ब्‍लॉगर

अखंड भारत ही दशगुरू परम्परा को सच्ची श्रद्धांजलि

– चन्दन आनन्द

भारत विखंडन के स्वप्न लिए बैठा पाकिस्तान पंजाब में अशांति और अराजकता फैलाने के लिए समय-समय पर विदेशों में बैठे अपने कुछ एजेंटों के माध्यम से खालिस्तान का नारा उछालता रहता है। अभी हाल में खालिस्तानी आतंकवादी गुरुवंत सिंह पन्नू ने भारत के कुछ प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा नहीं फहराने की धमकी दी है। उसका कहना है कि हिमाचल और पंजाब के साथ लगते अन्य कईं प्रांत पंजाब का हिस्सा रहे हैं। इसलिए यहां तिरंगा नहीं फहराया जाए।

अजीब बात है कि विदेशों में बैठे खालिस्तान बनाने की मांग कराने वाले आतंकवादी उन गुरुओं के नाम लेते हैं, जिनका जीवन और योगदान संपूर्ण भारत और धर्म स्थापना को समर्पित रहा है। भारतीय दशगुरु परम्परा का संपूर्ण इतिहास, गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोबिंद सिंह तक विदेशी मुगल आक्रांताओं (बाबर से लेकर औरंगजेब तक) से संघर्ष का रहा है। बाबर के आक्रमण के समय गुरु नानक देव ने इसे केवल पंजाब पर नहीं, अपितु पूरे भारत पर हमला बताते हुए कहा था- ‘‘खुरासान खसमाना किआ हिंदुसतानु डराइआ।। आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ।।’’ अर्थात बाबर ने हमला करके पूरे हिन्दुस्तान को डराया है और मुगल मृत्यु का दूत बनकर यहां आए हैं। सन 1606 में पांचवें गुरु अर्जन देव मुगल वंश के जहांगीर के काल में वीरगति को प्राप्त होते हैं। जहांगीर की आत्मकथा ‘तुजक-ए-जहांगीर’ में उल्लेख है, ‘‘व्यास नदी के तट पर स्थित गोइंदवाल में अर्जुन नामक एक हिंदू रहता था…हमने कई बार सोचा कि उस हिंदू को मुसलमान बना लें, लेकिन ऐसा हो न सका….उसने खुसरो के माथे पर केसर का टीका लगाया जिसे हिंदू शुभ मानते हैं…इस घटना का पता चलते ही हमने उसके निवास स्थान और संतानों को मूर्तजा खान के सुपुर्द कर दिया और उसे खत्म करने का निर्देश दिया’’

इस वर्ष 26 जनवरी को जिस लाल किले में खालिस्तान का झण्डा फहराने का प्रयास किया गया, सन 1675 में उसी लाल किले के सामने देश और धर्म की रक्षा के लिए ‘हिंद दी चादर’ गुरु तेग बहादुर ने अपना बलिदान दिया। मुगल आक्रांता औरंगजेब के समय इस्लाम कबूल न करने पर गुरु तेग बहादुर को जिस स्थान पर कत्ल किया गया, वहां आज श्री शीशगंज गुरुद्वारा है।

इसी प्रकार, बिहार के पटना में जनमे दशमगुरु गोबिंद सिंह ने धर्म और देश की रक्षा के लिए 1699 में बैसाखी के दिन श्री आनंदपुर साहिब में खालसा पंथ की नींव रखी। उस समय गुरु गोबिंद सिंह के आह्वान पर पूरे देश के हर कोने से अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग खालसा सेना का हिस्सा बनने आनन्दपुर आए थे। गुरु गोबिंद सिंह के आह्वान पर देश और धर्म के लिए बलिदान होने वाले पहले पंज प्यारे दया राम, धर्म चन्द, हिम्मत राय, मोहकम चन्द एवं साहिब चन्द, लाहौर, हस्तिनापुर (मेरठ), जगन्नाथपुरी (ओडिशा), द्वारिका (गुजरात) और बीदर (कर्नाटक) के रहने वाले थे। यदि लड़ाई पंजाब की या किसी अन्य धर्म की होती तो गुरु गोबिंद सिंह पूरे देश से लोगों को न बुलाते और पहले पंज प्यारे भारत की सभी दिशाओं से न होते। सुपुत्रों को देश और धर्म पर बलिदान करने के बाद महाराष्ट्र के नांदेड़ जाकर गुरु गोबिंद सिंह जी ने जम्मू के एक क्षत्रिय डुग्गर युवक ‘वीर बन्दा बैरागी’ को खालसा सेना का पहला सेनापति नियुक्त कर उत्तर भारत से मुगल साम्राज्य की समाप्ति का मार्ग प्रश्स्त किया। उसी दौरान गुरु के अस्तित्व से विचलित औरंगजेब ने नांदेड़ में दो पठानों को भेज कर गुरु गोबिंद सिंह का भी कत्ल करवा दिया है। महाराष्ट्र के नांदेड़ में जहां गुरु गोबिंद का बलिदान हुआ, आज वहां श्री नांदेड़ साहेब गुरुद्वारा है।

भारत में विदेशी मुगल आक्रमण के समय प्रथम गुरु नानक देव ने पूरे देश की यात्रा कर लोगों से संवाद स्थापित कर जनजागरण किया। इसे गुरु नानक देव की उदासियां भी कहते हैं। इस दौरान गुरु नानक देव भारत के सुदूर क्षेत्रों अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम तक भी गए। इन दोनो प्रदेशों में इन्हें नानक लामा कहा जाता है और अनेक स्थान नानक लामा को समर्पित हैं। अनेक मठों में उनके चित्र भी मिलते हैं। सिक्किम में तो गुरु नानक देव की स्मृति में गुरुद्वारा भी बना हुआ है। अरुणाचल प्रदेश के तवांग से आगे बुमला के रास्ते पर पर्वत की एक चोटी पर जहां गुरु नानक देव ने तपस्या की थी, वहां लिखा है- यहां नानक लामा ने तपस्या की।

सिख इतिहासकार मदनजीत कौर (1978) ने गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह और गुरु परिवार के अन्य सदस्यों की यात्रा के अभिलेख प्रकाशित करवाए हैं। उसमें वर्णित किया गया है कि गुरु तेग बहादुर सर्वप्रथम 1662 में गंगा स्नान हेतु त्रिवेणी (प्रयागराज) गए। वहां अपनी पूरी वंशावली का वर्णन करते हुए स्वयं को कौशिक गोत्र एवं सोढी खत्री वर्ण का बताया। आगे परिचय देते हुए वह स्वयं को नैना देवी का उपासक बताते हैं और ब्राहमण पुरोहित भोज राज को पुरोहित नियुक्त करते हुए कहते हैं कि भविषय में जो भी गुरु का सिख एवं सोढी खतरी वंश का व्यक्ति प्रयाग आएगा, वह इन्हें सम्मानित कर इनका आशीर्वाद प्राप्त करेगा। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह की प्रयाग यात्रा और गंगा स्नान का इसमें वर्णन है। माता गुजरी और माता सुंदरी का हरिद्वार गंगा स्नान हेतु यात्रा का वर्णन भी है।

खालिस्तान का विचार वास्तव में भारतीय दशगुरु परम्परा के विरोध में खड़ा किया गया विचार है। यह गुरुओं के बलिदान और तपस्या को अपमानित कर पूरे भारत और गुरसिखों को ललकारता है। भारतीय दशगुरु परम्परा के प्रथम गुरु नानक देव का जन्मस्थान श्री ननकाना साहिब आज पाकिस्तान के कब्जे में है। इसके अतिरिक्त गुरु नानक देव का अंतिम स्थान श्री करतारपुर साहिब, गुरुद्वारा ऐमनाबाद जहां बाबर ने गुरु नानक देव को बंदी बनाकर उनसे चक्की पिसवाई थी, गुरु अर्जन देव का बलिदान स्थल गुरुद्वारा डेरा साहिब, गुरुद्वारा रोड़ी साहिब, गुरुद्वारा पंजा साहिब सरिखे कईं ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व रखने वाले गुरुद्वारे आज पाकिस्तान में हैं। दशकों से हम सुनते आ रहे हैं कि पाकिस्तान में आए दिन इन गुरुद्वारों पर हमले किए जाते हैं। फिर हिंदू-सिख समाज वहां असुरक्षित जीवन जी रहा है। पाकिस्तान भारतीयों और गुरसिखों का ध्यान वहां पर हो रहे अत्याचारों से हटाने के लिए बार-बार खालिस्तान का शिगुफा छोड़ता है।

25 वर्ष (1500-1524) की अपनी लम्बी यात्राओं के दौरान अरब देशों को छोड़कर बाकी तत्कालीन संपूर्ण राष्ट्र में गुरु नानक देव और अन्य गुरुओं से जुड़े कई ऐतिहासिक स्थल और गुरुद्वारे हैं, जो आज सेवा के लिए गुर सिखों और भारतीयों की राह ताक रहे हैं। कुछ दिन पूर्व अफगानिस्तान में भी तालिबान द्वारा थाला साहिब से निशान साहब को हटाया गया। थाला साहिब में भी गुरु नानक देव अपनी यात्रा के दौरान ठहरे थे। इसके अतिरिक्त भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान में कई गुरुद्वारों के अस्तित्व को या समाप्त कर दिया गया या समाप्त करने की साजिश की जा रही हैं। दशकों से गुरुद्वारों में सामूहिक रूप से प्रतिदिन यह अरदास भी की जाती है कि ‘‘श्री ननकाना साहिब सहित अन्य गुरुद्वारे एवं गुरुधाम जिनसे पंथ को विछोड़ा गया है, उनके खुले दर्शन और सेवा-संभाल का दान हमें दोबारा दिया जाए।’’ यह अरदास एक तरह से अखण्ड भारत की ही अरदास है। ऐसे में स्पष्ट ही है कि गुरुओं के सम्मान के लिए खालिस्तान नहीं, अपितु अखंड भारत ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं)

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