
सरकार चाहती है नामांकन-बटांकन को आसान बनाना पर प्रशासन ने प्रक्रिया को और जटिल बना डाला
पहले पटवारी को ही थे नामांतरण के अधिकार, अब तहसीलदार चलाते हैं प्रकरण
इंदौर। एक ओर सरकार किसानों (Farmers) को राहत देने के लिए जमीनों के नामांतरण (Nomination), बटांकन, सीमांकन को सरल बनाने के प्रयास में लगी है, वहीं प्रशासनिक अधिकारी इन प्रक्रियाओं को और जटिल बनाने में लगे हुए हैं। जमीन खरीदने के बाद सरकार जहां रजिस्ट्री (Registry) के साथ ही राजस्व अभिलेखों में नामांतरण का प्रावधान लाने में जुटी है, वहीं प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा जमीन खरीदने के बाद राजस्व अभिलेखों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए इतने सवाल खड़े कर रहे हैं कि जिसको लेकर कई जगह विवाद की स्थिति बनती जा रही है।
प्रदेश सरकार जहां रजिस्ट्री होते ही नामांतरण के प्रस्ताव में लगी है, वहीं इंदौर जिला प्रशासन (District Administration) द्वारा नामांतरण को लेकर तरह-तरह के सवाल खड़े किए जा रहे हैं। पहले जहां रजिस्ट्री होते ही पटवारी को ही नामांतरण के अधिकार थे, वहीं अब तहसीलदार के समक्ष प्रकरण दाखिल करने के उपरांत नामांतरण किया जाता है। आवेदन के पश्चात तहसीलदार द्वारा धारा 109 और 110 के अंतर्गत कार्रवाई शुरू करते हुए पटवारी से प्रतिवेदन मंगाया जाता है। इस प्रतिवेदन में कई ऐसे सवाल किए गए हैं, जिनका संबंध नामांतरण से नहीं होता है, जैसे भूमि पर वर्तमान में किसका नाम तथा किसका कब्जा है, जबकि रजिस्ट्रार द्वारा पी-1, पी-2 प्रमाणित प्रतिलिपि के आधार पर ही कृषि भूमि की रजिस्ट्री की जाती है और नामांतरण में कब्जा देखना आवश्यक नहीं होता है। इसके अलावा यह प्रश्न किया जाता है कि उक्त भूमि में शासकीय अथवा नजूल भूमि तो प्रभावित नहीं हो रही है, जबकि रजिस्ट्री के समय प्रस्तुत दस्तावेज में ही भूस्वामी के प्रमाण होने पर रजिस्ट्री की जाती है। इसके अलावा भूमि के संबंध में न्यायालय के प्रकरण की जानकारी के अलावा भूमि के शासकीय मद में दर्ज होने की जानकारी मांगी जाती है। पटवारी से पूछा जाता है कि उक्त भूमि अवैध कालोनी का हिस्सा तो नहीं है या सीलिंग, देव स्थान की तो नहीं है। ऐसे कई सवाल पटवारी से किए जाते हैं, जिसके जवाब या तो रजिस्ट्री के समय प्रस्तुत दस्तावेजों में रजिस्ट्रार के समक्ष पहले ही प्रस्तुत किए जाते हैं तो कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब खुद पटवारी नहीं दे सकता, लेकिन यह पत्र देकर तहसीलदार द्वारा पटवारी को जिम्मेदार बनाया जाता है। इन्हीं सवालों में पटवारी से पूछा जाता है कि उक्त भूमि का नामांतरण किया जा सकता है या नहीं, जबकि यह तय करने का अधिकार पटवारी को नहीं होता। तहसीलदार द्वारा पटवारी से यह तक पूछा जाता है कि क्या उक्त भूमि किसी बैंक या शासकीय संस्था में बंधक तो नहीं है। अब पटवारी सिर से लेकर पैर तक का जोर लगा ले तो भी वह भूमि पर लिए गए ऋण आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं करा सकता।
ऐसे-ऐसे सवाल… जिनके जवाब या तो रजिस्ट्री के पहले ही रजिस्ट्रार लेता है या पटवारी भी नहीं दे सकता
तहसीलदार द्वारा पटवारी को निम्न बिन्दुओं पर जांच कर अपना प्रतिवेदन न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है…
01. भूमि पर वर्तमान में किसका नाम दर्ज है व किसका कब्जा है।
02. उक्त भूमि के नामांतरण से शासकीय अथवा नजूल भूमि तो प्रभावित नहीं होती।
03. उक्त भूमि डायवर्टेड तो नहीं हैै।
04. उक्त भूमि के संबंध में कोई न्यायालयीन प्रकरण तो नहीं है।
05. उक्त भूमि शासकीय मद में दर्ज तो नहीं है।
06. भूमि, भूदान/सीलिंग/आदिवासी/देव स्थान की तो नहीं है।
07. उक्त भूमि पर कितने वृक्ष लगे हैं।
08. उक्त भूमि अवैध कालोनी का हिस्सा तो नहीं है।
09. उक्त भूमि मिसल बंदोबदस्त में किस मद की है।
10. क्या प्रश्नाधीन भूमि का नामांतरण किया जा सकता है।
11. उक्त भूमि किसी शासकीय योजना/भू-अर्जन में तो नहीं हैै।
12. भूमि राष्ट्रीयकृत बैंक या अन्य जगह बंधक तो नहीं है।
अब यदि पटवारी ईमानदारी से इन सवालों का जवाब ढूंढने निकले तो कई विभागों में चक्कर लगाते-लगाते महीनों गुजर जाएं।
जमीन बेचने वाले विक्रेता को बुलाने का अजीब प्रावधान
नामांतरण आवेदन के बाद तहसीलदार द्वारा जमीन बेचने वाले किसान को तलब किया जाता है और पूछा जाता है कि उसे नामांतरण पर तो कोई आपत्ति नहीं है। अब यदि जमीन बेचने के बाद किसी किसान की नीयत में खराबी आ जाए और वह नामांतरण से इनकार कर दे तो खरीदने वाला झगड़े में पड़ जाता है, जबकि जमीन की रजिस्ट्री के दस्तावेज के बाद विक्रेता को बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऑनलाइन रजिस्ट्री के बाद भूमि के क्रय-विक्रय की तमाम आशंकाएं जहां समाप्त हो जाती हैं, वहीं रजिस्ट्री के पूर्व राजस्व अभिलेखों के तमाम प्रमाणित दस्तावेज रजिस्ट्रार द्वारा मांगे जाते हैं।
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