ब्‍लॉगर

गीता का संदेश आज भी प्रासंगिक

– गिरीश्वर मिश्र

आज के दौर में चिंता, अवसाद और तनाव निरन्तर बढ़ रहे हैं। बढ़ती इछाओं की पूर्ति न होने पर क्षोभ और कुंठा होती है। तब आक्रोश और हिंसा का तांडव शुरू होने लगता है। दुखद बात तो यह है कि सहिष्णुता और धैर्य कमजोर पड़ने लगे हैं। आपसी रिश्ते, भरोसा और पारस्परिकता की डोर टूटती-सी दिख रही है। धन सम्पदा भी बढ़ रही है, शायद ज्यादा तेजी से और अधिक मात्रा में। पर हर कोई बेचैन दिख रहा है। किसी के मन को शांति नहीं है, चैन नहीं है। इसकी खोज में लोग दौड़ लगा रहे हैं। वे पहाड़ों पर जाते हैं, सिद्ध और संत महात्मा की खोज में लगे रहते हैं, नशा करते हैं, मदिरा का सेवन करते हैं और किस्म-किस्म के व्यसन में जुट जाते हैं। अच्छे जीवन की तलाश जारी है पर प्रसन्नता दूर ही भागती रहती है। तृप्ति नहीं मिलती। कुछ और पाने की दौड़ लगी रहती है और संतुष्टि नहीं होती। शांति के बदले कोलाहल बढ़ रहा है, अंदर भी और बाहर भी। यह भी पाया जाता है कि आर्थिक समृद्धि का जीवन संतुष्टि के साथ कोई सीधा और ठोस रिश्ता भी नहीं है। सूचना और ज्ञान के समुद्र में डूबते और गोते लगाते सभी परेशान नजर आ रहे हैं। सुख की चाह और दुख को दूर रखना बहुत उपयोगी युक्ति या तरकीब नहीं रही। सकारात्मकता का केंद्र सिर्फ व्यक्ति बना रहे, अकेला आदमी, सबसे अलग-थलग यह न संभव है न उचित और उपादेय है। हमें विकल्प के विचार और जीवन की शैली पर गौर करना होगा। इस धुंधलके में श्रीमद्भगवद्गीता एक प्रकाश के स्रोत की तरह है जो हमारी अपनी स्मृति का हिस्सा तो है पर अचेतन में या अवचेतन में पहुंच जाने के कारण पहुंच से दूर हो गई है। 

कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत के भीष्म पर्व में (अध्याय 23-40) श्रीमद्भगवद्गीता प्राप्त होती है। इस अद्भुत रचना में कुल 700 श्लोक हैं जो 18 अध्यायों में निबद्ध हैं। अनुमानत: इसकी रचना 5वीं से दूसरी ईसा पूर्व की अवधि में हुई थी। हर अध्याय के साथ एक योग का नाम लगा हुआ है। इसके रचयिता महर्षि व्यास कथाओं के द्रष्टा और पात्र दोनों ही हैं। सारी कथाएं धर्म, युग धर्म, सूक्ष्म धर्म और धर्म संकट की व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। महाभारत की कथा विष्णु पुराण में आती है। गीता सम्वाद की शैली में है जिसमें चार लोग हिस्सा लेते हैं कृष्ण, अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय। कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश ही इसकी मूल कथा है। यह सब पांडव (अच्छाई!) और कौरव ( बुराई!) के बीच कुरुक्षेत्र के युद्ध संदर्भ में होता। विचार करने पर यह मनुष्य के अंदर चल रहे आंतरिक संघर्ष का नाटकीय रूप है। इसकी चुनौतियां आज के दौर में भी मानव जीवन में अनुभव की जा रही हैं। उपभोक्तावाद और बाजार की शक्तियों के विस्तार के साथ जो परिस्थिति बन रही है उसमें गीता का चिंतन और जरूरी होता जा रहा है। गीता इस तरह के कुहासे के दौर में प्रकाश की किरण है। सदियों से गीता ने विश्व मन को आकर्षित किया है। इसके दो हजार से ज्यादा अनुवाद विश्व की अन्यान्य भाषाओं में किए गए हैं। इसे उपनिषद, ब्रह्म सूत्र के साथ प्रस्थानत्रयी में रखा गया है। इसपर अनेक टीकाएं या व्याख्याएं शंकराचार्य से लेकर तिलक, गांधी और विनोबा जैसे राजनेता और समाजसेवी और परमहंस योगानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी प्रभुपाद , स्वामी चिन्मयानंद आदि अनेक संतों ने लिखी हैं। सबने प्रेरणा पाई है। गद्य पद्य के अनुवाद और विवेचन तो असंख्य हैं। यह निश्चय ही एक अत्यंत लोकप्रिय और विलक्षण रचना के रूप में चतुर्दिक स्वीकृत है, रुचि से पढ़ी जाती है और लोग प्रेरणा लेते हैं। इसकी तर्ज पर कई और गीताएं भी रची गई हैं जैसे- उद्धव गीता, अवधूत गीता, अष्टावक्र गीता, गणेश गीता और व्याध गीता। कहते हैं कि गीता को आत्मसात करो बाकी शास्त्रों के विस्तार में जाने की क्या जरूरत है? प्रसिद्ध है कि सभी उपनिषद गाय हैं, कृष्ण दूध दूहने वाले हैं, अर्जुन गाय के बछड़े हैं, गीतामृत दूध है, जिसे बुद्धिमान लोग पीते हैं।

गीता के आरम्भ में अर्जुन, सबसे योग्य धनुर्धर और महारथी विषाद से ग्रस्त होते हैं। वे युद्धस्थल में अपनों को विरोधी सेना में देख किंकर्तव्यविमूढ़ हैं कि क्या करें क्या न करें। इस तरह की द्वंद्व और तनाव की स्थिति आज भी हर कोई अनुभव करता रहता है। गीता पूरे व्यक्तित्व का परिष्कार करती है और इसके लिए जीवन जीने की प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराती है। गीता की घोषणा है कि सुख मनुष्य के अंतस में है बाहर की दुनिया में उसकी खोज व्यर्थ और निष्फल ही होती है। बाहर की सुखदायी प्रसन्नता क्षणिक है और वस्तुओं पर टिकी होने से एक खालीपन के अहसास को जन्म देती है। इस हालत में मन किसी दूसरे और फिर उसके बाद किसी और आकर्षण की ओर दौड़ता रहता है। इसलिए गीता का सुझाव है कि अपने ऊपर अपने आत्म (सेल्फ) के ऊपर नियंत्रण स्थापित करो, फिर सारी दुनिया मुठ्ठी में। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा ये सब मिलकर मनुष्य का निर्माण करते हैं। ये सभी क्रमश: प्रत्यक्ष और क्रिया, भावना और संवेग, निर्णय और विश्लेषण से जुड़े होते हैं। इन सबमें हमारी बुद्धि जो संकल्प और विकल्प से जुड़ी है खास महत्व की होती है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि चार रास्ते हैं: शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा। इनमें से अपना आधार चुनना होता है। हमारी मनो संरचना महत्वपूर्ण होती है क्योंकि हम जैसा सोचते हैं वैसा ही होते जाते हैं। ध्यातव्य है कि दीर्घकाल तक ध्यान करने वालों की मस्तिष्क की भौतिक संरचना तक में परिवर्तन पाए गए हैं। आध्यात्मिक जीवन में ध्यान परमात्मा पर सतत रूप से केंद्रित होता है। अत: असली चुनौती अंतर्मन की है। हमें उच्च चेतना पर, देवत्व की ओर, आत्मा की ओर ध्यान देना चाहिए (ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यंति यं योगिनो)। देवत्व की ओर ध्यान से आंतरिक शांति मिलेगी।

गीता की व्याख्या के अनुसार स्वस्तिभाव की कुंजी बिना इच्छा के बिना कामना के आनंद की अनुभूति में होती है। हमारा मानस ही सारी उथल-पुथल की जड़ है। इच्छाओं को कम करने में ही शांति है। हमें इच्छाओं का दास नहीं होना चाहिए। एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी चीज की चाह हमेशा बनी रहेगी। इच्छाएं मन पर छा जाती हैं, ढंक लेती हैं। सोच विचार को गलत दिशा में मोड़ देती है। तब सफलता भी नहीं मिलती। मन में असंतुष्टि और और क्षोभ पैदा होता है। ऐसे में इच्छाओं का प्रबंधन जरूरी ताकि उन्हें उदात्त बनाया जा सके। हमें इच्छाओं से मुक्ति की स्थिति में पहुंचना चाहिए। गीता इसके लिए तीन तरह की संचालन व्यवस्था का निर्देश देती है : कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग, जो क्रमश: शरीर, मन और बुद्धि पर केंद्रित हैं।

कर्म योग वह प्रौद्योगिकी है जो वर्तमान इच्छाओं का शमन करती है और नई इच्छाओं को जन्म नहीं लेने देती है। अनासक्त भाव से कर्म करने पर हम काम तो करते हैं परंतु वह क्रिया हमें बांधती नहीं है। स्वधर्म का पालन करना चाहिए। हमें अपने कर्म को व्यापक लोक तरक्की की ओर उन्मुख कर देना चाहिए। स्वार्थ के अधीन कर्म से नि:स्वार्थ कर्म की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। त्याग से आनंद पाना चाहिए। महत्तर और बड़े कार्य करने के महान परिणाम होते हैं। नि:स्वार्थ कर्म ही श्रेष्ठ मार्ग है। व्यक्ति को परिणाम की चिंता किए बिना अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। हीनता या कमी (डेफीसियेंसी) की प्रेरणा से प्रेरित नहीं होना चाहिए। कृतज्ञता से शांति मिलती है। हमें समग्र का अंश होना चाहिए। दूसरों के प्रति प्रेमभाव से प्रेम ही मिलता है। इसके लिए अपनी भावनाओं पर नियंत्रण जरूरी है। कार्य के विकल्प का निर्धारण भावना से नहीं बुद्धि से किया जाना चाहिए।

प्रसन्नता और आश्वस्तिभाव एक मानसिक अवस्था है। इस हेतु आत्म-विचार आवश्यक है। भौतिक सुख तो आते-जाते रहते हैं और हमेशा कम ही पड़ते हैं। दूसरी ओर त्याग अधिक समृद्ध करने वाला है। आध्यात्मिक जीवन असीम होता है। त्याग करके आनंद की प्राप्ति करनी चाहिए। ध्यान इस यात्रा में सहायक होता है। तभी व्यक्ति स्थित प्रज्ञ होता है, समत्व की प्राप्ति होती है और कर्म में कुशलता आती है।

गीता के आख्यान अंत में हम पाते हैं कि अर्जुन का मोह समाप्त हो गया और स्मृति वापस मिल गई। अपनी प्रकृति या स्वभाव को समझ लिए और सारे संदेह चले गए। हमें आशा है कि एकदिन हम सब भी स्मरण कर सकेंगे और आत्मबोध पा सकेंगे। गीता का विचार है कि व्यक्ति अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु। जिसने अपने आप से अपने आपको जीत लिया है, उसके लिए आप ही अपना बंधु है और जिसने अपने आप को नहीं जीता है, ऐसे अनात्मा का आत्मा ही शत्रुता में शत्रु की तरह बर्ताव करता है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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