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सत्तर साल बाद भारत में दौड़ेंगे चीते

– मुकुंद

आजादी का अमृत महोत्सव भारत के जंगल में मंगल लाने वाला है। सत्तर साल बाद यहां की आबोहवा में चीता आबाद होने जा रहे हैं। भारत और नामीबिया के बीच 20 जुलाई, 2022 को हुए समझौते ने वन्यजीव विशेषज्ञों की उत्सुकता बढ़ा दी है। अगर कोई अड़चन नहीं आई तो दोनों देशों की सरकारों के बीच पहले अंतर महाद्वीपीय स्थानान्तरण के तहत 15 अगस्त को नामीबिया से आठ चीते (चार मादा, चार नर) भारत आ रहे हैं। इस योजना पर लगभग 224 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। इन चीतों को मध्य प्रदेश के चंबल संभाग के श्योपुर के कूनो पालपुर नेशनल पार्क में रखा जाएगा। चीता प्रोजेक्ट के लिए इंडियन ऑयल ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को 50.22 करोड़ रुपये देने का प्रावधान किया है। 1952 में चीता को देश में विलुप्त घोषित किया गया था। इन चीतों को नामीबिया से लाने की राह लखनऊ में हुए एक शोध ने आसान की है। बीरबल साहनी पुरा विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. नीरज राय के इस शोध में भारतीय चीतों और अफ्रीकन चीतों की जेनेटिक संरचना में काफी समानताएं मिली थीं।

नामीबिया को चीतों की राजधानी कहा जाता है। वैज्ञानिक डॉ. नीरज राय का यह शोध साल 2020 में अमेरिकन जर्नल नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट में प्रकाशित हुआ था। डॉ. नीरज राय का दावा है कि देश में साल 1947 तक चीतों की पुष्टि हुई। साल 1948 के बाद चीते पूरी तरह विलुप्त हो गए। साल 1947 में आखिर तक तीन चीते थे। शिकार कर उन्हें भी मार दिया गया। चीतों और बाघों का सबसे ज्यादा शिकार ब्रिटिश काल में हुआ। इस दौरान करीब 80 हजार बाघ और चीते मारे गए। हालांकि भारत में चीते लाने की कोशिशें पहले भी हुई है। राजस्थान के जंगलों को चीते के लिए मुफीद मानकर साल 1998 में तीन चीते लाए गए, लेकिन वे जीवित नहीं बचे। 2016 में भी यहां एक चीता लाया गया, वह भी नहीं बचा। इस शोध के बाद उम्मीद है कि नामीबिया से लाए जा रहे चीते यहां के माहौल में ढल सकेंगे।

केंद्रीय वनमंत्री भूपेंद्र यादव कहते हैं कूनो पालपुर नेशनल पार्क 748 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यह छह हजार 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले खुले वन क्षेत्र का हिस्सा है। यहां चीतों को बसाने की तैयारी पूरी कर ली गई है। दो से तीन महीने चीते बाड़े में रहेंगे। इसका मकसद यह है कि यहां के वातावरण में ढल जाएं। चार से पांच वर्ग किलोमीटर के बाड़े की चारों तरफ से फेंसिंग की गई है। इस राष्ट्रीय वन्यजीव अभ्यारण्य में भारतीय भेड़िया, बंदर, भारतीय तेंदुआ और नीलगाय बहुतायत में हैं।

वन्यजीव विशेषज्ञ अजय दुबे का कहना है कि चीता प्रोजेक्ट का असर सहारिया जनजाति पर पड़ेगा। सॉफ्ट रिलीज के बाद चीतों को खुला छोड़ा जाएगा।

सहारिया जनजाति के लोगों का गुजर-बसर जंगल से होने वाले उत्पादों से होता है। ऐसे में सरकार को उनके रोजगार के इंतजाम पर भी ज्यादा फोकस करना चाहिए। दुबे का कहना है कि कुछ लोग मान रहे हैं कि भारतीय तेंदुए अपने बड़े आकार की वजह से इन चीतों के लिए खतरा बन सकते हैं। मगर ऐसा सोचना गलत है, क्योंकि चीते और तेंदुए पहले भी साथ-साथ रहते थे। इस वजह से चिंता की कोई बात नहीं है। अफ्रीका में भी शेर, तेंदुआ, चीता और हाइना साथ रहते हैं। तेंदुए और शेर अपने शिकार को घात लगाकर मारते हैं, क्योंकि वह ज्यादा दौड़ नहीं सकते। चीते अपना शिकार दौड़ लगाकर करते हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के डीन वाईवी झाला इस पहल को वैश्विक महत्व के संरक्षण का बड़ा कदम मान रहे हैं।

देश के कुछ वन्यप्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि अब देश के लिए अगली चुनौती यह तय करना है कि यह चीते भारत की नई जलवायु परिस्थितियों में जीवित रह सकें और ढल सकें। यह कैसे संभव होगा और भारत इस बड़ी चुनौती के लिए कितना तैयार है। यह बड़ा सवाल है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के अनुसार, दुनिया में इस वक्त लगभग 7,100 चीते हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद उनकी संख्या में गिरावट आई है।

भारत सरकार सत्तर के दशक से चीतों को लाने के लिए प्रयासरत रही है। 1970 में एशियन चीतों को ईरान से लाने का प्रयास किया गया। इसके लिए ईरान की सरकार से बातचीत भी की गई। लेकिन यह पहल सफल नहीं हो सकी। लंबे समय तक इस मसले पर सरकार की मुट्ठी बंद रही। 2010 में भारत में चीता को बाहर से लाने की पहल तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने की मगर सरकार की इस योजना पर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रेक लगा दिया। लंबी कशमकश के बाद 28 जनवरी, 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को भारत में चीतों को लाने की अनुमति दी। अब इस घटनाक्रम में बड़ा और निर्णायक मोड़ आया है। चीता को दुनिया का सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर माना जाता है और इसकी रफ्तार 80 से 128 किलोमीटर प्रति घंटा मानी जाती है। उम्मीद करें कि चीतों के बसावट की यह दौड़ कामयाब हो।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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