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चार्ली चैपलिनः दुनिया वालों मेरी मृत्यु पर आंसू न बहाओ, ठहाके लगाओ

चार्ली चैपलिन के जन्मदिवस (16 अप्रैल) पर विशेष
 
योगेश कुमार गोयल
इंसान के जीवन में हंसी न हो तो इंसान और जानवर में भला क्या फर्क रह जाएगा। कुछ इंसान ऐसे भी होते हैं, जो खुद भले ही कितने भी दुखी हों, दूसरों को हंसाने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। एक शख्स ऐसा भी हुआ है, जिसने अपना समस्त जीवन लोगों का स्वस्थ मनोरंजन करने और उन्हें हंसाने-खिलखिलाने में ही बिता दिया। काले बाल, सिर पर पुराना हैट, हिटलर जैसी तितलीनुमा मूछें, नेपोलियन जैसा चेहरा, नीली आंखें, गोरा रंग, थैले जैसी ढ़ीली-ढ़ाली लंबी पतलून, चुस्त जैकेट, हाथ में लोचदार छड़ी, पंजों से काफी बड़े आकार के जूते अर्थात् बिल्कुल जोकर जैसा पहनावा। जी हां, हम बात कर रहे हैं हास्य के मसीहा चार्ली चैपलिन की। हास्य भरे अभिनय से अपनी विशेष पहचान बनाकर दुनियाभर के सिने दर्शकों का चहेता बना चार्ली चैपलिन नामक यह शख्स भले ही अब हमारे बीच नहीं है किन्तु उसकी विश्वव्यापी शख्सियत से छोटे-छोटे बच्चे भी परिचित मिल जाएंगे। अपने 75 वर्ष लंबे फिल्मी कैरियर में चार्ली चैपलिन ने बगैर कुछ बोले जिंदगी की त्रासदियों से हंसने की बेजोड़ कला ईजाद की थी।
हंसी के इस जादूगर ने आजीवन अपने मूक अभिनय से लोगों का मनोरंजन तो किया ही, समय-समय पर कई ऐसे उद्धरण भी प्रस्तुत किए, जो लोगों को जीने की राह दिखलाते हुए समूची दुनिया के लिए मिसाल बन गए। उनका कहना था, ‘‘मुझे बारिश में चलना पसंद है क्योंकि उसमें कोई भी मेरे आंसू नहीं देख सकता। जिंदगी दूर से देखने पर ट्रेजडी लगती है लेकिन पास से देखने पर कॉमेडी। इस अजीबोगरीब दुनिया में स्थायी कुछ भी नहीं है, यहां तक कि परेशानियां भी नहीं।’’
16 अप्रैल 1889 को दक्षिणी लंदन की कैनिंगटन नामक एक गंदी बस्ती के एक छोटे से घर में जब चार्ल्स स्पैन्सर चैपलिन नामक बच्चे का जन्म हुआ था, तब इसी बस्ती के ही एक बुजुर्ग ने इस बच्चे के बारे में कहा था कि यह लड़का बहुत मनहूस है क्योंकि यह उसी दिन पैदा हुआ है, जिस दिन ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। तब किसे मालूम था कि जिस बालक को सिर्फ इस वजह से मनहूस करार दिया जा रहा है कि वह ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के दिन जन्मा, एकदिन वह चार्ली चैपलिन के नाम से अपने मूक अभिनय और अनूठी हास्य शैली से करोड़ों दिलों का चहेता बन जाएगा। 
चार्ली बचपन में बहुत बीमार रहते थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। कहा जाता है कि उस दौरान उनकी मां अक्सर खिड़की के पास खड़ी होकर उन्हें बताती रहती थी कि बाहर क्या घटित हो रहा है। इसे भी उनके कॉमेडियन बनने का एक प्रमुख कारण माना जाता है। चार्ली अपनी अनोखी अभिनय प्रतिभा के बूते पर इतने विख्यात हो चुके थे कि उनके प्रशंसक उनके पास अपने पत्र भेजने के लिए पत्रों पर चार्ली का पता लिखने के बजाय पते के स्थान पर सिर्फ चार्ली के हैट और छड़ी जैसी ही तस्वीर बना देते थे और बगैर पते के ही ये पत्र चार्ली तक पहुंच जाया करते थे। अजब संयोग कि जहां कैनिंगटन की उस बस्ती में एक बुजुर्ग ने चार्ली को मनहूस करार दिया था, वहीं एक मशहूर पादरी ने चार्ली के बारे में कहा था कि यह बहुत किस्मत वाला है और सीधे स्वर्ग जाएगा। यह भी बड़ा अजीब संयोग था कि चार्ली का जन्म उस दिन हुआ था, जब ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था और मृत्यु उस दिन, जब ईसा मसीह का जन्म हुआ था।
चार्ली के माता-पिता जगह-जगह घूम-घूमकर गा-बजाकर अपनी कला का प्रदर्शन कर किसी तरह अपने परिवार का गुजर-बसर किया करते थे। जब चार्ली 7 वर्ष के हुए तो उनके पिता का देहांत हो गया। पिता के चले जाने के बाद मां भी बीमार पड़ गई, इसलिए परिवार के समक्ष दो जून की रोटी के भी लाले पड़ने लगे। मां की बीमारी के इलाज तथा दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए चार्ली और उनके बड़े भाई सिडनी ने पिता के कई यार-दोस्तों से काम मांगा किन्तु कहीं से मदद न मिली। उन्हीं दिनों चार्ली के पिता के एक दोस्त ने जगह-जगह घूम-घूमकर लघु नाटक और लोक संगीत पेश करने के लिए ‘एट लंकाशायर लैंड्स’ नामक एक मंडली बनाई थी, जिसमें चार्ली और उनके बड़े भाई सिडनी सहित कुल 8 बच्चों को काम मिल ही गया। बच्चों की कड़ी मेहनत आखिर रंग लाने लगी और देखते ही देखते यह नाटक मंडली प्रसिद्धि पाने लगी। इन आठों बच्चों में सबसे ज्यादा चार्ली का ही अभिनय लोगों द्वारा पसंद किया जाने लगा। कुछ वर्ष तक इसी नाटक मंडली में काम करने के बाद चार्ली को लंदन के बड़े थियेटरों से बुलावा आने लगा और आखिरकार चार्ली ने यह नाटक मंडली छोड़कर लंदन के वेस्ट एंड थियेटरों में नाम और पैसा कमाना शुरू कर दिया।
15 मई 1916 को रिलीज हुई फिल्म ‘द फ्लोरवाकर’ से लेकर 22 अक्तूबर 1917 को रिलीज हुई फिल्म ‘द एडवेंचरा’ तक चार्ली ने करीब डेढ़ वर्ष की इस अवधि में आधे-आधे घंटे की अवधि की कुल 12 फिल्मों में काम किया। इन फिल्मों में अपने व्यक्तित्व, दमदार अभिनय, सम्मोहक अदाकारी के बल पर चार्ली ने अपार ख्याति और दौलत अर्जित की। उसके बाद तो वह दर्शकों का इतना चहेता बन गया कि लोग उसकी एक झलक देखने को बेताब होने लगे। 1921 में चार्ली ने खुद ‘द किड’ नामक एक फिल्म बनाई, जिसका उन्होंने लेखन और निर्देशन तो स्वयं किया ही, उसमें अभिनय भी किया। इसके बाद तो चार्ली हर दिल अजीज बन गए। चार्ली की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि वह अपनी फिल्मों में दुख और संकट की स्थिति होते हुए भी फिल्म को हास्य में प्रस्तुत करके दर्शकों को खींचने की अद्भुत कला में माहिर थे। उन्होंने अपनी ज्यादातर फिल्मों में आम आदमी के कटु सत्यों, परेशानियों और अनुभवों को ही अभिनीत किया। 1925 में बनी फिल्म ‘द गोल्डरश’ की लंबाई बढ़ाकर चार्ली ने 9 रील कर दी। इस फिल्म में उन्होंने दर्शाया था कि धन कमाने की लालसा में व्यक्ति किस कदर पागल हो जाता है।
यूं तो चार्ली की सभी फिल्मों में उनकी अदाकारी सराहनीय रही किन्तु चार्ली द्वारा बनाई गई फिल्मों ‘ए वूमन ऑफ पेरिस’, ‘द गोल्ड रश’, ‘द सर्कस’, ‘सिटी लाइट्स’, ‘द ग्रेट डिटेक्टर’, ‘मॉन्सर बर्ड’, ‘लाइम लाइट’ इत्यादि फिल्में बहुत सराही गई। चार्ली 6 जुलाई 1925 को ‘टाइम’ मैग्जीन के कवर पर आने वाले विश्व के पहले अभिनेता थे।
सन् 1928 में हालांकि मूक फिल्मों का दौर खत्म हो गया था तथा बोलती फिल्मों की शुरूआत हो चुकी थी किन्तु चार्ली ने इस बात की परवाह नहीं की। 1940 तक अपनी सभी फिल्मों में उन्होंने मूक अभिनय ही किया क्योंकि चार्ली का कहना था कि जब उनका चेहरा ही सबकुछ बोलने में सक्षम है तो वह संवाद बोलने के लिए अपनी आवाज का सहारा क्यों लें? 1967 में यूनिवर्सल के बैनर तले बनी फिल्म ‘ए काउंटेस फ्रॉम हांगकांग’ चार्ली की अंतिम फिल्म थी। अपने लंबे फिल्म कैरियर में चार्ली ने छोटी और बड़ी अवधि की कुल 81 फिल्में की और अपने हास्य भरे अभिनय से दुनिया वालों का स्वस्थ मनोरंजन किया तथा जीवन में मुश्किलों का भी हंसते-हंसते सामना करने का मूलमंत्र प्रदान किया। अपने हास्य अभिनय के जरिये ही चार्ली ने अपनी फिल्मों में राजनीति में फैली गंदगी तथा बुराईयों और समाज के दूषित माहौल को भी निशाना बनाया लेकिन खुद राजनीति से सदा दूर ही रहे।

चार्ली 40 वर्षों तक अमेरिका में रहे किन्तु उन्होंने कभी अमेरिका की नागरिकता हासिल नहीं की। फिल्मों में काम करने में सिलसिले में वह अमेरिका में आकर बसे थे किन्तु जब वह 1952 में यूरोप की यात्रा पर थे, तब अमेरिकी सरकार ने कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर उनके अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसके बाद चार्ली ने भी अमेरिका में कभी वापस न लौटने का निर्णय लिया तथा स्विट्जरलैंड में ही बस गए। उसके बाद 1972 में ही वह ऑस्कर पुरस्कार लेने के लिए अमेरिका गए थे।
25 दिसम्बर 1977 को प्रातः 9 बजे स्विट्जरलैंड के विवे नामक क्षेत्र में जिनेवा झील के किनारे बने चार्ली के आलीशान बंगले में चार्ली का देहावसान हुआ। हास्य का मसीहा हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से विदा हो गया लेकिन अपने पीछे दुनिया में अनेक अमिट यादें छोड़ गया, जो कभी भुलाई नहीं जा सकेंगी। अपनी आत्मकथा में चार्ली ने खुद भी यही लिखा था, ‘‘दुनिया वालों, मेरी मृत्यु पर आंसू न बहाओ बल्कि ठहाके लगाओ। यही मेरे प्रति तुम्हारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।’’
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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