हैदाराबाद। दुनिया के कई देशों में कोहराम मचाते कोरोना संक्रमण (corona infection) को कम करने का फिलहाल कोरोना वैक्सीन ही कारगार मानी जा रही है, हालांकि भारत समेत कई देशों ने टीके विकसित (vaccines developed) भी कर लिए और कोरोना वैक्सीन लगाई जा रही है। इसी बीच कोरोना वैक्सीन की किल्लत को देखते हुए कुछ एक्सपर्ट्स (Experts) ने उसे लगाने के तरीके को बदलने का सुझाव दिए हैं।
एक्सपर्ट्स के मुताबिक अगर वैक्सीन को मांसपेशियों लगाने के बजाय त्वता की दूसरी परत (Dermal) में लगाई जाए तो इसमें वैक्सीन की मात्रा भी कम लगेगी और उसके असर पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अभी वैक्सीन (Vaccine) की एक डोज लगाने में जितनी मात्रा की जरूरत है, उतने में 5 लोगों को वैक्सीन (5 people vaccinated in 1 dose) लग सकेगी।
एक्सपर्ट्स के मुताबिक कोरोना की वैक्सीन को इंट्रामस्कुलर तरीके से दिया जा रहा है यानी इंजेक्शन से वैक्सीन को गहराई में मौजूद मांसपेशियों में पहुंचाया जा रहा है। एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगर यह इंट्राडर्मल तरीके से यानी त्वचा की दूसरी परत में लगाई जाए तो 0.5 ml के बजाय 0.1 ml मात्रा ही काफी होगी। इस तरह कंधे में इंट्रामस्कुलर तरीके से एक डोज में वैक्सीन की जितनी मात्रा दी जाती है, उतने में इंट्राडर्मल तरीके से 5 लोगों को लगाई जा सकती है।
इस संबंध में टेक्निकल अडवाइजरी कमिटी के चेयरमैन डॉक्टर एमके सुदर्शन ने इसके लिए रैबीज वैक्सीन का हवाला दिया है। डॉक्टर सुदर्शन रैबीज की वैक्सीन पर काफी काम कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि रैबीज वैक्सीनेशन में इसे सफलतापूर्वक किया जा चुका है यानी इंट्रामस्क्यूलर की जगह इंट्राडर्मल तरीके से वैक्सीन लगाई गई जो काफी कारगर रही। डॉक्टर सुदर्शन ने बताया कि इंट्राडर्मल तरीके से वैक्सीन लगाने से भले ही कम मात्रा में टीका शरीर में पहुंचती है लेकिन स्किन में मौजूद एंटीजन बनाने वाली कोशिकाएं तगड़ा इम्यूनोलॉजिक रिस्पॉन्स पैदा करती हैं। उन्होंने बताया कि इंट्रामस्क्यूलर तरीके से जितनी देर में इम्यून रिस्पॉन्स पैदा होती है, इंट्राडर्मल तरीके से उससे काफी जल्दी और अच्छी इम्यून रिस्पॉन्स पैदा होती है।
उन्होंने बताया कि सरकार ने इस सुझाव को गंभीरता से लिया है और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से इस पर स्टडी करने को कहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1980 के दशक में ही इंट्राडर्मल रैबीज वैक्सीनेशन को मंजूरी दी थी और भारत में इसे 2006 में अपनाया गया।
उन्होंने कहा कि जल्द ही 10 स्वस्थ वॉलंटियर्स पर कोविशील्ड (Covishield) और कोवैक्सीन (Covaxin) का इंट्राडर्मल तरीके से क्लिनिकल ट्रायल की जा सकती है। उन्होंने कहा, ‘किसी मेडिकल कॉलेज की एथिक्स कमिटी से जरूरी मंजूरी के बाद स्टडी में यह जांचा जा सकता है कि इंट्राडर्मल तरीके से वैक्सीन सुरक्षित और कारगर है या नहीं। 0.1 एमएल डोज 28 दिन के अंतराल पर दो बार दी जा सकती है। स्टडी के दौरान हर खुराक के 4 हफ्ते बाद एंटीबॉडी (Antibody) की जांच की जा सकती है। इन स्टडी को 3 महीने में किया जा सकता है।
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