ब्‍लॉगर

सारे चुनाव एक साथः बहस चले

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

संविधान-दिवस पर यह मांग फिर उठी है कि देश में सारे चुनाव एकसाथ करवाए जाएं। 1952 से 1967 तक यही होता रहा। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एकसाथ होते रहे। इनमें प्रायः सर्वत्र कांग्रेस ही सरकार बनाती रही लेकिन 1967 से हालात बदलने लगे। कई राज्यों में सरकारें गिरती-उठती-बदलती रहीं। अब ढर्रा ऐसा बिगड़ा कि पांच साल क्या, हर साल और उससे भी ज्यादा लगभग हर महीने देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। पंचायतों, नगरपालिकाओं और नगर-निगमों के चुनावों में भी लाखों-करोड़ों रु. खर्च होते हैं और विभिन्न पार्टियों के बड़े-बड़े नेता भी उनमें सक्रिय हो जाते हैं।

इसका नतीजा क्या होता है? पहला, देश और प्रदेश का शासन चलाने से हमारे नेताओं का ध्यान हटता है। दूसरा, चुनावी खर्च बहुत बढ़ जाता है। 2019 के अकेले संसदीय चुनाव में 55 हजार करोड़ रु. के खर्च का अनुमान है। अलग-अलग चुनावों का खर्च सब मिलाकर इससे कई गुना हो जाता है। तीसरा, चुनाव के लिए पैसा जुटाने के लिए भ्रष्टाचार का झरना बह निकलता है। चौथा, चुनावी दंगल में कई नैतिक-अनैतिक, जातीय और मजहबी पैंतरे सभी दल मारते हैं। इन पैंतरों की धारावाहिकता कभी रुकती नहीं, क्योंकि आए दिन कोई न कोई चुनाव होता रहता है। इसीलिए पिछले कई वर्षों से यह मांग उठ रही है कि देश की समस्त विधायी संस्थाओं के चुनाव एक साथ करवाए जाएं।

मैं भी इस मांग का कई वर्षों से समर्थन कर रहा हूं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मांग को बार-बार उठा रहे हैं लेकिन जो इस मांग के विरुद्ध हैं, उनके भी कुछ ठोस तर्क हैं। उनका पहला तर्क है कि मोदी का जोर इस मांग पर इसलिए है कि आजकल पूरे देश में राष्ट्रीय स्तर का कोई विपक्षी नेता है नहीं, जो मोदी को टक्कर दे सके। इसीलिए एकसाथ चुनाव हुए तो केंद्र में तो भाजपा सरकार बनाएगी ही, सभी राज्यों में भी वह छा जाएगी। लेकिन मेरा कहना है कि इसका उल्टा भी तो हो सकता है! 1977 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस का क्या हुआ था?

दूसरा, यदि सभी निकायों के चुनाव एकसाथ होंगे तो स्थानीय और प्रांतीय महत्व के मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों के साथ गुम हो जाएंगे। यह संभव है लेकिन ऐसा असाधारण स्थितियों- युद्ध, महामारी, अकाल या सर्वोच्च नेता की हत्या- आदि में ही होता है। ऐसा कई बार हुआ है कि राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव एकसाथ होने पर भी नतीजे अलग-अलग आए हैं। तीसरा, दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के लगभग 90 करोड़ मतदाता यदि एक साथ लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका और पंचायत के लिए वोट डालेंगे तो क्या उनका दिमाग हिचकोले नहीं खा जाएगा और उनकी गिनती कैसे होगी? भारत का नागरिक काफी जागरूक है और अब तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि मतगणना कठिन नहीं होगी।

चौथा, यदि विधानसभाएं और लोकसभा बीच में ही और अलग-अलग समय में भंग हो गईं तो उनके चुनाव एकसाथ कैसे होंगे? पांच साल की निश्चित अवधि के पहले उन्हें भंग न करने का संवैधानिक संशोधन करना होगा और वैकल्पिक सरकार बने बिना चलती सरकार का हटना संभव नहीं होगा। यह विषय ऐसा है, जिसपर देश में जमकर बहस चलनी चाहिए।

(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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