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भावेश भाटिया बड़ी रोचक कहानी, खुद नहीं देख सकते लेकिन सैकड़ों को दिखा रहे राह

नई दिल्‍ली (New Delhi) । लोगों को रोज़ी-रोटी देते हुए अपनी मंजिल पाने की राह आसान नहीं होती, लेकिन ऐसा कर दिखाया है महाबलेश्वर के रहने वाले डॉ. भावेश भाटिया (Dr. Bhavesh Bhatia) ने। खुद नहीं देख पाने की दिक्कतों के बावजूद उन्होंने संघर्ष करते हुए सनराइज कैंड्ल्स (Sunrise Candles) की नींव रखी और विज़ुअली चैलेंज्ड (visually challenged) लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा किए। आज उनकी कंपनी में 9 हजार से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं, इनमें से अधिकांश फिजिकली या विजुअली चैलेंज्ड हैं।

रेटिना मस्कुलर डिटेरियेशन बीमारी​
डॉ. भावेश बचपन से ही रेटिना मस्कुलर डिटेरियेशन नामक बीमारी (आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम होना) से पीड़ित रहे और 23 की उम्र तक आते-आते उन्हें पूरी तरह से दिखाई देना बंद हो गया था। लेकिन यह तकलीफ भी उन्हें आगे बढ़ने से नही रोक सकी। उन्होंने पहले मोमबत्ती बनाने की ट्रेनिंग ली, फिर उन्हें ठेले पर बेचना शुरू किया। बाद में उनकी मेहनत रंग लाई और आज उनकी 14 राज्यों में 71 यूनिट्स हैं, जहां तकरीबन 9500 कर्मचारी काम करते हैं। इनमें करीब 98 प्रतिशत विजुअली चैलेंज्ड हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं।

आर्टिस्ट और उम्दा एथलीट​
डॉ. भावेश एक कुशल एंटरप्रेन्योर और बेहतरीन आर्टिस्ट तो हैं ही साथ ही एक उम्दा एथलीट भी हैं। स्कूल के समय में उन्होंने 45 दिनों में 6000 किलोमीटर का साइकिल टूर किया। वह महाराष्ट्र की सबसे ऊंची चोटी कल्सूबाई को 9 बार पार करने के साथ ही एवरेस्ट का बेस कैंप कर चुके हैं। उनका अगला लक्ष्य एवरेस्ट की चोटी को फतह करना है। वे समय-समय पर मैराथन में भाग लेने के साथ-साथ डिस्कस थ्रो, शॉटपुट और जैवलिन जैसे खेलों की पैरालंपिक स्पर्धा में अब तक कई मेडल अपने नाम कर चुके हैं।

मां की बात से ली प्रेरणा​
डॉ. भावेश ने अपनी मां की एक बात को हमेशा याद रखा। वे कहा करतीं थीं, ‘तुम देख नही पाते तो क्या हुआ, कुछ ऐसा करो जिससे यह दुनिया तुम्हें देखे।’ मां के कहे इस वाक्य ने किसी मुश्किल वक्त में भी उन्हें कभी रुकने नही दिया।

सहपाठी उड़ाते थे मजाक​
डॉ. भावेश कहते हैं कि मैं करीब 4-5 साल का था, जब मेरे माता-पिता को मेरी बीमारी का पता चला। उन्होंने मेरा एडमिशन सामान्य स्कूल में ही करवाया, ताकि मेरे मन में हीन भावना नहीं आ सके। मुझे दिखाई नहीं देने के कारण मेरे सहपाठी भी मेरा मजाक उड़ाते थे। यह सब सुनकर मुझे तो बहुत बुरा लगता, लेकिन मेरी मां मुझे उन बच्चों से दोस्ती करने के लिए कहतीं।

​बचपन बीती गरीबी में, किताबों का था शौक​
डॉ. भावेश के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उनके पिताजी एक संपन्न परिवार के घर में केयरटेकर की नौकरी करते थे और मां गृहिणी थीं। लेकिन उनके माता-पिता ने उनकी पढ़ाई में कभी कोई कमी नहीं होने दी। मां उन्हें किताबें पढ़कर सुनाया करतीं थी। उन्होंने दो विषयों में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। पढ़ाई खत्म होने के बाद उनकी मां को कैंसर होने की पुष्टि हुई। उनके इलाज कराने के लिए उन्होंने महाबलेश्वर में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की, लेकिन आंखों की रोशनी चली जाने के बाद उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उसी दौरान उनकी मां भी उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गई।

रास्ते की हर बाधा को किया पार​
डॉ. भावेश कहते हैं, ‘मां के निधन के बाद रोजगार का सवाल मेरे सामने था। मेरी आंखों की रोशनी भी पूरी तरह चली गई थी। एक दिन मेरे मोमबत्ती बनाना सीखने का ख्याल आया। मैंने नेशनल एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड इंस्टीट्यूट, मुंबई में दाखिला ले लिया। इस दौरान मसाज करना और ब्रेल लिपि भी सीखी।’

रुपयों के लिए मसाज तक की​
मोमबत्ती का बिजनेस शुरू करने के लिए पैसे कमाने की खातिर उन्होंने मसाज करने का काम किया। इससे पैसा इकट्ठा करके मोम और अन्य जरूरी सामान खरीदा। रात में वे घर पर ही मोमबत्ती बनाते और दिन में एक ठेले पर ले जाकर महाबलेश्वर के बाजार में बेचा करते। यहीं वे अपनी जीवनसंगिनी नीता से मिले, जो हमेशा के लिए उनकी हमसफर हो गईं।

सरकार की एक योजना से मिली दिशा​
डॉ. भावेश कहते हैं, ‘तत्कालीन सरकार की विजुअली चैलेंज्ड लोगों के लिए एक योजना शुरू हुई और मुझे 15 हजार रुपए का लोन मिल गया। वर्ष 1996 में हमने एक छोटे से कमरे से ही सनराइज कैंड्ल्स की नींव रखी। हमें अच्छा लगता है कि रैनबैक्सी, रिलाइंस, बिग बाजार जैसी कंपनियों ने हम पर भरोसा जताया और हमारे ग्राहक बने।’​

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