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पुण्यतिथि विशेषः ग्रामोदय और अंत्योदय के विचारों से बनेगा वैभवशाली भारत

– प्रभात झा

काजल की कोठरी में रहकर बिना कालिख लगे निकल जाना, आज के युग में लोग आठवां आश्चर्य ही मानते हैं। राजनीति अपने लिए नहीं, अपनों के लिए नहीं, वरन देश के लिए करने का सामर्थ्य जिस महापुरुष में था, उस राष्ट्रऋषि का नाम है नानाजी देशमुख। ‘भारत रत्न’ देने के जितने मानक भारत सरकार के होंगे उन मानकों से भी आगे जीवन जीनेवाले, ऐसे नानाजी देशमुख को भारत रत्न देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसकी गरिमा बढ़ाई है।

सच में नानाजी देशमुख करोड़ों भारतीयों के बीच एक रत्न थे। वे कार्यों से रत्न थे। कार्यों से ऋषि थे। वे ग्रामोदय और अंत्योदय के अखंड उपासक थे। वे राजनीति में रहकर भी रचनाधर्मी और सृजनकारी थे। उन्होंने स्कूल को स्कूल नहीं कहा, सरस्वती शिशु मंदिर कहा। सरस्वती शिशु मंदिर कहते ही, मां सरस्वती से शिशु का जो नाभि का संबंध है, बिना कुछ कहे स्वतः एहसास होने लगता है। नानाजी देशमुख द्वारा जड़ में बोया गया बीज ही आज पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक विद्या भारती द्वारा सरस्वती शिशु मंदिरों के रूप में पोषित और पल्लवित हो रहा है। भारतीय संस्कृति से दूर रहकर भारत का विद्यार्थी मां सरस्वती की आराधना भला कैसे कर सकता है! धरोहर को धरा पर नानाजी देशमुख ने न केवल उतारा बल्कि आज 28 लाख बच्चे विद्या भारती विद्यालयों के आंचल में अध्ययन कर रहे हैं।

नानाजी देशमुख एक सोच थे। नानाजी देशमुख एक विचार थे। नानाजी के पुरुषत्व में मातृत्व था। जिसके पुरुषत्व में मातृत्व होता है, उसे लोग ईश्वर का अंश ही मानते हैं। नानाजी का संबंध धनाढ्य लोगों से रहा परंतु उन्होंने धनाढ्य के धन का उपयोग ग्रामोदय और अंत्योदय में किया। ग्राम उनकी पूजा थी। उन पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बहुत प्रभाव था। वे सत्ता के चकाचौंध से कभी प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने सत्ता को सेवा से जोड़ा। वे जनसंघ के जो 10-12 प्रमुख प्रारंभिक स्तंभ थे, उनमें से एक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से निकले और आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार का सान्निध्य प्राप्त कर उन्होंने प्रारंभ में संघ के विचार को और जब संघ की प्रेरणा से जनसंघ बना, तो उसके दीये की अखंड ज्योति से उसका चिन्मयी बनकर वे भारत के कोने-कोने में जनसंघ के विचार को लेकर पहुंचे।

जनता पार्टी की सरकार बनी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी धराशायी हुई। आपातकाल में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ कदम से कदम मिलाकर गुप्त क्रांति की प्रेरणा नानाजी देशमुख ने दी, वह आज भी प्रख्यात पत्रकार दीनानाथ मिश्र की किताब ‘गुप्त क्रांति’ में पढ़ी जा सकती है। नानाजी देशमुख कहा करते थे, ‘हौसले से बड़ा हथियार नहीं होता।’ जयप्रकाश नारायण के हौसले का नाम नानाजी देशमुख था। जयप्रकाश नारायण, नानाजी से अटूट प्रेम करते थे। यही कारण था कि आपातकाल के काले साये के दौरान जेल में रहने के बाद रोशनी देनेवाले में जो अग्रणी थे, वे थे जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख। सन 77 में सत्ता आई, जनता पार्टी की सरकार बनी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई सहित अनेक नेताओं ने आग्रह किया कि नानाजी जनसंघ कोटे से मंत्री बनें। लेकिन वे सत्ता की चकाचौंध में संगठन छोड़ने को तैयार नहीं थे। उन्होंने कह दिया, ‘मैं 60 वर्ष के बाद राजनीति से संन्यास ले लूंगा।’ वे 60 साल के हुए और अपने शब्दों को आचरण का परिधान पहनाते हुए उन्होंने घोषणा की, ‘मैं राजनीति से संन्यास लेता हूं, सेवा से नहीं।’

भारत की राजनीति में जनसेवा, ग्रामसेवा, कृषिसेवा और ग्रामों की आराधना का केंद्र उन्होंने मंदाकिनी नदी के किनारे बसे चित्रकूट को बनाया। जिस चित्रकूट में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम ने अपने 12 वर्ष वनवास में बिताए, नानाजी देशमुख ने उसे दीनदयाल शोध संस्थान के विविध आयामों का कार्यक्षेत्र बनाया। मंदाकिनी के घाट पर सियाराम कुटीर बनाकर उन्होंने चित्रकूट के आस-पास 500 ग्रामों का जो प्रकल्प चलाया उसे देखकर हर किसी को दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। नानाजी के प्रारब्ध की पुण्याई अगर कोई चाहता हो तो उसे चित्रकूट जाकर दीनदयाल शोध संस्थान के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के ग्रामीण उत्थान के प्रकल्प को अवश्य देखना चाहिए।

हतप्रभ थे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। वे दो-तीन दिन दीनदयाल शोध संस्थान के प्रकल्पों का दर्शन करने के बाद जब दिल्ली लौटे तो अपने अभिन्न मित्रों से कहा, ‘नानाजी देशमुख ने जीवन सार्थक कर दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम के वनवासधाम को भौतिकवादी युग में उन्होंने जो सेवाधाम बना दिया, वह सदैव स्मरणीय रहेगा।’ अटलजी ने कहा, ‘मैं प्रधानमंत्री निवास में तो आ गया हूं पर नानाजी देशमुख के दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा किये जा रहे ग्रामों के उदय का प्रकल्प मेरे आंखों से ओझल नहीं हो रहा।’ तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद ने नानाजी देशमुख द्वारा चित्रकूट में किए जा रहे ग्रामोत्थान की ख्याति सुन रखी थी। नानाजी से उनसे सहज आग्रह किया कि वे चित्रकूट अवश्य आएं। उन्होंने स्वीकृति दे दी। डॉ. कलाम ने जब दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा चलाये जा रहे प्रकल्पों को अपनी आंखों से देखा तो मिसाइलमैन ने कहा, ‘मेरी यहां से जाने की इच्छा नहीं हो रही है। आपके ग्रामोदय की जो सोच है, इससे गांव की संस्कृति और सभ्यता सदैव जीवंत रहेगी।’

जल, जमीन, जंगल, जानवर की रक्षा के साथ-साथ प्रकृति प्रदत्त प्रसादों में सदैव संतुलन बनाये रखने के पक्ष में नानाजी थे। उनका कहना था ‘प्रकृति का संतुलन यदि बिगड़ेगा तो मनुष्य, समाज और राष्ट्र का भी संतुलन बिगड़ेगा। खेती को लाभकारी कैसे बनाया जाए, जल संचय से लेकर कम पानी में खेती कैसे होती है, कौन सी मिट्टी में कौन फसल, कम लागत में फसलों के अधिक दाम, ऐसी छोटी-छोटी बातों पर उन्होंने बारीकी से विचार किया। नानाजी देशमुख कृषि और ऋषि परंपरा के अग्रदूत थे। वे चित्रकूट स्थित पहले ग्रामोदय विश्वविद्यालय के पहले कुलाधिपति थे। उनकी संकल्पना थी कि गांव की खुशहाली ही भारत की खुशहाली है। गांव हंसेगा तो भारत हंसेगा।

ग्रामोदय विश्वविद्यालय में नानाजी देशमुख ने अनेक ऐसे संकाय प्रारंभ किए, जिनका सीधा-सीधा संबंध गांव से था। वे गांव को कंक्रीट का जंगल नहीं बनाना चाहते थे। उनका कहना था कि ग्रामीण भारत का जो जीवन है, जो संस्कृति है, उसे वैज्ञानिक पद्धति से और संवृद्ध किया जाए। वे धर्म और विज्ञान के पोषक थे। जैसे गंगोत्री गोमुख से गंगा निकलती है, वैसे ही देश में यह सामान्य चर्चा है कि जीवन से ग्रामोदय निकला है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानवववाद के वे पुजारी थे। वे किसी चीज को समग्र दृष्टि से देखने में विश्वास रखते थे। उन्होंने एकांगी विकास मॉडलों की बजाए विकास की समग्र अवधारणा का समर्थन किया।

नानाजी देशमुख को राष्ट्रपति ने उनके कृत्यों को देखकर राज्यसभा में मनोनीत किया। नानाजी ने जीवन मूल्यों पर आधारित समाज-पुनर्रचना को साकार करने की दिशा में अनेक पहल की। स्वदेशी, आयुर्वेद, प्रकृति की रक्षा एवं आत्मनिर्भरता की ओर वे सदैव विशेष ध्यान देते थे। उनकी मान्यता थी कि गांव की रक्षा सबकी इच्छा होनी चाहिए। जब सबकी इच्छा बन जाएगी, तो भारत को वैभवशाली बनने में अधिक दिन नहीं लगेंगे।

नानाजी देशमुख 27 फरवरी 2010 को अपनी काया छोड़कर चले गए। वे इतने महान थे कि उन्होंने दधीचि की तरह अपना प्रत्येक अंगदान कर दिया था। उन्होंने जीवित रहते कह दिया था, ‘अंग जो भी काम का हो, दूसरे जीवन के लिए उपयोग में ले लेना चाहिए।’ वे काया से हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनकी विचार-छाया में दीनदयाल शोध संस्थान अपने प्रकल्पों के माध्यम से भारतवर्ष में एक नया कीर्तिमान बना रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख को भारत रत्न देकर एक नवमार्ग प्रशस्त किया है कि गुदरी का लाल भी भारत का लाल बन सकता है। सच में, भारत के लाल को उन्होंने भारत रत्न देकर हम सब भारतीयों को कृतार्थ किया है।

(लेखक, भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद हैं।)

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