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क्या संभव है सरकारी आदेश के बाद पालीथिन पर प्रतिबंध!

– लिमटी खरे

विकास का पहिया लगातार ही घूम रहा है। विकास के साथ ही साथ परिवर्तन भी लोगों ने देखा है। वर्तमान प्रौढ़ हो रही पीढ़ी तो बहुत तेज गति से हुए परिवर्तन की साक्षात गवाह है। वैज्ञानिकों ने मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा नहीं उठा पाया है। इस तरह की अन्य बहुत सी बातें हैं जिन्हें वैज्ञानिक सुलझा नहीं पाए हैं। प्लास्टिक का कचरा दुनिया भर में फैला हुआ है और इस कचरे का निष्पादन ही सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा है।

आज दुनिया में प्लास्टिक ने एक क्रांति अवश्य लाई है पर प्लास्टिक के कारण पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है इस बारे में शायद ही कोई जानता हो। एक समय था जब लोग एक स्थान से दूसरे स्थान जाते समय सुराही, छागल अथवा कांच की बोतलों में पानी ले जाया करते थे। समय बदला आज इन सबका विकल्प बहुत ही सस्ती प्लास्टिक की बाटल्स ले चुकी हैं। प्लास्टिक रूपी कचरा आज महानगरों में सीवर का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है। मुंबई जैसे शहर में इसी प्लास्टिक के कारण हर साल बारिश में जलभराव की स्थितियां पैदा हो जाती हैं।

दरअसल, प्लास्टिक की संरचना बहुत सारे रसायनों से मिलकर होती है जो हृदय और कैंसर रोग सहित अनेक बीमारियों के जनक माने जाते हैं। प्लास्टिक का इतिहास काफी पुराना माना जा सकता है। 1856 में इंगलैण्ड के बर्मिघम निसासी एलेक्जेंडर पार्क्स के द्वारा कराया गया था। प्लास्टिक का पहला स्वरूप 1862 में दुनिया के सामने आया था। इसे एक प्रदर्शनी में रखा गया था। एलेक्जेंडर ने पार्केसाइन कंपनी बनाकर 1866 में इसका व्यवसायिक उत्पादन आरंभ किया।

बात की जाए पालीथिन की तो पालीथिन को सबसे पहले जर्मनी के हैंस वोन पैचमान के द्वारा 1898 में इसे प्रयोगशाला में एक प्रयोग के दौरान ही सफेद रंग का मोम जैसा पदार्थ बनते हुए देखा। उन्होंने इसका अध्ययन किया और इसे पालीथिन का नाम दे दिया गया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में फार्मेल्डीहाईड, फिनोल और सिंथेटिक जैसे पदार्थों का उपयोग कर प्लास्टिक बनाना आरंभ कर दिया गया।

इसके बाद शोध दर शोध के उपरांत 1907 में बेल्जियम मूल के पर अमेरिका में रहने वाले डॉ. लियो हेंड्रिक बैकलैण्ड के द्वारा इस पूरी प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन करते हुए सिंथेटिक तरीके से प्लास्टिक का निर्माण आरंभ किया गया, जिसका उपयोग कई तरह के उद्योगों में भी किया जाने लगा। इसमें एस्बेस्टॉस, स्लेट बनाने के पाऊडर और लकड़ी के बुरादे आदि को इसमें मिलाकर गर्म कर जब ठण्डा किया गया तो एक कठोर पदार्थ मिला। 1912 में बैकलैण्ड के नाम पर ही इसका नामकरण बैकलाईट रखा गया।

औद्योगिक तौर पर प्लास्टिक के उत्पादन की अगर बात की जाए तो 1933 में 27 मार्च को एक शोध के दौरान गलति से एक सफेद पदार्थ बन गया, जिसे शोधकर्ताओं ने सिरे से खारिज कर दिया किन्तु उस दौर के युवा वैज्ञानिक जार्ज फीचम के द्वारा इससे निराश न होकर इस पर और शोध किए गए और कालांतर में यह औद्योगिक तौर पर पालिथिन के रूप में स्थापित हुआ। देखा जाए तो प्लास्टिक शब्द की उत्तपत्ति ग्रीक के एक शब्द प्लास्टिकोज अथवा प्लास्टोज ही मानी जाती है, इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ होता है लचीला या मनचाहा आकार देना।

पालीथिन के कुछ फायदे हैं तो अनेक नुकसान भी हैं। 21वी सदी के अंतिम दशक के बाद प्लास्टिक ने जिस तरह से तबाही मचाना आरंभ किया है वह वास्तव में बहुत ही दर्दनाक माना जा सकता है। आज प्लास्टिक के खतरों को भांपते हुए दुनिया भर में इसे प्रतिबंधित करने की कवायद की जा रही है। अगर आप भारत के परिपेक्ष्य में बात करें तो भारत में प्लास्टिक की समस्या दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। यह प्रकृति पर यह कहर बनकर टूट रहा है तो दूसरी ओर मनुष्य और यहां रहने वाले हर जीव जंतु के लिए परेशानी का सबब ही बन चुका है। सिंगल यूज प्लास्टिक वास्तव में बहुत ही गंभीर समस्या बन चुका है। 01 जुलाई के बाद इसके कुछ निर्माण घटकों के निर्माण पर भले ही प्रतिबंध लगाया गया हो पर ये प्रतिबंध भी अन्य प्रतिबंधों की तरह ही साबित होते नजर आ सकते हैं।

01 जुलाई 2022 से सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके पहले प्रधानमंत्री के द्वारा 2019 में 15 अगस्त एवं इसी साल 02 अक्टूबर को प्लास्टिक पर प्रतिबंध की बात कही थी। देखा जाए तो सिंगल यूज प्लास्टिक का निर्माण ही प्रतिबंधित कर दिया जाए तो बात बने, क्योंकि सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने से बेहतर होगा इसके निर्माण पर ही रोक लगा दी जाए। वैसे इस बार सरकार के द्वारा जिस सख्ती के साथ इस बात को दोहराया है उससे कुछ उम्मीद जागती दिख रही है।

कहा जा रहा है कि अनेक कंपनीज के द्वारा भी सरकार से इस फैसले पर पुर्नविचार करने की अपील की है। इसका कारण यह है कि खुदरा व्यापारियों तक माल भेजने और चिल्हर व्यापारियों को सामान पैक करने आदि के लिए इसका कोई विकल्प फिलहाल मौजूद नहीं है।

चूंकि प्लास्टिक के केरीबैग बहुत सस्ते होते हैं इसलिए लोग घरों से कपड़ों के थैले लेकर नहीं निकलते हैं। वहीं, कागज की थैलियां बहुत ज्यादा मजबूत नहीं होती हैं। एक तरह से देखा जाए तो आज प्लास्टिक लोगों की जीवनशैली का हिस्सा बन गया है। बेहतर होता कि सरकार के द्वारा इसके विकल्प को पहले तैयार कर लिया जाता।

आज प्लास्टिक एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में सामने आता दिख रहा है। देश के हर जिले में कमोबेश हर जगह पर प्लास्टिक पर प्रतिबंध के लिए साल में एकाध बार रस्म अदायगी कर ली जाती है। महानगरों में नालियों का चोक होना, प्लास्टिक के जलाने से दमघोंटू वातावरण बनना आदि बहुत ही खतरनाक स्थितियों को पैदा करने वाले होते हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि इसके लिए सख्ती तो अपनाए साथ ही लोगों को जागरूक करने के लिए ठोस कार्ययोजना भी तैयार कराई जाए!

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