डेस्क: मेरे एक साथी हैं. बीमार हैं. कई अंग काम नहीं कर रहे हैं. उनकी तबीयत को लेकर चिंतित हूं. पिछले दिनों श्रीनगर गया था. घोड़े की सवारी कर रहा था. चक्कर खाकर गिर गया. होश आया तो पत्नी से कहा कि मैं अपने अंग दान करना चाहता हूं. पत्नी ने कहा कि ठीक है. फिर मैं भी अपने अंग दान करूंगी. बस यहीं से पूर्व विधायक राजेंद्र राजन और उनकी पत्नी सुशीला देवी ने अंगदान का निर्णय ले लिया.
पूर्व विधायक से पूछा कि अंगदान का विचार कैसे आया. जवाब में वह कहते हैं, ‘अभी मैं सिमरिया में हूं. दिनकर जी के गांव में. यहां मेरे एक साथी मुझसे उम्र में छोटे हैं. बीमार हैं. डायबिटीज के कारण उनके कई अंग काम नहीं कर रहे हैं. मरणासन्न स्थिति में हैं. इनके इलाज के लिए हम लोग सहयोग कर रहे हैं और तय कर रखा है कि इलाज के अभाव में इन्हें मरने नहीं देंगे.’
वह आगे कहते हैं, ‘उन्हें देखकर मुझे लगा कि हम भी इस स्थिति में रहेंगे तो लोग मेरा भी इलाज कराएंगे. मरेंगे तो दाह संस्कार करेंगे. लेकिन, हमने सोचा कि जिंदगीभर हमने समाज के लिए काम किया. दबे-कुचले लोगों की आवाज बने. विधायक रहे तो भी उनकी आवाज रहे. लेखन में भी वही काम कर रहे हैं. 75 की उम्र हो गई. आंखों की रोशनी कमजोर हो रही है. लेखन भी छूट जाए तो इस शरीर का क्या होगा? मर जाएंगे क्या लोग सिर्फ दाह संस्कार करेंगे? भोज खाएंगे?’
अपनों के काम आएगा ये शरीर
राजेंद्र राजन ने कहा, ‘इसी वजह से हमने सोचा कि अपने शरीर को जिनके लिए हम जिए हैं उनके काम लाएंगे. इसे उनके लिए ही छोड़ना है. मेडिकल के विद्यार्थी चीड़-फाड़ करके कुछ पढ़ लें. कोई अंग काम का हो तो जरूरतमंद को मिल जाए, यही जिंदगी की सबसे बड़ी सार्थकता है. जिंदा रहते हमने जो काम किए, अब चाहते हैं कि मरने के बाद भी वही काम हो.’
आपकी पत्नी ने कैसे अंगदान का निर्णय लिया इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं, पत्नी सुशीला देवी श्रीनगर में मेरे साथ थीं. उन्हीं को मैंने सबसे पहले अंगदान करने की बात बताई. तो उन्होंने कहा कि इस काम को पहले मैं ही करूंगी. इसके बाद आप करिएगा. मैंने उनसे पूछा कि आप ऐसा क्यों करेंगी तो उनका जवाब था, जिंदगीभर लोगों के लिए लड़ते रहे. अब जब कमजोर पड़ रहे हैं. बीमारी आप पर हावी हो रही है तो लिखकर आप संघर्ष कर रहे हैं.
मरने के बाद भी अपने शरीर को दान करना चाह रहे हैं. मैं आपकी पत्नी हूं. आपने जो रास्ता चुना है तो उसी रास्ते पर मैं भी चलूंगी. उनकी दूसरी भावना है कि हमारी तीन बेटियां और एक नतिनी भी डॉक्टर हैं. वो सब चीड़-फाड़ करके किसी लाश से सीख रहे होंगे. हमारे चार बच्चों ने किसी की लाश से डॉक्टरी सीखी हैं तो हमारी लाश से भी कोई बच्चा सीखे. जिंदगी की सबसे बड़ी सार्थकता यही होगी.’
परिवार को राजी करना सबसे बड़ी चुनौती
वह कहते हैं, ‘परिवार को राजी करना सबसे चुनौती थी. मेरा एक ही बेटा है. कह रहा था दुनिया क्या कहेगी. तो मैंने उसे समझाया जिसके बाद वह राजी हो गया. उसने जिम्मेदारी उठा ली है कि शव को वह मेडिकल इंस्टीट्यूट को सौंपेगा. बड़ी बेटी भी हिचकिचा रही थी. मैंने उससे कहा कि लोग क्या कहेंगे ये सोचने पर आज तक दुनिया में कोई बड़ा काम नहीं हुआ. इसलिए इस बात को छोड़ दो. लोग तुमसे सीखें, इसलिए तुम्हें तैयार होना है. इसके बाद सभी बहनों और भाई का एक विचार हुआ कि सभी लोग मिलकर देह दान के लिए जो फॉर्म है उसे जमा करेंगे. 17 मई को मेरे 75वें जन्मदिन पर देशभर के कई साहित्यकार आ रहे हैं. उसी कार्यक्रम में ये फॉर्म हम देह दान समिति को सौपेंगे.’
बात करते हुए वह कहते हैं, ‘मेरी पढ़ाई-लिखाई कम हुई है. बीए सेकेंड ईयर का फॉर्म नहीं भर पाए. उसी पैसे से पार्टी के एक कार्यक्रम में चले गए. और बीए पार्ट-1 के बाद नहीं पढ़ पाए. छात्र जीवन से ही राजनीति में रहा. सीपीआई का सदस्य रहा. साल 1990 में पहली बार बेगूसराय की मटिहानी विधानसभा सीट से भाकपा के टिकट पर विधायक हुआ और इसके बाद लगातार तीन टर्म विधायक साल 2005 तक रहा. इसके बाद प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी का निर्वहन किया और इसी के जरिए समाज के लिए काम कर रहा हूं. अब देह दान करके मरने के बाद की जिम्मेदारी को भी देख रहा हूं.’
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