ब्‍लॉगर

कोई रास्ता न देख फिर ब्राह्मणों को लुभाने चलीं मायावती

– उपेन्द्र नाथ राय

कभी ‘तिलक, तराजू और तलवार। इनको मारो जूते चार।’ का नारा देने वाली बसपा प्रमुख मायावती को 2007 के बाद फिर ब्राह्मणों की याद आ गयी। 14 अप्रैल 1984 को बसपा के गठन के बाद पहली बार ब्राह्मण मतदाताओं के समर्थन से 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकीं मायावती का यह प्रेम यूं ही नहीं उमड़ा है। 15 वर्षों बाद भी ब्राह्मणों को याद करने वाली मायावती के पास अब कोई रास्ता भी नहीं बचा है।

कभी दलित वर्ग के कारण यूपी की राजनीति में चमक-धमक दिखाने वाली मायावती से अब दलितों का भी एक बड़ा तबका उनसे खिसक चुका है। पश्चिम में इसबार भीम आर्मी द्वारा इनके वोटबैंक में अच्छी सेंध लगाने की उम्मीद है। ऐसे में यदि भाजपा को टक्कर देती वे नहीं दिखती हैं तो मुस्लिम वोट बैंक उनकी तरफ नहीं खिसकेगा। वे इसी कोशिश में लगी हैं कि भाजपा का प्रमुख प्रतिद्वदी सपा न होकर बसपा बने। यदि बसपा प्रमुख प्रतिद्वंदी आमजन में दिखने लगती है तो मुस्लिम अपने-आप बसपा की तरफ मुड़ जाएंगे। इसी कारण सतीश मिश्रा को ब्राह्मणों को लुभाने के लिए अभी से लगा दिया गया है। वे ब्राह्मणों का बसपा की तरफ झुकाव लाने के लिए कोशिश करेंगे। उनकी सभा की शुरूआत के लिए भी राम की नगरी अयोध्या को चुना गया है, जहां 23 जुलाई से शुरूआत होगी और पहला फेज 29 तक चलेगा।

यदि ब्राह्मण और राजनीति पर नजर दौड़ाएं तो उत्तर प्रदेश में लगभग 11 प्रतिशत ब्राह्मण हैं, जिन्हें लुभाने के लिए विभिन्न पार्टियां अपने-अपने ढंग से दांव चलती रहती हैं। 2007 को अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाय तो ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस के बाद भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गया। 2007 में मायावती ने ज्यादा ब्राह्मणों को टिकट देने के साथ ही एक नारा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ का नारा देकर पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी। यदि बसपा के मुख्य वोट बैंक दलित वर्ग पर नजर दौड़ाएं तो वह भी बहुत हद तक खिसक चुका है। पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी द्वारा ठीक-ठाक दलित वोट अपने पक्ष में करने की उम्मीद जताई जा रही है।

अब इसबार बसपा की तरफ ब्राह्मण झुकेगा अथवा नहीं यह तो भविष्य की गर्त में है लेकिन इतना सत्य है कि ब्राह्मणों का एक वर्ग भाजपा से नाराज चल रहा है। बसपा इसी का फायदा उठाना चाहती है। बसपा प्रमुख मायावती कह भी चुकी हैं कि भाजपा से नाराज चल रहे ब्राह्मण बसपा की तरफ शिफ्ट हो जाएं। यदि बसपा की वर्तमान स्थिति पर नजर दौड़ाएं तो प्रदेश में इसकी स्थिति तीसरे नम्बर की दिख रही है। समाजवादी पार्टी ही भाजपा को टक्कर देती दिख रही है। ऐसे में यदि बसपा टक्कर देते नहीं दिखती तो मुस्लिम मतदाता सपा की तरफ शिफ्ट हो जाएगा और बसपा काफी पीछे के पायदान पर खिसक जाएगी। यदि बसपा ब्राह्मणों को अपनी तरफ झुकाने में सफल हो जाती है तो दलित और ब्राह्मण मिलकर उसके वोटबैंक में काफी इजाफा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में मुस्लिम मतदाता बसपा की तरफ झुक जाएंगे।

दरअसल मुस्लिम मतदाता उसी को वोट करेगा, जो भाजपा को टक्कर देता दिखेगा। इस कारण मायावती भी समझती हैं कि मुस्लिमों को लुभाने की बहुत जरूरत नहीं है। उन्हें सिर्फ यह दिखाना है कि हम भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंदी हैं। मुख्य प्रतिद्वंदी बनने के बाद मुस्लिम मतदाता की मजबूरी है कि वह बसपा को वोट करे। भाजपा भी यही चाहती है। उसकी भीतरी कोशिश है कि सपा ही मुख्य प्रतिद्वदी के रूप में न दिखे, वरना पूरा मुस्लिम वोट उसकी तरफ खिसक जाने से भाजपा को नुकसान होगा। इस कारण भाजपा हमेशा यह चाहेगी कि बसपा व कांग्रेस भी प्रतिद्वदी के रूप में प्रदेश में उभर कर आये, जिससे मुस्लिम मतदाता कहीं एक पार्टी की तरफ शिफ्ट न करें।

पिछले बसपा के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो 2007 में ब्राह्मण-दलित वर्ग के भरोसे विधानसभा चुनाव में परचम लहराने में कामयाब रहीं मायावती को फिर कोई रास्ता नहीं दिखने पर इसे आजमाने का निर्णय लिया है। अपने अधिकांश वरिष्ठ नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा चुकी मायावती को सिर्फ सतीश मिश्र के सहारे सत्ता के नजदीक तक यह ब्राह्मण कार्ड कितना पहुंचाएगा, यह तो भविष्य की गर्त में है।

2007 के उप्र विधानसभा चुनाव व सीटों का आंकलन करें तो उससे पहले 2002 में त्रिशंकु विधानसभा थी। तीन मई 2002 को मायावती भाजपा और रालोद के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं थी लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया। बसपा के कुछ बागी विधायकों व कांग्रेस के सहयोग से नाटकीय घटनाक्रम में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गये। समाजवादी पार्टी की जब भी सरकार रही अराजकता चरम पर पहुंच जाती है। उसी के बाद 2007 का चुनाव हुआ। मायावती समझ चुकी थीं कि सिर्फ दलित के भरोसे सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सतीश मिश्र को ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के लिए मैदान में उतारा। ब्राह्मणों में उस वक्त शासन सत्ता को लेकर बहुत नाराजगी भी थी और भाजपा अथवा कांग्रेस की सरकार बनती नहीं दिख रही थी। बसपा ने इसका फायदा उठाया।

मायावती ने वर्ष 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के अंतर्गत 139 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट प्रदान किया था। तब बसपा ने 114 पिछड़ों व अतिपिछड़ों, 61 मुस्लिम व 89 दलित को टिकट दिया था। सवर्णों में सबसे अधिक 86 ब्राह्मण प्रत्याशी बनाए गए थे और इसके अलावा 36 क्षत्रिय व 15 अन्य सवर्ण उम्मीदवार चुनावी जंग में उतारे थे। इस ब्राह्मण-दलित गठजोड़ का नतीजा रहा कि 14 अप्रैल 1984 में गठित हुई बसपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला और 206 सीट पाकर मायावती ने सरकार बनाई। सपा को 97 सीटें मिली, जबकि 2002 में 88 सीट पाने वाली भाजपा 51 सीट पर सिमट गयी। कांग्रेस 25 से 22 सीट पर आ गयी।

बसपा ने वर्ष 2007 से 2012 तक बहुमत की सरकार चलायी। इस बीच वह अपने जनाधार को बचाए न रख सकी। वर्ष 2012 में पांच प्रतिशत वोट कम हो गये। उसे 25.91 वोट मिले और वह सरकार से बाहर हो गयी। हालांकि वर्ष 2012 में बसपा अध्यक्ष ने इस फॉर्मूले को त्याग दिया था। बसपा ने वर्ष 2012 में सोशल इजीनियरिंग में फेरबदल किया। सवर्ण उम्मीदवारों की कटौती करते हुए मुसलमानों को तरजीह दी। बसपा ने 113 पिछड़े-अतिपिछड़े, 85 मुस्लिम, 88 दलित व 117 सवर्ण प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। सवर्णों में 74 ब्राह्मण, 33 क्षत्रिय और 10 अन्य उम्मीदवारों को टिकट दिया गया परन्तु बसपा को करारा झटका लगा था।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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