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स्वातंत्र्यवीर सावरकर और हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान

– रमेश सर्राफ धमोरा

स्वातंत्र्यवीर सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) की 28 मई को 140वीं जयंती है। वह सारी उम्र हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए जिये। भारत के महान क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, इतिहासकार, राष्ट्रवादी और प्रखर विचारक वीर सावरकर हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा के उन्नयन के प्रथम शिखर पुरुष हैं। वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार वीर सावरकर हिन्दुत्व के पुरोधा हैं। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद, मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व हैं। वह सभी धर्मों के रूढ़िवादी विचारों के विरोधी थे।

वीर सावरकर का जन्म 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र में नासिक के भागुर गांव में मां राधाबाई तथा पिता दामोदर पन्त सावरकर के घर पर हुआ था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। वीर सावरकर नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी मां का देहान्त हो गया। 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता भी स्वर्ग सिधार गए। बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला। दुख की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा।


वीर विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। घर में आर्थिक संकट के बावजूद भाई बाबाराव ने विनायक की शिक्षा जारी रखी। इसी दौरान वीर सावरकर नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन कर राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने लगे। साल 1901 में यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करके उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बीए किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी।

1904 में उन्होंने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हुए। यहबाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।

10 मई 1907 को उन्होंने इंडिया हाउस लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में सप्रमाण 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत की स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून 1908 में इनकी पुस्तक द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंड्स1857 तैयार हो गई थी। परंतु इसके मुद्रण की समस्या आई। बाद में यह पुस्तक गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया था। मई 1909 में इन्होंने लंदन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।

सावरकर ने लंदन के ग्रेज इन लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इंडिया हाउस में रहना आरम्भ कर दिया। इंडिया हाउस उस समय राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तकों का गहन अध्ययन किया और द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने इस बारे में भी गहन अध्ययन किया कि अंग्रेजों को किस तरह जड़ से उखाड़ा जा सकता है।

लंदन में उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। लाला इंडिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिए जाने के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में एक लेख भी लिखा। मार्च 1910 में वीर सावरकर को तोड़फोड़ और युद्ध के लिए उकसाने से संबंधित विभिन्न आरोपों में गिरफ्तार किया गया और उन्हें मुकदमे के लिए भारत भेजा गया। 24 दिसम्बर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

एक-दूसरे मुकदमे में उन्हें भारत में एक ब्रिटिश जिला मजिस्ट्रेट की हत्या में उनकी कथित मिलीभगत का दोषी ठहराया गया। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार वीर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रांति की अलख जगाने के लिए के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी। यह विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा के रूप में दर्ज है। सजा सुनाए जाने के बाद उन्हें जीवन भर के लिए हिरासत में रखने के लिए अंडमान द्वीप भेज दिया गया। उन्हें 1921 में वहां से वापस भारत लाया गया और 1924 में नजरबंदी से रिहा कर दिया गया।

विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। वीर सावरकर ने जीवन भर हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए ही काम किया। सावरकर को 1937 में पहली बार हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। 1938 में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया। उन्हें लगातार छह बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।

आठ अक्टूबर, 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी-लिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 10 नवंबर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे। आठ नवम्बर, 1963 को उनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितंबर 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। एक फरवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। भारत के इस महान क्रांतिकारी ने 26 फरवरी, 1966 को आखिरी सांस ली।

वीर सावरकर का संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए ही बीता। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि हैं जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुनः कागज पर लिखा। पांच फरवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट की धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे में अपर्याप्त साक्ष्य के कारण उन्हें बरी कर दिया गया। वीर सावरकर तो भारत रत्न देने की मांग लंबे समय से की जा रही है।संसद में तो उनका चित्र लगाया जा चुका है।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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