– ललित गर्ग
कोरोना महामारी के घनघोर अंधेरों के बीच इस दुनिया में विश्वास की एक छोटी-सी किरण अभी भी बची हुई है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि ‘अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ। अभी भी सब कुछ ठीक हो सकता है।’ हमें संकटों एवं परेशानियों के प्रति साहस एवं संकल्प का प्रदर्शन करना होगा, बेचैनी का नहीं। जब तक बेचैनी रहती है, हम हर किसी को, हर चीज को आशंका एवं भय से देखते रहते हैं। बेचैनी हमें अपनी ही नजरों में बेचारा बनाकर देखती है। हमें गलत रास्तों पर बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती है। हम उन कामों एवं संकटों के लिए भी खुद को कोसते हैं, जो हमने नहीं किए होते। हम खुद को गलत मानते रहते हैं। हैली मागी कहती हैं, ‘बेचैनी बेवजह नहीं होती। पर वह वजह तब समझ आती है, जब हम खुद को शांत होने का समय देते हैं।’
एक ही दुख को दो व्यक्ति अलग तरीके से अनुभव करते हैं। दुख का सामना करने का कोई एक सही तरीका होता भी नहीं। कुछ चुप रहकर दुख झेल जाते हैं, तो कुछ रो पड़ते हैं और कुछ बीती बातों को दूसरों से बांट कर मन हल्का कर लेते हैं। दूसरों का तरीका सही है या गलत, यह राय देने से बेहतर है, उन्हें उबरने का समय दें। अपना जरूरी साथ दें। स्वयं को शक्तिसम्पन्न बनाये, सब ठीक होगा, इस विश्वास को जीवंत बनाये। मनुष्य मन का यह विश्वास कोई स्वप्न नहीं, जो कभी पूरा नहीं होता। इस तरह का संकल्प कोई रणनीति नहीं है, जिसे कोई वाद स्थापित कर शासन चलाना है। यह तो आदमी को इन्सान बनाने के लिए ताजी हवा की खिड़की है।
हर दिन की सूरज की पहली किरण की दस्तक आह्वान है कि बीते कल की भूलों या जटिलताओं से हम सीख लें और आने वाले कल के प्रति नए सपने, नए संकल्प बुनें। समय का हर टुकड़ा विकास एवं सार्थक जीवन का आईना बन सकता है। हम फिर से वह सब कुछ पा सकते हैं, जिसे अपनी दुर्बलताओं, विसंगतियों, प्रमाद, आलस्यवश या कोरोना महामारी में हमने खो दिया था। मन में संकल्प एवं संकल्पना जीवंत बनी रहना जरूरी है। जरूरत खुद को काबू में रखने की होती है, हम दूसरों को काबू में करने में जुटे रहते हैं। रूमी कहते हैं, ‘तूफान को शांत करने की कोशिश छोड़ दें। खुद को शांत होने दें। तूफान तो गुजर ही जाता है।’
हर बार संकल्प पूरे हों, यह बिल्कुल जरूरी नहीं, क्योंकि जज्बा तब तक लोहा भर है, जब तक मन में दृढ़ता का बसेरा न हो। दृढ़ता आए तो यही जज्बा इस्पात बन जाता है। ऐसा न होने तक द्वंद्व किसी खलनायक की तरह इच्छा को पहले संकल्प नहीं बनने देता और फिर नकारात्मक सोच के सहारे उसे भटकाने में लगा रहता है। द्वंद्व, यानी यह विचार-जो मैं करना चाहता, वह पूरा होगा या नहीं। हो भी गया तो हाथ क्या आएगा…आदि-इत्यादि। दृढ़ इच्छाशक्ति और उसके लिए जरूरी मेहनत इनका संयोग ही आपको अपराजेय बनाता है, अमिताभ बनाता है। हमारा हर दिन कुछ ऐसी ही आशा और विश्वास की किरणों से सृजित हो।
आत्म-सम्मान कहें, आत्म-प्रेम या फिर आत्म-मूल्य-इनकी शुरुआत इस सोच के साथ होती है कि आप प्यार करने के लायक हैं, खुद से प्यार करने के लायक हैं। सच यही है कि जीवन में हम ज्यादातर जिन चीजों से लड़ते हैं, उनमें से एक अपने प्रति ईमानदार होना भी है। अतीत की ठेस को हम छिपाना पसंद करते हैं, ताकि फिर से चोट पहंुचने से खुद को बचा सकें। खुद से प्यार करने की वकालत करने की एक बड़ी वजह यही है कि जब हम ऐसा करना शुरू करते हैं, तो हम ऐसी सोच पैदा करने लगते हैं, जो हमें खुद के प्रति ईमानदार होने के करीब लाती है। जाहिर है, यदि आप दूसरों को महज खुश करने के लिए कुछ कर रहे हैं, या बातें बना रहे हैं, तो यकीनन आप अपने होने के उद्देश्य को नकार रहे हैं। खुद को खुशी से वंचित कर रहे हैं। खुद से प्यार करके ही पता चलता है कि आप कौन हैं? खुद के प्रति सच्चे होते ही हमारा जीवन सुखद होने लगता है। हमारी जरूरतें पूरी होने लगती हैं, हमारा परिवेश सकारात्मकता एवं आशाओं से सराबोर होने लगता है, क्योंकि हम जो कुछ कर रहे होते हैं, उस पर हमें भरोसा होता है। हम जानते हैं कि हमें खुश रहना चाहिए। इससे हमारा अपने सपनों पर विश्वास बढ़ता है।
हमें स्वयं के प्रति प्रेममय होने के साथ-साथ परोपकार एवं परमार्थ के लिये भी सक्रिय होना चाहिए। परशुराम ने भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कहा कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आये हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। जीवन अवसर नहीं, अनुभव का नाम है। हर समय की तेरी-मेरी, हार-जीत और हरेक चीज को अपने काबू में करने की उठापटक बेचैनी के सिवा कुछ नहीं देती। हर पल आशंकाओं से घिरा मन जिंदगी को जी ही नहीं सकता। ओशो तो कहते हैं कि जीवन तथ्य नहीं, केवल एक संभावना है। जैसे बीज, बीज में छिपे हैं हजारों फूल, पर प्रकट नहीं, अप्रकट हैं। बहुत गहरी खोज करोगे तो ही पा सकोगे।
हालात ने जितना भी गिराने की कोशिश की, हम हर बार उठने में कामयाब रहे। दुख हर किसी को तोड़ता भी नहीं है। टूटते वे हैं, जो सीखने के लिए तैयार नहीं होते, खुद पर भरोसा नहीं करते। कहावत है कि मुसीबत के समय हिम्मत हार कर बैठ जाने वाले बैठे ही रह जाते हैं। हमें भी जीवन का एक-एक क्षण जीना है- अपने लिए, दूसरों के लिए-यह संकल्प सदुपयोग का संकल्प होगा, दुरुपयोग का नहीं। बस यहीं से शुरू होता है नीर-क्षीर का दृष्टिकोण। यहीं से उठता है अंधेरे से उजाले की ओर पहला कदम।
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