खरी-खरी

उनकी ‘रस’ पर बहस… हमारी जिंदगी तहस-नहस…

शब्दों से ऐसे घायल हुए कि आसमान सर उठा पर लिया.. इमरती के रस को देश का इंकलाब बना दिया… यहां कदम-कदम पर गैरत की लाशें बिछी पड़ी हैं… बच्चों की भूख से सिसकती माताओं की दास्तानें बुलंद पड़ी हैं… इस देश में सूखी रोटियां… गली सब्जियां.. पनीली दालों से गुजर-बसर करती महिलाओं का अपमान नहीं होता… धूप में तपती… बेरोजगारी से जूझती… पति के हालातों से दु:खी महिलाओं का अपमान नहीं होता… मुट्ठीभर कमाई से पहाड़ों जैसे खर्च की जुगत भिड़ाती महिलाओं का अपमान नहीं होता… गैस की टंकी की बढ़ती कीमतों से झुलसती चूल्हा फेंक चुकी महिलाओं का अपमान नहीं होता… लेकिन एक शब्द के मनचाहे अर्थ से यहां महिलाओं का अपमान हो जाता है… नेताओं का काफिला बिखर, बरसकर….टूटकर आक्रोश जताता है…कहने वाले का दामन गुस्से की आग से जलाता है… तब देश सोचने पर मजबूर हो जाता है कि महिलाओं का अपमान किसे कहा जाता है… कांग्रेस अध्यक्ष दिल की बात जुबां पर लाने का गुनाह ढोने के लिए माफी मांगने पर मजबूर हो जाता है… लेकिन सच तो यह है कि जनता को अब राजनीति में ही रस नजर नहीं आता है…राजनेताओं के व्यक्तित्व… संस्कार… सोच… विचार… आचार… व्यवहार सबसे आम आदमी का कोई नाता ही नहीं रह जाता है…जिसे चुनते हैं वो किसी और का हो जाता है… जिस दल का होता है उसका रह नहीं पाता है…एक गुनहगार दल बदलते ही बेगुनाह हो जाता है…मन में आता है कि कांग्रेस का नाम अपराध ही क्यों नहीं रख जाता है और हर कांग्रेसी को आरोपी क्यों नहीं कहा जाता है…आम आदमी पार्टी को शराबी क्यों नहीं समझा जाता है और नीतीश जैसा समझदार नेता हर पार्टी का मुखिया क्यों नहीं बन पाता है, जो फायदे के कायदे की राजनीति चलाता है…जहां सत्ता बच सके…सियासत फल-फूल सके वहां दुकान जमाता है…मोदीजी को एक दिन गुनहगार तो दूसरे दिन भगवान बनाता है…बेचारा मतदाता चकरघिन्नी बन जाता है…किसे अपना और सच्चा समझे…किसे पराया और बेईमान समझे समझ में नहीं आता है… चुनाव का कोई मायना ही नहीं रह जाता है…खड़ा उम्मीदवार बिठा दिया जाता है और गिरा हुआ उम्मीदवार खड़ा किया जाता है…छाती पीटते दलों के नेताओं को अपने ही दलों में रहे नेताओं में रस नजर नहीं आता है…पता नहीं अपमान केवल महिलाओं का ही होता है या मान का कुछ हिस्सा पुरुषों के भी हिस्से में आता है, जो मर-मरकर इसीलिए जीता है, क्योंकि परिवार के कारण मर भी नहीं पाता है…देश के दयालुओं कुछ तो रहम करो…आपस में चाहे जितना लड़ो-भिड़ो, अपनी जिंदगी के रस में भले ही डूबे रहो, मगर बढ़ती महंगाई…जानलेवा बेरोजगारी और भूख से बिलबिलाते लोगों पर भी कुछ तो ध्यान धरो…

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