
नई दिल्ली । राज्य न्यायिक अधिकारियों(state judicial officers) के सेवा नियमों(Service Rules) को लेकर दो दशक से चल रहे असंतोष ने बुधवार को नया मोड़(New twist) ले लिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को स्पष्ट शब्दों में कहा कि उसे इस मामले में “हैंड्स-ऑफ अप्रोच” (हस्तक्षेप न करने का रुख) अपनाना चाहिए। हाईकोर्ट ने कहा कि जिला न्यायपालिका पर अनुच्छेद 227(1) के तहत निगरानी का अधिकार हाईकोर्ट के पास है, इसलिए सेवा नियमों का ढांचा तैयार करने का काम भी हाईकोर्ट को ही करना चाहिए।”
हाईकोर्ट की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, “क्यों हाईकोर्ट को उसके संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों से वंचित किया जा रहा है? अब समय आ गया है कि हाईकोर्ट को कमजोर करने की जगह मजबूत किया जाए। बात बहुत आगे बढ़ चुकी है।” उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को जिला न्यायाधीशों की भर्ती, सेवानिवृत्ति आयु या प्रमोशन कोटा जैसे मामलों में दखल नहीं देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि “ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस” की अवधारणा अभी भी विचाराधीन है। बेंच ने कहा, “हमारा उद्देश्य हाईकोर्ट की शक्तियों को कम करना नहीं है, बल्कि यह देखना है कि जिला न्यायाधीशों की पदोन्नति के लिए कुछ सामान्य दिशा-निर्देश बनाए जा सकते हैं या नहीं।”
फिलहाल जिला न्यायाधीश के पद पर प्रमोशन तीन तरीकों से होती है। वरिष्ठता-आधारित प्रमोशन, प्रत्यक्ष भर्ती और सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा। 2002 में इनका अनुपात 50:25:25 था, जिसे 2010 में 65:25:10 किया गया और फिर सुप्रीम कोर्ट ने इसे दोबारा 50:25:25 कर दिया।
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मनींदर आचार्य ने कहा कि मौजूदा प्रणाली दोनों राज्यों में ठीक तरह से काम कर रही है और किसी नए कोटा की आवश्यकता नहीं है। वहीं केरल, बिहार और दिल्ली के प्रतिनिधि अधिवक्ताओं ने भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा मौजूदा प्रक्रिया में बदलाव के विरोध में दलीलें दीं।
अंत में द्विवेदी ने कहा कि, “सुप्रीम कोर्ट को केवल उन मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिए, जहां किसी हाईकोर्ट के अधीन न्यायिक व्यवस्था चरमरा जाए। सेवा नियम प्रत्येक राज्य की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न होते हैं और इन्हें तय करने का अधिकार केवल संबंधित हाईकोर्ट को होना चाहिए।”
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