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प्रोजेक्ट चीता पर संदेह नहीं, विशेषज्ञ बोले- ऐसी परियोजनाओं में लगता है समय

नई दिल्ली (New Delhi)। प्रोजेक्ट चीता (project cheetah) लॉन्च (launched) हुए सात महीने (7 months) हो चुके हैं। इस दौरान तीन वयस्क चीते और तीन शावक मर चुके हैं। इसलिए सवाल उठने लगे हैं कि क्या यह प्रोजेक्ट सफल होगा। ‘द स्टोरी ऑफ इंडियाज चीताज’ (The Story of India Cheetahs ) के लेखक दिव्यभानु सिंह (Divyabhanu Singh) का कहना है कि इस तरह के प्रोजेक्ट सफल होने में समय लगता है। अभी केवल पहला चरण पार किया है।

वर्तमान परियोजना से 30 साल पहले (30 years ago) भारत (India) में चीतों की मौजूदगी पर 1995 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। तीन मई 2023 को नई दिल्ली में ‘द स्टोरी ऑफ इंडिया चीताज’ के नाम से इसको फिर से लॉन्च किया गया। पुस्तक के लेखक और वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व चीता टास्क फोर्स के सदस्य दिव्यभानु का कहना है कि अभी हमने प्रोजेक्ट चीता के पहले चरण को पार किया है। दूसरा चरण उन्हें राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों में रहने के काबिल बनाना है, जहां बड़े घास के मैदान हैं, ताकि चीतों की आबादी आगे बढ़े। एक बार जब यह परियोजना स्थिर हो जाती है और चीतों की एक बड़ी आबादी तैयार हो जाती है तब अगला कदम घास के मैदानों को और विस्तृत करना होगा, जो जरूरी नहीं कि घने जंगलों में ही हो। ऐसा करने से चीतों को उचित प्राकृतिक माहौल मिलेगा।


प्राकृतिक कारणों से गई जान, चिंता का विषय नहीं
इस परियोजना से जुड़े एक दक्षिण अफ्रीकी विशेषज्ञ कहते हैं कि चीतों की इस तरह की मौत विशेष चिंता का विषय नहीं है। तीन में से एक की मौत सांप के काटने से हुई और एक चीते की मौत आपस में लड़ने से हुई। ऐसी घटनाएं प्रकृति में होती रहती हैं। एक मामला किडनी की बीमारी का था। शावकों की मौत के कारणों का अभी पता नहीं चल पाया है। अफ्रीका में भी नवजात चीतों की जीवित रहने की दर बहुत कम है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि केवल 10 से 20 फीसदी शावक ही जीवित रहते हैं।

जंगल में छोड़ना असली चुनौती
दक्षिण अफ्रीका में चीता मेटापोपुलेशन प्रोजेक्ट के प्रबंधक विंसेंट मेरवे का कहना है कि कूनो में छोड़े गए चीते मूल रूप से बंदी बिल्लियां हैं और पहले कभी जंगल में नहीं रहे हैं। यह शावक भी एक बाड़े में पैदा हुए हैं। इसलिए चीतों को जंगल में छोड़े जाने और मुक्त परिस्थितियों में प्रजनन करने के बाद सही उत्तरजीविता परीक्षणों का सामना करना पड़ेगा।

बाघ, गैंडा और शेर की आबादी बढ़ने में लगा समय
विशेषज्ञों का कहना है कि प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत 50 साल पहले हुई थी। पांच दशकों के बाद अब बाघों की आबादी तीन हजार तक पहुंची है। 1952 में असम के मुख्यमंत्री ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा था कि काजीरंगा नेशनल पार्क, मानस नेशनल पार्क और नेमरी नेशनल पार्क में कोई भी गैंडा नहीं बचा है। सघन संरक्षण प्रयासों के बाद आज 71 सालों बाद यहां चार हजार गैंडें हैं। जरूरी प्राकृतिक माहौल, संरक्षण और उचित देख-भाल की वजह से गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान में करीब 700 शेर हैं। बड़े मांसाहारियों का संरक्षण या पुनर्स्थापन एक बहुत लंबी चलने वाली प्रक्रिया है।

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