ब्‍लॉगर

ह्यूम से खरगे तक कांग्रेस का सफर, क्या खोया क्या पाया

– ऋतुपर्ण दवे

कभी लगता है कि कांग्रेस लक्ष्य से भटकी हुई है, कभी लगता है कि उम्मीद की किरण बाकी है। लेकिन सच यही है जनादेश वक्त के साथ अच्छे-अच्छों को हैसियत बता देता है। चाहे दल हों या राजनीतिज्ञ। आज कर्नाटक जीत के बाद भले कांग्रेस ऊर्जा से भरी होने का भ्रम पाल रही हो लेकिन इस कड़वे सच को मानना ही होगा कि जनसाधारण की रुचि दिनों दिन दूसरे दलों में ज्यादा दिखने लगी है। इसे कोई क्षेत्रवाद का विस्तार कहे या पूरे देश में बरसों बरस एकछत्र शासन कर चुके ऐसे राष्ट्रीय दल की विडंबना जो बहुत पहले अपने ही बिछाए जाल में खुद फंसती चली गई। कुछ यूं उलझी कि जनमानस के मस्तिष्क में कांग्रेस को लेकर उलझी गुत्थी कब सुलझेगी पता नहीं। ये सवाल बेहद अहम और राजनीतिक पण्डितों को भी समझ नहीं आता होगा कि गुणनफल क्या होगा?

देश की राजनीति और मतदाताओं की परिपक्व सोच ने तमाम दावों और रणनीतिकारों को कई बार धूल चटाया। आम चुनाव और राज्यों के चुनावों के बीच बहुत कम समय के फासले के बावजूद अलग नतीजे इसका सबूत है। मजबूत लोकतंत्र और उससे भी ज्यादा समझदार हो चुका जनमानस अपनी सोच और दलों के भविष्य का खाका खींचते वक्त बेहद सतर्क होता है। इसके आगे बड़े-बड़े गणित और समीकरण भी असफल रहते हैं। जन सरोकारों और घर-घर संवाद के पुराने तौर-तरीकों को खो चुकी कांग्रेस, लोगों से रू-ब-रू होने के लिए सोशल मीडिया और रील, मीम्स से करिश्मे की उम्मीद बांधे बैठा है, जो नए दौर में और भी कठिन है।


सच तो यह है कि जिस दल ने अपनी स्थापना के उद्देश्य और विचारधारा को ही धीरे-धीरे भुला दिया हो, उससे भला भविष्य में कितनी और कैसी अपेक्षाएं लोग करें? कांग्रेस के रहनुमाओं को चिन्ता इस बात की होनी चाहिए कि लोगों का रुझान किन कारणों से कम हो रहा है? लेकिन हो उल्टा रहा है। जो हैं वो अपने पुराने ठाठ और रुतबे का गुरूर भुलाए नहीं भूलते। शायद यही वजह है कि पूरे देश में कांग्रेस खुद को लोगों से जोड़े रखने मे जबरदस्त रूप से विफल हो रही है। अपवाद स्वरूप एक-दो प्रान्त छोड़ दें तो कहीं भी भविष्य में कांग्रेस की स्थिति पर कुछ ठोस नजर आता नहीं। जिस तरह से मध्य प्रदेश में हाथ आई सरकार गई, पूर्व में कई राज्यों (गोवा सहित कुछ अन्य) के उदाहरण हैं, राजस्थान में सरकार रहते कलह के नए-नए रूप दिखे, महाराष्ट्र में विपक्षी एकता के बावजूद गठबन्धन के दरकने की बेफिक्री के आलम से लगता है कि पार्टी में संगठनात्मक मजबूती को लेकर न मंथन है न चिंतन। एक-एक कर जिस तरह से कांग्रेस से दिग्गज व क्षत्रप पलायन करते गए उससे सवाल तो बहुत उठे। लेकिन गहराई में छिपे राज को जानकर भी अनजान कर्णधार क्यों नहीं वो सुधार कर पाए जो किसी दल के लिए सबसे अहम होते हैं।

सबसे बड़ी सच्चाई यह कि अनुशासन जहां नहीं होता, वहां स्थिति खुद बेकाबू हो जाती है। नेतृत्व की स्वीकार्यता सबसे अहम होती है चाहे वह शीर्ष हो या फिर गांव, कस्बे, वार्ड, नगर, शहर, प्रान्त और केन्द्र का हो। शायद राहुल गांधी का पहली बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाना और 2019 की हार के बाद तुरंत इस्तीफा दे देना भले निजी राजनीतिक फैसला रहा हो, इसके बाद सोनिया गांधी का अंतरिम अध्यक्ष बनना अन्दरूनी मसला हो सकता है परन्तु इससे जनमानस में गए संदेश को भांपने की विफलता की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। सच है कि एक वक्त वो भी था जब सोनिया गांधी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं। लेकिन उन्होंने ऐसा न कर विपक्ष और दूसरे दलों को एक बड़ा और साहसिक संदेश दिया। ये बात अलग है कि उस दौर में प्रधानमंत्रियों को रबर स्टाम्प तक कहा गया। दरअसल कोई भी दल आन्तरिक लोकतंत्र से ही फलता-फूलता है। कांग्रेस में धीरे-धीरे यह खत्म होता गया। आज मल्लिकार्जुन खरगे कांग्रेस के मुखिया हैं। उनका अपना राजनीतिक दौर है, यह आगे कैसा दिखेगा, वक्त पर छोड़ना होगा। हां, ऐसे निर्णय कोई दशक, डेढ़ दशक पहले होने थे। लेकिन हुआ ठीक उलटा कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से गांधी परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी-सी दिखने लगी। शायद यही चूक थी। राजनीति में जो होता है वो दिखना नहीं चाहिए लेकिन यहां जो दिखा वही हुआ।

थोड़ा कांग्रेस के अतीत को भी देखना होगा। सन् 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद के चुनाव में पट्टाभि सीता रमैया को हरा दिया जो महात्मा गांधी के उम्मीदवार थे। गांधीजी ने इसे निजी हार मानी। पटेल, नेहरू समेत वर्किंग कमिटी के 13 सदस्यों ने सुभाष चंद्र बोस पर तानाशाही के आरोप लगाते हुए इस्तीफे दे दिए। साथ में यह भी कि बोस अपनी गैरमौजूदगी में कांग्रेस को सामान्य रूप से चलने नहीं दे रहे। इस बीच सुभाषचंद्र बोस के उस विवादित बयान ने खूब खलबली मचाई जिसमें उन्होंने गांधी समर्थकों को बुद्धिहीन कहा। कार्य समिति ने बोस को अपने बयान पर खेद जताने को कहा। 8 से 12 मार्च, 1939 तक त्रिपुरी, जबलपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन जिसमें गांधीजी कहने को तो अनुपस्थित थे लेकिन हुआ वही जो चाहते थे। गोविंद बल्लभ पंत ने आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के 160 सदस्यों की तरफ से प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस, गांधी के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगी। 10 मार्च को सब्जेक्ट कमेटी ने 135 के मुकाबले 218 वोटों से पारित कर दिया। यह कांग्रेस संविधान के अनुच्छेद 15 के खिलाफ था क्योंकि वर्किंग कमेटी बनाने का अधिकार अध्यक्ष को था जो बोस थे। इससे अधिवेशन में सुभाष समर्थकों और विरोधियों में जमकर हंगामा हुआ।

यह खबर पूरे देश में फैली तो टैगोर ने गांधीजी से हस्तक्षेप को कहा जो तब अनशन पर थे। दुखी टैगोर ने अपने पूर्व निजी सचिव को एक पत्र लिखा कि “जिस पवित्र मंच से आजादी के मंत्र गूंजने चाहिए वहां फासिस्ट दांत उभर आए हैं।” इससे उनका दर्द झलका। 1942 में धुन के पक्के नेताजी ने आजाद हिन्द फौज बनाई। 6 जुलाई, 1944 आजाद हिन्द रेडियो पर उनका खास भाषण था। सभी इंतजार में थे। लोगों का लगा कि आगे आजादी की लड़ाई गांधी मुक्त होगी। लेकिन मिलिट्री यूनिफॉर्म पहने सुभाष बाबू ने जब राष्ट्र का सम्बोधन शुरू किया तो थोड़ा बोले फिर रुके और फिर कहा कि राष्ट्रपिता, हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई में आपका आशीर्वाद चाहिए। ये सुनते ही सभी भावुक हो गए। तब ये नेताओं का वो नजरिया व जज्बा था जिसमें कूट-कूट कर देशभक्ति झलकती थी। दो विचारधारा लेकिन लक्ष्य एक।

वहीं जब बापू को बोस के विमान दुर्घटना का पता चला तो उन्होंने कहा “उन जैसा दूसरा देशभक्त नहीं, वह देशभक्तों के राजकुमार थे।” 24 फरवरी, 1946 के हरिजन के अपने लेख में गांधीजी लिखते हैं, “आजाद हिंद फौज का जादू हम पर छा गया है। नेताजी का नाम सारे देश में गूंज रहा है। वे अनन्य देशभक्त हैं। लाख मतभेदों के बाद देशप्रेम के आगे सभी नतमस्तक दिखते थे। तब यही कांग्रेस की ताकत थी।

ऐसी थी स्कॉटलैंड के एक रिटायर्ड अधिकारी एओ ह्यूम के विचारों और कोशिशों से 28 दिसंबर 1885 को बनी तब की कांग्रेस। लेकिन दुखद ये कि उन्हें ही जीते जी संस्थापक का दर्जा नहीं हासिल हुआ जो 1912 में मृत्यु के बाद मिला। निश्चित रूप से अपने मिशन और कार्यक्रमों को लेकर कांग्रेस में अंतर्विरोध कोई नया नहीं है। तब और अब का यही फर्क धीरे-धीरे कांग्रेस के लिए नासूर बनने लगा। ह्यूम की कांग्रेस स्वतंत्रता के बाद गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से होती हुई सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी से होकर अब मल्लिकार्जुन खरगे के हाथों में है।

निश्चित रूप से किसी भी देश में दो मजबूत दल लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी हैं। लेकिन भारत में जिस तरह क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ रही है उससे लगता है कि कभी ये पार्टी आगे बढ़ेगी तो कभी वो। शायद राहुल गांधी को उनके सिपहसालारों ने सही सीख दी जो भारत जोड़ो यात्रा के जरिए वाकई देश से जुड़ने की कोशिश कर अपनी छवि को सुधारा। लेकिन सवाल वही कि इस राजनीतिक दल में कब आन्तरिक लोकतंत्र पहले जैसा होगा? और क्या राहुल गांधी विदेशी दौरों के दौरान संसदीय अयोग्यता के बाद दूसरे कारणों से छलकते दर्द पर कितना मरहम लगा पाएंगे। इसका जवाब भविष्य की गर्त में छिपा है। बहरहाल गुटबाजी, अंतर्कलह और उससे भी ज्यादा यह कि नेतृत्व बनाम सुप्रीमो की भूमिका से क्या कांग्रेस बाहर आ पाएगी?

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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