ब्‍लॉगर

आधी आबादी और समानता की आस

– डॉ. निवेदिता शर्मा

संयुक्त राष्ट्र महासचिव गुटेरेश ने हाल ही में विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं को हरसम्भव समर्थन देने की की घोषणा की है। निसंदेह इससे इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन के अनुसार, स्कूलों में लड़कियों की संख्या पहले की तुलना में कहीं अधिक है, लेकिन विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, और गणित विषयों में उनका प्रतिनिधित्व अब भी कम है। हर तीन में से केवल एक शोधकर्ता महिला है। कृत्रिम बुद्धिमता जैसे अत्याधुनिक क्षेत्रों में इनकी संख्या और भी कम है। यहां हर पांच में से केवल एक महिला ही कार्यरत है। देखा जाए तो चिंता का विषय इतना भर नहीं है कि विज्ञान अथवा तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं के साथ न्याय नहीं हो रहा। व्यवहार में सच यही है कि जो देश स्वयं को बहुत विकसित मानते हैं, वहां भी लैंगिक समानता का अभाव हर स्तर पर है। यही कारण है कि विश्व में किसी भी स्थान की महिला क्यों न हो, वह आपको अपने लिए सामाजिक, तकनीति, शोध एवं रोजगार के समस्त क्षेत्रों में संघर्ष करती और सहज रास्ता खोजती दिखाई देती है ।

इसे यदि भारत के संदर्भ में देखें तो श्रम बाजार में महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में अब तक ठीक नहीं हो पाई है। हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद जरूर नवाचारों का बड़ा परिवर्तन दिखाई दिया है। राजनीतिक तौर पर जागृति आई है और सामाजिक स्तर पर इसका लाभ यह हुआ है। बावजूद इसके यह भी स्वीकारना होगा कि जो परिवर्तन होने चाहिए वह अभी बदलाव बाकी है।


विश्व आर्थिक मंच की द ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट की पिछले साल की रिपोर्ट भी महत्वपूर्ण है। वह भी यही इशारा करती है। पुरुषों और महिलाओं के बीच श्रम भागीदारी असमानता में एक से चार प्रतिशत का अंतर सामान्यत: देखा जा सकता है। एक बारगी को शासकीय नौकरियों और निजी क्षेत्र के कुछ विशेष रोजगार स्थलों को छोड़ दिया जाए तो आज भी समान कार्य का समान वेतन एक महिला होने के कारण से उसे नहीं दिया जा रहा है। एक सर्वे संपूर्ण भारत के संदर्भ में दृष्टि स्त्री अध्ययन प्रबोधन केंद्र का भी सामने आ चुका है। यह रिपोर्ट देश के 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों की 74 हजार से अधिक महिलाओं के अनुभव पर आधारित है ।

इस सर्वे में सामने आया कि पचास प्रतिशत महिलाएं ही दिन में दोबार भोजन कर पाती हैं। 3.73 प्रतिशत महिलाओं को दिन में एक बार ही भोजन मिलता है। 18 साल से कम की 64 प्रतिशत लड़कियों को माहवारी से जुड़ी समस्याएं हैं। दूसरे नंबर पर आर्थराइटिस की समस्या सामने आई । 5.28 प्रतिशत महिलाएं ब्लड प्रेशर, 3.07 प्रतिशत महिलाएं हृदय रोग, 1.62 प्रतिशथ डायबिटीज और 0.51 प्रतिशत महिलाएं कैंसर से जूझ रही हैं। सर्वे में शिक्षा का सर्वाधिक प्रतिशत ईसाई समुदाय की महिलाओं में और उसके बाद हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम, जैन और सिख समुदाय की महिलाओं में पाया गया। सबसे अधिक जनजाति महिलाएं रोजगार से संबद्ध मिलीं। सामान्य अन्य कैटेगरी में बेरोजगारी की दर सबसे ज्यादा पाई गई । उसमें भी जिनके पास रोजगार है तो उनकी शिकायतें अधिक हैं जैसे-बच्चों के लिए क्रेच की सुविधा उपलब्ध नहीं, कैंटीन, परिवहन और कार्यस्थल पर रेस्ट रूम की सुविधा नहीं, 60% से भी अधिक को लोन सुविधा नहीं।

इस सर्वे में पाया गया कि शादी और आर्थिक तंगी के कारण लड़कियों को बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। आरक्षण एससी और एसटी और ओबीसी लड़कियों को उच्च शिक्षा हासिल करने में मददगार है। सर्वे में दो तिहाई महिलाएं अपने रुचि के विषयों के बारे में नहीं बता पाईं, जिससे पता चलता है कि उन पर जिम्मेदारियां इतनी अधिक हैं कि उन्हें अपनी रुचि के बारे में सोचने का मौका ही नहीं मिलता। सर्वे में शामिल एक चौथाई महिलाओं ने बताया कि वह अपने लिए फुरसत के पल नहीं निकाल पातीं। इसके साथ ही इस सर्वे में कहा गया है कि आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़ीं महिलाएं दूसरे क्षेत्र की महिलाओं से ज्यादा खुश हैं। लिव इन में रहने वालीं महिलाओं की तुलना में शादी कर घर बसाने वालीं महिलाएं ज्यादा खुश हैं। 90 प्रतिशत ऐसी महिलाएं, जिनके पास परिवार और रोजगार दोनों ही नहीं, वह ज्यादा खुश हैं।

इस सर्वे का निचोड़ कि पैसे का खुशियों से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में यह रिपोर्ट भारत की समस्त स्त्री जाति के समग्र अध्ययन को लेकर है। लेकिन इसमें भी जो बात निकलकर सामने आई है वह यही है कि रोजगार के स्तर पर कार्यरत अधिकांश महिलाएं खुश नहीं हैं। वैसे कानून के स्तर पर कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण की व्यवस्था करने के उद्देश्य से श्रम कानूनों में उचित संरक्षणात्मक प्रावधानों का समावेश किया गया है, जैसे -शिशु देख-रेख केन्द्र, शिशुओं को दूध पिलाने के लिए आवश्यक समय देना, सवेतन मातृत्व छुट्टी का 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह करना, 50 या इससे अधिक कार्मिकों वाले प्रतिष्ठानों में अनिवार्य शिशु गृह की सुविधा, रात में काम करने वाली महिलाओं के लिए पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था, इत्यादि। समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1948 भी बिना किसी भेद-भाव के पुरुषों एवं महिलाओं पर समान रूप से लागू हैं।

इतना ही नहीं तो देश में महिला कामगारों के लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों, राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों एवं प्रादेशिक व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों में आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान कर रही है। कार्य स्थल पर महिला उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध एवं निवारण) अधिनियम दारा इस संबंधी विविध प्रावधान किए गए हैं- उत्पीडन शिकायत प्राप्त करने के लिए आंतरिक शिकायत समिति प्रत्येक जिले में स्थानीय शिकायत समिति (एलसीसी) की स्थापना हुई है।

महिला शक्ति केंद्र योजना के अंतर्गत सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने का कार्य किया जा रहा है। महिला हेल्पलाइन योजना एकल नंबर (181) के माध्यम से हिंसा से प्रभावित महिलाओं को 24 घंटे आपातकालीन एवं गैर-आपातकालीन सुविधा प्रदान करने क साथ-साथ महिलाओं से संबंधित सरकारी योजनाओं का जानकारियां दी जाती हैं। वन स्टॉप सेंटर की स्थापना प्रत्येक जिले में की गई है। महिला उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से मुद्रा योजना , स्टैंड अप योजना ,महिला ई हाट का उपाय किया गया है। बावजूद इसके श्रम एवं समाज के स्तर पर उनके प्रति भेदभाव आज भी चिंता का विषय है। इसे पाटने की जरूरत है। उम्मीद करें कि वह दिन जल्दी आए और समाज में समता के स्तर पर हर क्षेत्र में महिलाओं के साथ समान व्यवहार हो।

(लेखिका, मध्य प्रदेश राज्य बाल संरक्षण आयोग की सदस्य हैं।)

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