खरी-खरी

यह खिचड़ी सेहत के लिए हानिकारक है…

यह खिचड़ी सेहत के लिए हानिकारक है…
बहुत सताया… जब-जब उन्हें आजमाया…देश के राजनीतिक दलों ने तब-तब अपने स्वार्थ की खिचड़ी को पकाया… हर वक्त अर्थव्यवस्था का हाजमा गड़बड़ाया… सबने अपना-अपना तडक़ा लगाया… हर कोई भ्रष्टाचार का घी गटकता रहा… गरीबों का चावल हड़पता रहा… उम्मीदों की दाल सबने गलाई और जनता के हाथों में तबाही, बर्बादी, बदनामी की बीमारी आई… कभी देश ने चन्द्रशेखर जैसे नाम की अमावस को झेला तो, कभी देवेगौड़ा, गुजराल जैसे गए गुजरे मुखिया बन गए… कभी बैसाखी पर नरसिम्हाराव सवार हुए तो कभी मौन मनमोहन कुर्सी हांकते रहे… निर्णय की क्षमताओं से परे चोर उठाईगीरों से घिरे भ्रष्टाचारियों की कांख में दबे देश के कुछ प्रधान कुर्सी के लिए मजबूर थे तो कुछ मगरूर थे… दुनिया के नक्शे में देश विकास के नाम पर केवल आबादी बढ़ाने वाला माना जाता था… जहां भी हमारा नाम आता था, वहां गरीबी, मुफलिसी का कलंक लगाया जाता था, क्योंकि देश नेतृत्व के नाम पर परिचय की मोहताजी से जूझ रहा था… कब तक सरकार रहेगी… कब तक बचेगी… किस दिन गिरेगी… कोई विश्वास नहीं कर पाता था… इसलिए दुनिया का कोई देश हमें तवज्जों देने की हिम्मत नहीं कर पाता था… इंदिराजी के बाद देश को कोई मजबूत विकल्प नहीं मिल पाया… देश ने अटलजी को भी आजमाया, लेकिन जयललिता जैसी बैसाखी के स्वार्थ की कमजोर लकड़ी ने सत्ता को ढहाया… दोबारा सरकार बनाने का मौका भी आया तो मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे गृहमंत्री को देश ने पचाया… जिसने पहले अपनी बेटी का अपहरण करवाया, फिर उसकी आजादी के लिए आतंवादियों को छुड़वाया… ऐसे-ऐसे दंश झेल चुके देश ने जब बड़ी मिन्नतों के बाद स्थायी नेतृत्व पाया तो फिर स्वार्थी दलों का हाजमा गड़बड़ाया… वो एकजुट होना चाहते हैं, मगर उनका मकसद देश का विकास नहीं सत्ता को हथियाना है… अपने पाप को छुपाना है… जांच की आंच से खुद को बचाना है… सारे घबराए दल इस दलदल से निकलना चाहते हैं… एक-दूसरे का हाथ पकडक़र बाहर आना चाहते हैं… लेकिन एकजुटता की इस जली हुई रस्सी में अभी भी अहंकार का बल नजर आता है… अभी भी हर दल अपने क्षेत्रीय नुकसान-फायदे की सोच से बाहर नहीं आना चाहता है… सारे दलों की एकजुटता केवल जांच की आंच को ठंडा करने तक सीमित है… इसीलिए जनता के भरोसे की भैंस पर लिखा अक्षर काला नजर आ रहा है… सारे दल दिल्ली में मजमा जमा रहे हैं, उधर सबसे बड़े विपक्ष कांग्रेस के कथित मुखिया विदेशों में लोकतंत्र की हत्या का राग अलाप रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के असली मायने ही नहीं समझ पा रहे हैं… लोकतंत्र के रथ में यदि मरियल घोड़े जोते जाएंगे… सारे घोड़े बेलगाम होकर रथ को खींचने लग जाएंगे… तो रथ के पहिये वैसे ही टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे… इसीलिए दलों की एकजुटता से ज्यादा जरूरी देश की एकता है… कमजोर घोड़ों से जरूरी मजबूत इंजन है… बेलगाम घोड़ों से ज्यादा जरूरी नेताओं पर नकेल है… देश बीमार नहीं है… इसीलिए उसे खिचड़ी की जरूरत नहीं है… जो जिस राज्य का है, वो वहां जाए… हांडी में अपने चावल पकाये… पहले खुद की सेहत बनाए… फिर देश के दंगल में आए…

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