ब्‍लॉगर

वायु प्रदूषणः घटती जीवन की प्रत्याशा

– योगेश कुमार गोयल

वायु प्रदूषण का प्रभाव मानव शरीर पर निरन्तर घातक होता जा रहा है। वर्ष 1990 तक जहां 60 फीसदी बीमारियों की हिस्सेदारी संक्रामक रोग, मातृ तथा नवजात रोग या पोषण की कमी से होने वाले रोगों की होती थी, वहीं अब हृदय तथा सांस की गंभीर बीमारियों के अलावा भी बहुत-सी बीमारियां वायु प्रदूषण के कारण पनपती हैं। सिर के बालों से लेकर पैरों के नाखून तक अब वायु प्रदूषण की जद में हैं। भारत में वायु प्रदूषण की स्थिति लगातार भयावह हो रही है। अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी के ‘द एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ ने एक अध्ययन के बाद खुलासा किया है कि वायु प्रदूषण के ही कारण भारत में लोगों की औसत आयु कम हो रही है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के निदेशक और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन तथा उनकी टीम जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) पर वायु गुणवत्ता के प्रभाव की ‘एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स’ (एक्यूएलआई) से गणना करने के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुंचे। एक्यूएलआई एक सूचकांक है, जो जीवन प्रत्याशा पर वायु प्रदूषण के प्रभाव की गणना करता है।

रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादा वायु प्रदूषण की वजह से भारतीयों की जीवन प्रत्याशा बहुत तेजी से कम हो रही है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार 5.2 वर्ष और राष्ट्रीय मानकों के अनुसार 2.3 वर्ष कम हो रही है। बांग्लादेश के बाद भारत दुनिया में दूसरा ऐसा देश है, जहां लोगों की उम्र तेजी से घट रही है। इस अध्ययन के अनुसार भारत की कुल 1.4 अरब आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसी जगहों पर रहता है, जहां पार्टिकुलेट प्रदूषण का औसत स्तर डब्ल्यूएचओ के मानकों से ज्यादा है। 84 फीसदी व्यक्ति ऐसी जगहों पर रहते हैं, जहां प्रदूषण का स्तर भारत द्वारा तय मानकों से अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की एक चौथाई आबादी बेहद प्रदूषित वायु में जीने को मजबूर है और यदि प्रदूषण का स्तर बरकरार रहता है तो उत्तर भारत में करीब 25 करोड़ लोगों की आयु में आठ साल से ज्यादा की कमी आ सकती है।

अध्ययन के मुताबिक लखनऊ सर्वाधिक प्रदूषित शहर है, जहां डब्ल्यूएचओ के मानकों की तुलना में 11.2 गुना अधिक प्रदूषण है और जीवन प्रत्याशा 10.3 वर्ष घट गई है। दिल्लीवासियों की जीवन प्रत्याशा 9.4 साल घट गई है। उत्तर भारत दक्षिण एशिया में सर्वाधिक प्रदूषित हिस्से के रूप में उभर रहा है, जहां पार्टिकुलेट प्रदूषण पिछले 20 वर्षों में 42 फीसदी बढ़ा है और जीवन प्रत्याशा घटकर 8 वर्ष हो गई है। हालांकि अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि भारत ‘नेशनल क्लीन एयर’ कार्यक्रम के तहत वर्ष 2024 तक पार्टिकुलेट प्रदूषण को 20-30 फीसदी तक घटाने के लिए प्रयासरत है लेकिन साथ ही उन्होंने यह कहते हुए चेताया भी है कि अगर भारत अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ तो इसके गंभीर दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

अध्ययन रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप पूरे भारत में वायु प्रदूषण के स्तर में कमी लाई जाए तो भारतीयों की उम्र में औसतन 5.2 साल तक की वृद्धि होगी जबकि दिल्लीवालों की उम्र में 9.4 वर्ष की वृद्धि हो सकती है। बिहार और बंगाल जैसे राज्यों के लोगों की उम्र में सात साल से ज्यादा और हरियाणा के लोगों की उम्र में आठ साल तक की वृद्धि हो सकती है। यदि प्रदूषण में भारत के राष्ट्रीय मानक के अनुरूप भी कमी लाई जाए तो दिल्लीवालों की उम्र 6.5 साल बढ़ सकती है। यदि भारत अगले कुछ वर्षों में प्रदूषण का स्तर 25 फीसदी भी घटा लेता है तो राष्ट्रीय जीवन प्रत्याशा 1.6 वर्ष और दिल्लीवालों की 3.1 वर्ष बढ़ जाएगी।

कुछ समय पूर्व बोस्टन के ‘हैल्थ इफैक्ट इंस्टीच्यूट’ तथा ‘हैल्थ मैट्रिक्स एंड एवल्यूशन’ की प्रदूषण के मनुष्यों की आयु पर पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभावों को लेकर किए गए अध्ययन की रिपोर्ट भी सामने आई थी। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत सहित सभी एशियाई देशों में वायु में घुलनशील प्रदूषणकारी तत्वों पीएम 2.5 की मात्रा निरन्तर बढ़ रही है। अध्ययनकर्ताओं का कहना था कि पीएम 2.5 का स्तर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अफ्रीकी देशों में डब्ल्यूएचओ के मानकों से बहुत ज्यादा है, जिसके कारण दुनियाभर के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन प्रत्याशा में कमी आ रही है। पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट’ द्वारा गत वर्ष कहा गया था कि वायु प्रदूषण से होने वाली घातक बीमारियों के कारण देश में जीवन प्रत्याशा औसतन 2.6 वर्ष घट गई है। सीएसई की उस रिपोर्ट के अनुसार बाहरी पीएम 2.5, ओजोन तथा घर के अंदर का वायु प्रदूषण इस स्थिति के लिए सामूहिक रूप से जिम्मेदार साबित हो रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में आज जन्म लेने वाला कोई भी बच्चा वायु प्रदूषण नहीं होने की तुलना में औसतन 20 माह पहले ही जबकि भारत में जन्मा बच्चा अपेक्षा से 2.6 साल पहले ही दुनिया से चला जाएगा। सीएसई का कहना है कि घर से बाहर और घर के भीतर दोनों ही जगहों पर वायु प्रदूषण जानलेवा बीमारियों को न्यौता दे रहा है, जो भारत में स्वास्थ्य संबंधी सभी खतरों में मौत का अब तीसरा सबसे बड़ा कारण हो गया है। आईसीएमआर की एक रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि वायु प्रदूषण के कारण भारत में औसत आयु घट रही है।

निर्माण कार्यों और ध्वस्तीकरण से निकलने वाले रेत-धूल, सीमेंट के कण तथा सड़कों पर उड़ने वाली धूल को वायु प्रदूषण का बड़ा कारण माना जाता है और इसमें वाहनों से निकलने वाला उत्सर्जन दिल्ली में तो करीब 40 फीसदी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होता है। ऑटोमोबाइल उत्सर्जन, खाना पकाने का धुआं, जंगल की आग, लकड़ी के जलने वाले स्टोव, उद्योगों का धुआं इत्यादि भी वायु प्रदूषण के स्रोत हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि आमतौर पर निर्माण तथा ध्वस्तीकरण से निकलने वाला प्रदूषण तथा सड़क पर उड़ने वाले धूल कणों का आकार बड़ा होता है, जिन्हें ‘पीएम 10’ कहा जाता है। हालांकि ‘पार्टिकुलेट मैटर’ (पीएम 10) के अलावा इससे छोटे प्रदूषण कण ‘फाइन पार्टिकुलेट मैटर’ (पीएम 2.5) भी पर्यावरण को प्रदूषित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। यह भी जान लें कि पार्टिकुलेट मैटर (कण प्रदूषण) वास्तव में होता क्या है? यह वातावरण में उपस्थित ठोस कणों और तरल बूंदों का मिश्रण है। हवा में मौजूद ये कण इतने छोटे होते हैं, जिन्हें नग्न आंखों से देखना संभव नहीं होता और कुछ कण तो इतने छोटे होते हैं, जिन्हें केवल माइक्रोस्कोप के जरिये ही देखा जा सकता है। ये कण अनायास ही फेफड़ों में चले जाते हैं, जो खांसी, अस्थमा, उच्च रक्तचाप, हृदयाघात तथा कई अन्य गंभीर बीमारियों का कारण बनते हैं। डब्ल्यूएचओ के दिशा-निर्देशों के अनुसार हवा में महीन कणों के रूप में मौजूद प्रदूषक तत्व पीएम 2.5 का स्तर 10 माइक्रोन प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए, वहीं पीएम 10 का स्तर 20 माइक्रोन प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए। हालांकि भारतीय मानकों में पीएम 2.5 का स्तर प्रति घन मीटर 40 माइक्रोग्राम निर्धारित है।

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार देश में होने वाली संक्रामक बीमारियों में सांस संबंधी बीमारियों का प्रतिशत करीब 69 फीसदी है और देशभर में 23 फीसदी से भी ज्यादा मौतें अब वायु प्रदूषण के कारण ही होती हैं। विभिन्न रिपोर्टों में यह तथ्य भी सामने आया है कि भारत में लोगों पर पीएम 2.5 का औसत प्रकोप 90 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है। पिछले दो दशकों में देशभर में वायु में प्रदूषक कणों की मात्रा में करीब 69 फीसदी तक की वृद्धि हुई है और जीवन प्रत्याशा सूचकांक, जो 1998 में 2.2 वर्ष कम था, उसके मुकाबले अब शिकागो यूनिवर्सिटी के अध्ययन के अनुसार 5.2 वर्ष तक कमी आई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि वायु की गुणवत्ता में सुधार कर इस स्थिति को और बिगड़ने से बचाया जा सकता है। माइकल ग्रीनस्टोन का कहना है कि वायु प्रदूषण पर अब गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है ताकि करोड़ों-अरबों लोगों को अधिक समय तक स्वस्थ जीवन जीने का हक मिल सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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