– सियाराम पांडेय ‘शांत’
भारतीय जनता पार्टी जीत पर जीत दर्ज कर रही है। उत्तरप्रदेश विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकारी चुनाव में उसकी शानदार जीत ने यह साबित कर दिया है कि उत्तर प्रदेश के गांव, ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर तक उसकी पकड़ मजबूत हुई है। उसकी नीति, नीयत और कार्य संस्कृति पर जनता का विश्वास बढ़ा है। विधानसभा चुनाव में तो समाजवादी पार्टी को 111 सीटें मिलीं भी थीं लेकिन विधान परिषद चुनाव में वह खाता भी नहीं खोल पाई है। इस पर सपा प्रमुख की जो प्रतिक्रिया आई है, वह उनकी बौखलाहट का ही इजहार करती है। कायदे से तो उन्हें हार पर आत्ममंथन करना चाहिए लेकिन वे भाजपा पर ही लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगा रहे है लेकिन जिस तरह उन्हें शिवपाल यादव, आजम खान और बर्क जैसे बड़े नेताओं का विरोध झेलना पड़ रहा है, वह भी उनके राजनीतिक पराभव का एक बड़ा कारण हो सकता है।
भारतीय राजनीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि यहां पराजय के कारणों पर विचार तो होता नहीं, उस पर पर्दा डालने की कोशिशें जरूर होती रही हैं। विधान परिषद की 36 में से 9 सीटों पर तो भाजपा प्रत्याशी पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे लेकिन जिन 27 सीटों पर चुनाव हुए, उनमें भी 24 पर भगवा लहराना बड़ी बात है लेकिन जिस तरह वाराणसी में एक अपराध माफिया की पत्नी भाजपा प्रत्याशी को तीसरे स्थान पर छोड़ते हुए जीती है, उसे क्या कहेंगे। इसमें सुशासन की सुगंध तो आती नहीं।
सपा प्रमुख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के 18 स्वजातीय के विधान परिषद चुनाव जीतने पर तंज भी कस रहे हैं कि यह कैसा सबका साथ, सबका विकास? हर विधान परिषद चुनाव में पराजित दल ने सत्तारूढ़ दल पर कुछ इसी तरह के आरोप लगाए हैं और उनकी फलश्रुति नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह रही है। जब सपा सरकार थी तब सपा के 31 प्रत्याशी जीते थे।मायावती और मुलायम सिंह के कार्यकाल में भी एमएलसी निकाय चुनाव में क्रमशः बसपा को 34 और सपा को 24 सीटें मिली थीं। कांग्रेस सत्ता में थी तो उसके सर्वाधिक विधान पार्षद चुने गए थे।
ऐसे में अगर अखिलेश यह आरोप लगा रहे हैं कि योगी सरकार ने गड़बड़ी की है तो क्या उनके भी दौर में चुनावी गड़बड़ी हुई थी। इस सवाल का जवाब तो उन्हें देना ही चाहिए। साथ ही जनता को यह भी बताना चाहिए कि उनका गढ़ कही जाने वाली आजमगढ़ व इटावा-फर्रुखाबाद सीट भी सपा क्यों हारी? क्या शिवपाल यादव के अच्छे दिन का यही इशारा था? क्या यादवों और मुसलमानों के बीच अखिलेश की पकड़ ढीली पड़ रही है। आजम खान अगर नई पार्टी बनाते हैं तो अल्पसंख्यक वर्ग क्या सपा के प्रति इसी तरह प्रतिबद्ध रह पाएगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल है जिसका जवाब अगर अखिलेश ने समय रहते न तलाश तो उसकी राजनीतिक जमीन को छिनते देर नहीं लगेगी।
चार दशक के उत्तर प्रदेश विधान परिषद के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब वहां किसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत मिला है। इससे पूर्व 1982 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश विधान परिषद में पूर्ण बहुमत मिला था। विधान परिषद में बहुमत का आंकड़ा 51 का है। अब भाजपा के 67 एमएलसी हो चुके हैं। यानी बहुमत के आंकड़े से भी 16 ज्यादा। उच्च सदन में अब समाजवादी पार्टी के 17, बसपा के चार, कांग्रेस के एक, अपना दल (सोनेलाल) के एक सदस्य हैं।
वर्ष 2018 में 13 सदस्य निर्विरोध ही चुनाव जीत गए थे। इसमें योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, डॉ. दिनेश शर्मा समेत 10 सदस्य भाजपा के थे। इसके अलावा अपना दल (सोनेलाल) और सपा के एक-एक सदस्य भी चुने गए थे। 2020 में शिक्षक एमएलसी के चुनाव हुए थे। तब छह सीटों में से तीन पर भाजपा, एक पर सपा और दो पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत हासिल की थी। 2020 में ही पांच एमएलसी की सीटों के लिए चुनाव हुए थे। तब तीन पर भाजपा और एक पर समाजवादी पार्टी की जीत हुई थी। 2021 में भाजपा के चार सदस्यों को राज्यपाल ने नामित किया था। राजनीति में हार-जीत सामान्य बात है। लेकिन लगता है कि राजनीति में अब सोच-समझ का तत्व गायब हो रहा है। काश इस पर विचार हो पाता।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)
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