ब्‍लॉगर

महर्षि चरक के नाम की शपथ लेंगे चिकित्सा विज्ञान के छात्र

– प्रमोद भार्गव

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए 17 सौ साल पुरानी व्यवस्था को बदलने की अनुशंसा की है। देश में चिकित्सा विज्ञान अर्थात एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे छात्रों को अब हिप्पोक्रेटिक ओथ की बजाय महर्षि चरक की शपथ (ओथ) दिलाई जाएगी। इसकी शुरूआत नए पाठ्यक्रमों से होगी। दरअसल चिकित्सक बनने के लिए समाज एवं मानवता के प्रति निर्विकार निष्ठा और अपने ज्ञान को सत्यता के साथ प्रयोग करना जरूरी है।

दुनियाभर में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्र एक शपथ लेते हैं, जिसे ‘हिप्पोक्रेटिक ओथ‘ कहा जाता है। यह शपथ ग्रीक चिकित्साविद् हिप्पोक्रेट्स को समर्पित है। इसमें अपने व्यवसाय के प्रति ईमानदारी से कर्तव्य पालन एवं निष्ठा की शपथ दिलाई जाती है। भारत में चिकित्सा के जनक माने जाने वाले महर्षि चरक की संस्कृत पुस्तक ‘चरक संहिता‘ में भी चिकित्सा की पढ़ाई करने वाले छात्रों के लिए एक शपथ का उल्लेख है। संस्कृत में लिखी गई इस शपथ में गुरु अपने शिष्य को निर्लिप्त दायित्व पालन के निर्देश देते हैं। आयोग ने इसी शपथ की सिफारिश की है। हालांकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने संसद में कहा है कि चरक-शपथ को अनिवार्य नहीं वैकल्पिक रखा जाएगा।

संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख है कि धरा पर प्राणियों की सृष्टि से पहले ही प्रकृति ने घटक-द्रव्य युक्त वनस्पति जगत की सृष्टि कर दी थी, ताकि रोगग्रस्त होने पर उपचार के लिए मनुष्य उनका प्रयोग कर सके। भारत के प्राचीन वैद्य धन्वन्तरि और उनकी पीढ़ियों ने ऐसी अनेक वनस्पतियों की खोज व उनका रोगी मनुष्य पर प्रयोग किए। इन प्रयोगों के निष्कर्ष श्लोकों में ढालने का उल्लेखनीय काम भी किया, जिससे इस खोजी विरासत का लोप न हो। इन्हीं श्लोकों का संग्रह ‘आयुर्वेद‘ है। एक लाख श्लोकों की इस संहिता को ‘ब्रह्म-संहिता‘ भी कहा जाता है। इन संहिताओं में सौ-सौ श्लोक वाले एक हजार अध्याय हैं। बाद में इनका वर्गीकरण भी किया गया। इसका आधार अल्प-आयु तथा अल्प-बुद्धि को बनाया गया। वनस्पतियों के इस कोष और उपचार विधियों का संकलन ‘अथर्ववेद‘ है। अथर्ववेद के इसी सारभूत संपूर्ण आयुर्वेद का ज्ञान धन्वन्तरि ने पहले दक्ष प्रजापति को दिया और फिर अश्विनी कुमारों को पारगंत किया। अश्विनी कुमारों ने ही वैद्यों के ज्ञान-वृद्धि की दृष्टि से ‘अश्विनी कुमार संहिता‘ की रचना की। चरक ने ऋषि-मुनियों द्वारा रचित संहिताओं को परिमार्जित करके ‘चरक-संहिता‘ की रचना की। यह आयुर्वेद का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।

इसी कालखंड में सद्वैद्य वाग्भट्ट ने धन्वन्तरि से ज्ञान प्राप्त किया और ‘अष्टांग हृदय संहिता‘ की रचना की। सुश्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदय संहिता आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में आदि काल से आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। आयुर्वेद व अन्य उपचार संहिताओं में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व पंच-तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण प्राणी स्वेदज, जरायुज, अण्डज और उद्भ्जि रूपों में विभक्त हैं। इन शास्त्रों में केवल मनुष्य ही नहीं पशुओं, पक्षियों और वृक्षों के उपचार की विधियां भी उल्लेखित हैं। साफ है, भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास वैदिक काल में ही चरम पर पहुंच गया था। क्योंकि वनस्पतियों के औषधि रूप में उपयोग किए जाने का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध हैं। ऋग्वेद की रचना ईसा से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुई मानी जाती है।

ऋग्वेद के पश्चात अथर्ववेद लिखा गया, जिसमें भेशजों की उपयोगिताओं के वर्णन हैं। भेशजों के सुनिश्चित गुणों और उपयोगों का उल्लेख कुछ अधिक विस्तार से आयुर्वेद में हुआ है। यही आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है। इसे उपवेद भी माना गया है। इसके आठ अध्याय हैं, जिनमें आयुर्विज्ञान और चिकित्सा के विभिन्न पक्षों पर विचार किया गया है। इसका रचनाकाल पाश्चात्य विद्वानों ने ईसा से ढाई से तीन हजार साल पुराना माना है। इसके आठ अध्याय हैं, इसलिए इसे ‘अष्टांग आयुर्वेद‘ भी कहा गया है।

आयुर्वेद की रचना के बाद पुराणों में सुश्रुत और चरक ऋषियों और उनके द्वारा रचित संहिताओं का उल्लेख है। ईसा से करीब डेढ़ हजार साल पहले लिखी गई सुश्रुत संहिता में शल्य-विज्ञान का विस्तृत विवरण है। चरक संहिता में रेचक, वामनकारक द्रव्यों और उनके गुणों का वर्णन है। चरक ने केवल एकल औषधियों को ही 45 वर्गों में विभाजित किया है। इसमें औषधियों की मात्रा और सेवन विधियों का भी तार्किक वर्णन है। इनका आज की प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से साम्य है। यहां तक कि कुछ विधियों में इंजेक्शन द्वारा शरीर में दवा पहुंचाने का भी उल्लेख है। यह वह समय था जब भारतीय चिकित्सा विज्ञान अपने उत्कर्ष पर था और भारतीय चिकित्सकों की भेषज तथा विष विज्ञान संबंधी प्रणालियां अन्य देशों की तुलना में उन्नत थीं। भूमि गर्भ में समाए अनेक खनिज पदार्थों के गुणों का ऋषि परंपरा ने गहन अध्ययन किया था और रोग तथा भेशजों की मदद से उनके उपचार की दिशा में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान किए।

सुश्रुत और चरक की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में अब गणना होने लगी है। यही कारण है कि एलोपैथी की दवा निर्माता कंपनियां भी सुश्रुत और चरक के अपने कैलेंडरों में शल्य क्रिया करते हुए चित्र छापने लगे हैं। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली से प्रभावित आचार्य आसलर ने महर्षि चरक के नाम से अमेरिका के न्यूयॉर्क में 1898 में ही ‘चरक-क्लब‘ स्थापित कर दिया था। यहां चरक का एक चित्र भी लगा हुआ है। इन विवरणों से पता चलता है कि धन्वन्तरि द्वारा आविष्कृत आयुर्वेद की ज्ञान परंपरा वैदिक युग के पूर्व से लेकर भारत में विदेशी आक्रांताओं के आने से पहले तक विकसित होती रही है।

इतनी उत्कृष्ट चिकित्सा पद्धति होने के पश्चात भी इसका पतन क्यों हुआ? हमारे यहां संकट तब पैदा हुआ, जब तांत्रिकों, सिद्धों और पाखंडियों ने इनमें कर्मकांड से जीवन की समृद्धि का घालमेल शुरू कर दिया। इसके तत्काल बाद एक और बड़ा संकट तब आया, जब भारत पर यूनानियों, शकों, हूणों और मुसलमानों के हमलों का सिलसिला निरंतर बना रहा। जो कुछ शेष था, उसे नेस्तनाबूद करने का काम अंग्रेजों ने किया। इस संक्रमण काल में आयुर्विज्ञान की ज्योति न केवल धुंधली हुई, बल्कि नष्टप्राय हो गई। नए शोध और मौलिक ग्रंथों का सृजन थम गया। इन आक्रमणों के कारण जो अरजकता, हिंसा और अशांति फैली, उसके चलते अनेक आयुर्वेदिक ग्रंथ छिन्न-भिन्न व लुप्त हो गए। आयुर्विज्ञान के जो केंद्र और शाखाएं थीं, वे पंडे-पुजारियों के हवाले हो गईं। नतीजतन भेशज और जड़ी-बूटियों के स्थान पर तंत्र-मंत्र का प्रयोग होने लगा। यही वह कालखंड था, जब बौद्ध धर्म ने भी पतनशीलता की राह पकड़ ली। इसके साथ ही जो शल्य क्रिया व चिकित्सा से जुड़ा विज्ञान था, उसमें अनुशीलन तो छोड़िए, वह यथास्थिति में भी नहीं रह पाया।

इसके बाद जो रही-सही ज्ञान परंपराएं थीं, उन पर बड़े ही सुनियोजित ढंग से पानी फेरने का काम अंग्रेजों ने कर किया। डाॅ. धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलाॅजी‘ में लिखा है कि 1731 में बंगाल में डाॅ. ओलिवर काउल्ट नियुक्त थे। काउल्ट ने लिखा है कि ‘भारत में रोगियों को टीका देने का चलन था। बंगाल के वैद्य एक बड़ी पैनी व नुकीली सुई से चेचक के घाव की पीब लेकर उसे टीका की जरूरत पड़ने वाले रोगी के शरीर में कई बार चुभाते थे। इस उपचार पद्धति को संपन्न करने के बाद वे उबले चावल की लेई-सी बनाकर रोगी के घाव पर चिपका देते थे। इसके तीसरे या चौथे दिन रोगी को बुखार आता था। इसलिए वे रोगी को ठंडी जगह में रखते थे और उसे बार-बार ठंडे पानी से नहलाते थे, जिससे शरीर का ताप नियंत्रित रहे। डाॅ. काउल्ट ने लिखा है कि टीका लगाने की विधि मेरे भारत आने के भी ड़ेढ़ सौ साल पहले से प्रचलन में थी। यह काम ज्यादातर ब्राह्मण करते थे और साल के निश्चित महीनों में वे इसे अपना उत्तरदायित्व मानते हुए घर-घर जाकर रोगी ढूंढते थे।

ओलिवर लिखते हैं कि इस चिकित्सा प्रणाली के अध्ययन व अनुभव के बाद मैं इस विधि की गुणवत्ता का प्रशंसक हो गया। मैंने कहा भी कि जो लोग उपचार की इस विधि को नहीं अपना रहे हैं, तो वे उन रोगियों के साथ अन्याय कर रहे हैं, जिनकी जान बचाई जा सकती है।‘ लेकिन जब अंग्रेजों ने भारत में एलोपैथी चिकित्सा थोपने की शुरुआत की तो षड्यंत्रपूर्वक एक-एक कर सभी प्रणालियों को नष्ट करने का अभियान चला दिया था।

याद रहे, करीब तीन साल पहले हमने प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा के बूते दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरुद्ध पेटेंट की लड़ाई जीती थीं। पहली लड़ाई ‘कुल्ला‘ करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से जीती, तो दूसरी आयोडीन युक्त नमक उत्पादन को लेकर, हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से जीती। दरअसल कोलगेट ने जावित्री से कुल्ला करने और हिंदुस्तान यूनीलीवर ने आयोडीन युक्त नमक बनाने की पद्धतियां भारतीय ज्ञान परंपरा से हथिया ली थीं। इन दोनों ही मामलों में विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुराए थे। भारत की वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने भारतीय पारंपरिक ज्ञान के डिजिटल पुस्तकालय से तथ्यपरक उदाहरण व संदर्भ खोजकर आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के क्रम में यह लड़ाई लड़ी और जीती। इस कानूनी कामयाबी से साबित हुआ है कि भारत की ज्ञान-परंपरा सदियों से मार्गदर्शक रही है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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