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संत कबीर के दोहों में छुपा जीवन का मर्म

– योगेश कुमार गोयल

मध्यकालीन युग के महान कवि संत कबीर दास ने अपना सारा जीवन देशाटन करने और साधु-संतों की संगति में व्यतीत कर दिया और अपने उन्हीं अनुभवों को उन्होंने मौखिक रूप से कविताओं अथवा दोहों के रूप में लोगों को सुनाया। इनमें जीवन का मर्म छुपा है। अपनी बात लोगों को बड़ी आसानी से समझाने के लिए उन्होंने उपदेशात्मक शैली में लोक प्रचलित और सरल भाषा का प्रयोग किया। उनकी भाषा में ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी तथा अरबी फारसी के शब्दों का मेल था। अपनी कृति सबद, साखी, रमैनी में उन्होंने काफी सरल और लोक भाषा का प्रयोग किया है। गुरु के महत्व को सर्वोपरि बताते हुए समाज को उन्होंने ज्ञान का मार्ग दिखाया।

संत कबीर सदैव कड़वी और खरी बातें करने वाले ऐसे स्वच्छंद विचारक थे, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास, अंध श्रद्धा और आडम्बरों की कड़ी आलोचना करते हुए समाज में प्रेम, सद्भावना, एकता और भाईचारे की अलख जगाई। उन्होंने अपने दोहों और वाणी के माध्यम से धर्म के नाम पर आम जनता को दिग्भ्रमित करने वाले काजी, मौलवी, पंडितों, पुरोहितों को आईना दिखाने का भी साहसिक प्रयास किया। संत कबीर की जयंती प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है और इस वर्ष संत कबीर की जयंती 04 जून को है।

संत कबीर नित्य प्रति सत्संग किया करते थे और लोग दूरदराज से भी उनके प्रवचन सुनने आया करते थे। उनकी वाणी में ऐसी अद्भुत ताकत थी कि लोग उनका सत्संग सुनने अपने आप ही दूर-दूर से उनकी ओर खिंचे चले आते थे। एक दिन सत्संग खत्म होने के बाद भी एक व्यक्ति वहां बैठा रहा। कबीर ने उस व्यक्ति से इसका कारण पूछा तो उसने उत्तर दिया, ‘‘महाराज! मुझे आपसे कुछ जानना है। दरअसल मैं एक गृहस्थ हूं और परिवार में सभी लोगों से अक्सर मेरा झगड़ा होता रहता है। मुझे समझ ही नहीं आता कि आखिर मेरे यहां गृह क्लेश क्यों होता है और वह किस प्रकार दूर हो सकता है?’’


संत कबीर कुछ देर चुप रहे, फिर उन्होंने अपनी पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा कि जरा लालटेन जलाकर लाओ! दोपहर का समय था और बाहर तेज धूप निकली हुई थी लेकिन उनकी पत्नी बिना कोई सवाल पूछे चुपचाप उनके कहे अनुसार लालटेन जलाकर ले आई। वह आदमी भौंचक्का सा यह दृश्य देखते हुए विचार करने लगा कि आखिर संत ने इतनी दोपहर में भी लालटेन क्यों मंगाई है? कुछ मिनट बाद कबीर ने फिर पत्नी को आवाज लगाई और कहा कि जरा कुछ मीठा दे जाना। पत्नी आई और मीठे के बजाय थोड़ी नमकीन रखकर चली गई। वह व्यक्ति सोचने लगा कि ये संत और इनकी पत्नी शायद पागल हैं, तभी दोपहर के समय लालटेन जलाते हैं और मीठे के बदले यहां नमकीन मिलती है। यही सोचकर उसने चुपचाप वहां से खिसकने के इरादे से कहा कि महाराज! मैं अब चलता हूं। लेकिन कबीर ने उससे पूछा कि आपको अपनी समस्या का समाधान मिला या अभी भी कोई संशय शेष है?

उस व्यक्ति को कुछ समझ नहीं आया और वह आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगा तो संत कबीर ने उसे समझाते हुए कहा कि जिस प्रकार मैंने दोपहर की रोशनी में भी लालटेन मंगवाई तो मेरी धर्मपत्नी मुझे ताना मारते हुए कह सकती थी कि मैं सठिया गया हूं, जो इस दोपहरी में भी लालटेन मंगवा रहा हूं लेकिन उसने सोचा कि अवश्य ही मुझे किसी काम के लिए लालटेन की जरूरत होगी। इसी प्रकार मेरे मीठा मंगवाने पर जब वह नमकीन देकर गई तो मैं भी उससे बहस कर सकता था लेकिन मैंने विचार किया कि संभवतः घर में कोई मीठी वस्तु नहीं होने पर ही वह नमकीन देकर गई है। आखिर गृहस्थ जीवन में ऐसे बातों को लेकर तकरार का क्या अर्थ? कबीर दास ने उसे गृहस्थ जीवन का मूल मंत्र समझाते हुए कहा कि अगर पति से कोई गलती हो जाए तो पत्नी संभाल ले और पत्नी से कोई गलती होने पर पति उसे नजरअंदाज कर दे। गृहस्थी में आपसी विश्वास से ही तालमेल बनता है और इससे विषम से विषम परिस्थिति भी स्वतः ही हल हो जाती है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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