ब्‍लॉगर

संसद में फैलाए गए पीले धुएं का काला सच क्या है

– डॉ. रमेश ठाकुर

शीतकालीन सत्र के 10वें दिन भारतीय संसद के अंदर शायद कुछ असामान्य होना तय था। 22 बरस पहले आतंकियों के दिए जख़्म प्रत्येक 13 दिसंबर को हरे हो जाते हैं। कल गनीमत ये समझें कि यह घटना ‘पीले धुएं’ तक सीमित रही। सरकार इस घटना को हल्के में कतई न ले। साजिशकर्ताओं की बुने एक-एक जालों की पहचान की जानी चाहिए। इससे जुड़े हर सवाल का जवाब तलाशना होगा। हमें यह पक्के तौर पर जानना होगा कि उनका मकसद सिर्फ दहशत फैलाना था या कुछ और। चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था में कहां चूक हुई, इसकी सख्त समीक्षा की जरूरत है।

बहरहाल, हाल ही में बनकर तैयार हुई संसद अत्याधुनिक सुरक्षा तकनीकों से लैस बतायी जाती है। लेकिन बुधवार को जिस अंदाज में घटना हुई, उससे साफ है कि साजिश के तार बहुत लंबे थे। इस साजिश के आरोपी सामान्य हैं या असामान्य प्रवृत्ति के, ये तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा। पर, लोग अंदेशा ऐसा भी लगा रहे हैं कि कहीं 22 साल पहले 13 दिसंबर को जो घटना संसद में घटी थी ये उसकी पुनरावृत्ति तो नहीं? या फिर उसके पार्ट-2 की चेतावनी है। इस लापरवाही की जवाबदेही किसकी हो, ये बिना देर किए सुनिश्चित हो।


एक थ्योरी ये समझ में नहीं आती, आखिर शीतकालीन सत्र को चले कई दिन हो चुके हैं। पर, हरकत संसद हमले की बरसी के दिन ही क्यों होती है। आखिर किसके इशारे पर इस घटना को अंजाम दिया गया। आरोपियों का हमले की बरसी के दिन ‘संसद अटैक-2’ का संदेश देना निश्चित रूप से बैचेन करता है। दुश्मन अंदरूनी है या बाहरी, उसे खींचकर बाहर निकालना होगा। प्रतीत ऐसा होता है कि आरोपी सिर्फ मोहरा मात्र हैं। मास्टर माइंड कोई और है। जब से नई संसद में सत्र और संसदीय कार्य शुरू हुए हैं, संसद सदस्य अपनी सुरक्षा के प्रति निश्चिंत और बेखबर हैं। क्योंकि संसद की सुरक्षा, मानकों के लिहाज से अत्याधुनिक बताई जाती है। संसद के चप्पे-चप्पे पर पहरा है। इंसानी सुरक्षा तंत्र से अगर कोई चूक भी हो जाए, तो पूरी बिल्डिंग तीसरी आंख यानी सीसीटीवी कैमरों से लैस है। कोई संदिग्ध क्या, परिंदा भी पर नहीं मार सकता। पर, सुरक्षा के इन तमाम दावों पर संसद सदस्यों को एतबार नहीं रहा। क्योंकि उन सभी को धता बताते हुए आरोपित विजिटर बनकर आसानी से भीतर घुस गए और अपने मंसूबों को अंजाम दे दिया।

गनीमत ये समझें कि घटना के दौरान आरोपितों के हाथ में सिर्फ ‘स्मोक बम’ ही थे, अगर असलहा वगैरा होता तो वो इस्तेमाल भी कर सकते थे। क्योंकि जब वो सुरक्षा तंत्र की आंखों में धूल झोंक कर आपत्तिजनक वस्तुएं अंदर ले जा सकते हैं तो बंदूक-बारूद क्यों नहीं? इसलिए घटना को सबसे पहले सुरक्षा चूक ही कहेंगे। जबरदस्त सुरक्षा पहरे को चकमा देकर ‘स्मोक बम’ फेंक कर संसद के भीतर आरोपित अफरातफरी मचा देते हैं। बाकायदा विजिटर बनकर संसद की कार्यवाही देखने पहुंचे हैं। दर्शक दीर्घा में करीब चार-पांच घंटे बिताते हैं और लंच से पहले अचानक छलांग लगाकर सांसदों की कुसिर्यों तक जाते हैं। पीले रंग का ‘स्मोक बम’ फोड़ देते हैं। नारेबाजी करते हैं। ये पूरा वाकया तकरीबन चालीस से पैंतालीस मिनट तला। सुरक्षाकर्मियों के पहुंचने से पहले दो सांसद हनुमान बेनीवाल और मलूक नागर हिम्मत दिखा कर उन्हें दबोचते हैं और उन्हें सुरक्षा कर्मियों के हवाले करते हैं।

शुरुआती पूछताछ में एक आरोपित ने अपना नाम सागर सरना बताया है और मैसूर से भाजपा सांसद प्रताप सिन्हा की सिफारिश पर कार्यवाही देखने पहुंचे। वो झूठ बोल रहा है या सच? ये जानने के लिए उसका नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग टेस्ट जरूर करवाना चाहिए। अगर कोई गहरी साजिश है भी, जिसे कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी भी बताते हैं, पता लगाने की दरकार है। संसद में सुबह तक सबकुछ नॉर्मल था। 22 वर्ष पूर्व हुए हमले की बरसी थी, जिस पर सभी सांसदों ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी और उसके बाद रोजाना की भांति सत्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने जाते हैं। किसी को थोड़ा भी अंदेशा नहीं था कि नई संसद में भी कोई ऐसी हरकत कर सकता है। संसद सदस्य आश्वस्त थे कि नई संसद सुरक्षा मानकों के हिसाब से अभेद्य है। इन सबके बावजूद आरोपित चार नंबर गेट से विजिटर बनकर प्रवेश कर जाता है।

क्या आरोपित ‘स्मोक बम’ के जरिए कोई संदेश फैलाना चाहता था या उसे केवल पब्लिसिटी चाहिये थी। सवालों की लंबी लिस्ट बना कर स्थानीय पुलिस और अन्य जांच एजेंसियां पूछताछ में लगी हैं। लेकिन विपक्षी दल किसी बड़ी घटना होने की आशंका जता रहे हैं। उनकी आशंकाओं को ध्यान में रख कर भी जांच होनी चाहिए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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