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इस द्वीप में समुद्री घास से बने घर, Oxygen Level बढ़ाने में मिलती है मदद

डेस्‍क। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण धरती के भीतर भी हलचल बढ़ने लगी है, भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी एक के बाद एक सामने आ रही हैं। ऐसे में विशेषज्ञ उन घरों पर जोर दे रहे हैं, जिसमें सीमेंट-लोहे का इस्तेमाल कम होने के बावजूद जो ज्यादा टिकाऊ हो। इससे पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होगा। डेनमार्क के लइसो द्वीप में ऐसे ही घर बने हुए हैं। शैवाल से बने ये घर कई पीढ़ियों तक टिकते हैं।

लकड़ी की कमी होने पर निकाला उपाय : 17वीं सदी में इस द्वीप पर ये अनोखी शुरुआत हुई थी। असल में यहां पर समुद्र से नमक बनाने का उद्योग काफी फला-फूला। तब उद्योग धंधों के लिए तेजी से पेड़ काटे गए। ऐसे में घर बनाने के लिए लकड़ियों की आपूर्ति मुश्किल होने लगी। तभी ये तरीका निकाला गया।

टूटी नावों का भी इस्तेमाल होता था : समुद्र के बीचोंबीच बसा होने का एक फायदा इस द्वीप को मिला। बहुत बार जहाज या पोत समुद्र में किसी दुर्घटना का शिकार हो जाते और टूट-फूटकर द्वीप के तट से लग जाते। ऐसे में लोग इन लकड़ियों को जमा करके इनसे अपना घर बनाने लगे और छतों के लिए समुद्री शैवाल का इस्तेमाल करते। हालांकि साल 1920 के करीब समुद्री घास में एक फंगल संक्रमण हुआ। इसके बाद से लोग इसका इस्तेमाल बंद करने लगे। धीरे-धीरे ये घर इतने कम हो गए कि आज 1800 लोगों की आबादी वाले द्वीप पर सिर्फ 36 ऐसे घर हैं, जिनकी छतें शैवालों से बनी हैं।

अब दोबारा आ रहे चलन में : द्वीप में साल 2012 से दोबारा इस तकनीक को जिंदा किया जा रहा है। इस बारे में ‘बीबीसी’ की एक रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है। द्वीप के रहनेवाले खुद ही इस तकनीक को दोबारा लाने की कोशिश में हैं। वे घूम-घूमकर लोगों को बताते और अगर पक्की छत न बनी हो तो उसे समुद्री शैवाल की तकनीक से बनाने की बात करते हैं।


आविष्कार के लिए द्वीप की महिलाओं श्रेय दिया जाता है : नाविक जहाज लेकर समुद्र में निकला करते, वहीं महिलाएं घरों को टिकाऊ बनाने के तरीके खोजा करती थीं। उसी दौरान 17वीं सदी में इस छत का निर्माण हुआ। एक साथ 40 से 50 महिलाएं छत बनाने के काम में लगती थीं। सबसे पहले वे समुद्री तूफान के बाद किनारे आई शैवाल जमा करतीं। इसके बाद एक अहम काम था शैवाल को सुखाना। इकट्ठा किए शैवाल को लगभग 6 महीनों के लिए मैदान में सुखाया जाता था। इससे शैवाल ज्यादा मजबूत हो जाती थी। तब इसे छत पर बिछाया जाता था। एक छत 35 से 40 टन तक वजनी होती थी।

कई खूबियां हैं इस शैवाल की : समुद्री शैवाल की एक खास किस्म का इसमें इस्तेमाल होता है, जिसे ईलग्रास कहते हैं। सारी दुनिया के समुद्री तटों पर जमा हो जाने वाली ये शैवाल काफी खास मानी जा रही है। इसकी वजह ये है कि ये आग नहीं पकड़ती, न ही इसमें जंग लग सकती है और न ही इनमें किसी तरह के कीड़े लगने का डर रहता है। ये कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर लेती है, इस तरह से घरों में रहने वालों को किसी एयर प्यूरिफायर की जरूरत नहीं होती है।

सालोंसाल बगैर मेंटेनेंस चलते हैं घर : ये इतनी मोटी होती हैं कि पूरी तरह से वाटरप्रूफ हैं, जबकि सीमेंट या लोहे से बने अच्छे से अच्छे घरों में भी ज्यादा बारिश में सीलन या पानी रिसने की समस्या हो जाती है। समुद्री शैवाल से बनी इन छतों की एक और खासियत है- ये 100 या उससे भी ज्यादा सालों तक चलते हैं। द्वीप पर जितने भी घरों में ये शैवाल हैं, वे 300 साल से भी ज्यादा पुराने हैं, जबकि कंक्रीट से बनी छतों को 50 सालों बाद मेंटेनेंस की जरूरत पड़ ही जाती है।

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