाद वही पुरानी डायरी के पन्नों को सफाई से लिखती थीं। देवी दयाल का 1987 में निधन हो गया।

नानक चंद रतू भी बाबा साहेब के साथ छाया की तरह रहा करते थे। बाबा साहेब 1942 में वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में दिल्ली आ गए थे। उन्हें 22 प़ृथ्वीराज रोड पर सरकारी आवास मिला। बस तब ही लगभग 20 साल के रत्तू उनके साथ जुड़ गए। वे टाइपिंग भी जानते थे। रत्तू को बाबा साहेब के समाज के कमजोर वर्गों के लिए कार्यों और संघर्षों की जानकारी थी। बाबा साहेब ने उत्साही और उर्जा से लबरेज रत्तू को अपने पास रख लिया। उस दौर में बड़े नेताओं और आम जनता के बीच दूरियां नहीं हुआ करती थी। रत्तू पंजाब के होशियारपुर से थे। उसके बाद तो वे बाबा साहेब की छाया की तरह रहे। बाबा साहेब जो भी मैटर उन्हें डिक्टेट करते वह उसकी एक कॉर्बन कॉपी अवश्य रख लेते। वे नौकरी करने के साथ पढ़ भी रहे थे।

बाबा साहेब ने 1951 में नेहरू जी की कैबिनेट को छोड़ा तब बाबा साहेब ने रत्तू जी को अपने पास बुलाकर कहा कि वे चाहते हैं कि सरकारी आवास अगले दिन तक खाली कर दिया जाए। ये अभूतपूर्व स्थिति थी। रत्तू नए घर की तलाश में जुट गए। संयोग से बाबा साहेब के एक मित्र ने उन्हें 26 अलीपुर रोड के अपने घर में शिफ्ट होने का प्रस्ताव रख दिया। बाबा साहेब ने हामी भर दी। रतू जी ने अगले ही दिन बाबा साहेब को नए घर में शिफ्ट करवा दिया। मतलब उनमें प्रबंधन के गुण थे।

बाबा साहेब की 1956 में सेहत बिगड़ने लगी। रत्तू जी उनकी दिन-रात सेवा करते। वे तब दिन-रात उनके साथ रहते। बाबा साहेब के निधन के बाद रतू जी सारे देश में जाने लगे बाबा साहेब के विचारों को पहुंचाने के लिए। 2002 में मृत्यु से पहले उन्होंने बाबा साहब के जीवन के अंतिम वर्षों पर एक किताब भी लिखी।

बाबा साहेब के इन सभी सहयोगियों को भी याद रखा जाना चाहिए। ये सब उनके साथ निःस्वार्थ भाव से जुड़ गए थे। अब कहां मिलेंगे इस तरह के फरिश्ते।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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