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सहमी क्यों है पाकिस्तान सेना

– आर.के. सिन्हा

पाकिस्तान में मोटी तोंद और लंबी मूंछों वाले सेना के अफसरों के खिलाफ अब कुछ सियासी रहनुमा बोलने लगे हैं। उनके करप्शन तथा अनैतिक कृत्यों को उजागर करने का साहस अब दिखा रहे हैं, जबकि भ्रष्टाचार का घड़ा फूटने ही वाला है। फिर भी, यह एक सकारात्मक संकेत सरहद के उस पार से आ तो रहा है। इसका स्वागत होना चाहिए। बीते दिनों पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की तहरीके इंसाफ पार्टी (पीटीआई) के नेता आजम स्वती ने सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा के खिलाफ एक ट्वीट किया। उन्होंने अपने ट्वीट में बाजवा के काले कारनामों का पर्दाफाश किया। उनके इस कदम के बाद सेना ने आजम स्वती को गिरफ्तार कर लिया। पर यह तो मानना होगा कि पीटीआई के इस नेता का जमीर जिंदा है। वह एक भ्रष्ट सेना प्रमुख को आईना दिखाने की हिम्मत रखते हैं।

पाकिस्तान में इस तरह के बेखौफ लोग बहुत नहीं हैं। इमरान खान की आप लाख कमियां निकाल लें, पर यह तो कहना होगा कि वे भी परोक्ष और अपरोक्ष रूप से सेना पर हल्ला बोलते रहते हैं। पाकिस्तान सेना की निंदा करना हर तरह से वाजिब है। इसने पाकिस्तान को कभी पनपने ही नहीं दिया। पाकिस्तान में लोकतंत्र को कभी सेना के जनरलों ने जमने का मौका नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान तबाह होता रहा। आज पाकिस्तान सारी दुनिया के पास कटोरा लेकर घूमता है, ताकि उसे कहीं से भीख मिल जाए। वहां की सेना माफिया गिरोह की तरह से काम करती है। भारत से 1965 तथा 1971 की जंग में बुरी तरह पराजित होने के बाद उम्मीद थी कि सेना सुधर जाएगी। पर, यह उम्मीद गलत साबित हुई। उसने फिर कारगिल में घुसपैठ की। वहां पर उसे भारतीय सेना ने रगड़ दिया।

पाकिस्तानी सेना ने अपने देश में चार बार निर्वाचित सरकारों को गिराया। अयूब खान, याहिया खान, जिया उल हक और परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में पाकिस्तान में लोकतंत्र कराहता रहा। सेना ने पाकिस्तान में निर्वाचित सरकारों को कभी कायदे से काम करने का मौका ही नहीं दिया। सत्ता से बाहर किए जाने के बाद इमरान खान आरोप लगाते रहे हैं कि उनकी सरकार को हर जगह ब्लैकमेल किया गया। उन्होंने कहा कि सत्ता की बागडोर उनके हाथ में नहीं थी। यह सभी को पता है कि वह कहां है और किसके पास थी। उनका इशारा सेना की तरफ ही था।

पाकिस्तान में वर्ष 1956 तक संविधान तक नहीं बन पाया। पाकिस्तानी सेना ने देश के विश्व मानचित्र में सामने आने के बाद अहम राजनीतिक संस्थाओं पर भी प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में कुछ माह तक पढ़े अयूब खान पर तो आरोप है कि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को ही मरवा दिया था। अयूब खान ने अकारण 1965 में भारत के खिलाफ जंग छेड़ कर अपने देश की अर्थव्यवस्था को हमेशा के लिए तबाह कर लिया। दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़े जिया उल हक ने तो भुट्टो को फांसी पर लटकवा दिया था। जिया ने पाकिस्तान को घोर कठमुल्ला मुल्क भी बनवाया। पाकिस्तान का शिक्षित समाज आज उन्हें कोसता है। हालांकि उनकी विमान हादसे में मौत में भी सेना का ही हाथ बताया जाता है। वहीं, दिल्ली में पैदा हुए परवेज मुशर्रफ ने करगिल में पाकिस्तानी फौज भिजवा कर मुंह की खाई।

यह भी गौर करें जनरल अयूब खान से लेकर जनरल बाजवा तक सब के सब कट्टर भारत विरोधी रहे। जब तक बाजवा के पूर्ववर्ती राहिल शरीफ पाकिस्तान में सेना प्रमुख रहे तब तक तो वे भी भारत के खिलाफ जहर उगलते रहे। उनको भारत से निजी खुन्नस थी। दरअसल उनके बड़े भाई 1971 की जंग में मारे गए थे।

अब बात बलराज साहनी के ही गॉर्डन कॉलेज में शिक्षित जनरल कमर जावेद बाजवा की। बाजवा भी “राग कश्मीर” छेड़ते रहते हैं। कहने वाले कहते हैं कि पाकिस्तान के सबसे पिछड़े बलूचिस्तान सूबे की जनता के पाकिस्तान सरकार तथा सेना के खिलाफ विद्रोह के चलते बाजवा की स्थिति कमजोर हुई है। इसलिए उन पर कुछ सियासी नेता हल्ला बोलते हैं। विकास से तो कोसों दूर है बलूचिस्तान। बलूचिस्तान देश के बंटवारे के समय भारत के साथ विलय चाहता था। लेकिन पंडित नेहरू ने उसे पाकिस्तान को ऐसे दान में दे दिया मानो वह नेहरू खानदान की पुश्तैनी जागीर हो।

बलूचिस्तान पाकिस्तान के पश्चिम का राज्य है जिसकी राजधानी क्वेटा है। बलूचिस्तान के पड़ोस में ईरान और अफगानिस्तान है। 1944 में ही बलूचिस्तान को आजादी देने के लिए माहौल बन रहा था। लेकिन, 1947 में इसे नेहरू की सहमति से जबरन पाकिस्तान में शामिल कर लिया गया। तभी से बलूच लोगों का संघर्ष चल रहा है और उतनी ही ताकत से पाकिस्तानी सेना बलूच जनता को कुचलती रही है। पाकिस्तान सेना की ताकत ने ही उसे पाकिस्तान का हिस्सा बनाकर रखा हुआ है। पाकिस्तानी सेना बलूचिस्तान में विद्रोह को दबाने के लिए आये दिन टैंक और लड़ाकू विमानों तक का इस्तेमाल करती है।

पाकिस्तान में सेना की ताकत लगातार कुछ कमजोर तो हो रही है। कुछ समय पहले वित्त मंत्री मिफताह इस्माइल ने सेना को एक झटका दिया। उन्होंने देश की सेनाओं के विकास पर खर्च होने वाली रकम को घटा दिया है। मीडिया की खबरों के मुताबिक इसमें 72 अरब रुपए की कटौती कर दी गई है। पाकिस्तान ने यह कदम अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की तरफ से रखी गई एक शर्त के तहत उठाया है।

पाकिस्तानी सेना छावनियों में रहे, यह खुद पाकिस्तान तथा दक्षिण एशिया में स्थायी शांति के लिए जरूरी है। पाकिस्तानी सेना ने अपने को शुरू से ही इस तरह से पेश किया कि मानो वही पाकिस्तान का हित देखती-समझती हो। पाकिस्तान आर्मी को विदेशी मामलों में भी दखल देनी की बीमारी है। पाकिस्तान में जब भी किसी अन्य देश का राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या अन्य कोई महत्वपूर्ण शख्सियत आता है तो आर्मी चीफ उससे मिलते हैं। कमर जावेद बाजवा भी उसी रिवायत को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि उन्हें या उनसे पहले के जनरलों को डिप्लोमेसी की कोई समझ नहीं रही है। बाजवा 23 जुलाई, 2019 को वाशिंगटन में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात करते हैं। इमरान खान को यह समझ नहीं आ रहा था कि सेना प्रमुख डिप्लोमेसी में क्यों दखल दे रहा है। इसलिए दोनों के बीच दूरियां बढ़ती गईं।

रावलपिंडी स्थित पाकिस्तान सेना के हेडक्वार्टर में आजकल जो कुछ हो रहा है, वह पहले शायद ही कभी हुआ हो। वहां इन दिनों बड़े-छोटे अफसर हाल ही में प्रधानमंत्री के ओहदे से अपदस्थ हुए इमरान खान की सभाओं को फॉलो कर रहे हैं। इमरान खान की कराची में पिछले दिनों मोहम्मद अली जिन्ना के मकबरे के पास के मैदान, जिसे बागे- ए-जिना कहते हैं, में हुई पब्लिक मीटिंग पर भी सेना की पैनी नजर थी। मीटिंग में उमड़ी भीड़ से सेना के अफसरों की पेशानी से पसीना छूटने लगा। कहते हैं कि इस मैदान में इससे पहले जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना की सभाओं में इतनी भीड़ आती थी। ये 1960 के दशक की बातें हैं।

पाकिस्तानी सेना सहमी इसलिए है क्योंकि इमरान खान ने सत्ता पर काबिज रहने के दौरान सेना के कामकाज में हस्तक्षेप करने की हिमाकत की। अब जब वे प्रधानमंत्री नहीं रहे हैं तो भी वे और उनके साथी सेना पर हमले बोल रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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