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दिग्विजय भोपाल से नहीं लड़ना चाहते थे चुनाव, लेकिन आलाकमान के इस फैसले के बाद हुए राजी, पढ़े पूरी कहानी

भोपाल (Bhopal) । ये 2019 के मार्च के महीना था. 15 साल पुरानी बीजेपी सरकार (BJP government) को सत्ता से बेदखल करने के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ (Kamal Nath) बेहद उत्साह में थे. लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) सिर पर थे और कांग्रेस (Congress) को पता था कि अब उसका मुकाबला ‘मोदी मैजिक’ से है. कमलनाथ चाहते थे कि मध्य प्रदेश की बड़ी सीटों पर कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा जाए. उन्हें इसके लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को मनाना कोई कठिन काम नहीं था. फैसला हो गया कि मुकाबला बड़ा है, इसलिए लोकसभा चुनाव में बड़े नाम उम्मीदवार होने चाहिए.

भोपाल से चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे दिग्विजय
मध्य प्रदेश की राजनीति के कांग्रेस के सबसे दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) के खाते में राजधानी भोपाल की सीट आई. हालांकि, दिग्विजय सिंह लोकसभा चुनाव लड़ने के बिल्कुल भी इच्छुक नहीं थे लेकिन राजनीति की बिसात ऐसी बिछाई गई थी कि उन्हें मजबूरी में भोपाल से नामांकन दाखिल करना पड़ा. इसके बाद 16 साल के लंबे अंतराल के पश्चात चुनावी राजनीति में वापसी कर रहे दिग्विजय सिंह के लिए मुकाबला एक बुरा सपना साबित हुआ. दिग्विजय सिंह अपने जीवन का दूसरा चुनाव हारे.


मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार काशीनाथ शर्मा बताते हैं कि कमलनाथ लगातार 2019 के लोकसभा चुनाव में भोपाल से दिग्विजय सिंह के चुनाव लड़ने का ऐलान कर रहे थे, लेकिन एक खांटी नेता की तरह उनकी इस चाल को भांपते हुए वे बहुत होशियारी से बात को टाल जाते थे. माना जा रहा था कि दिग्विजय जीते तो कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में उनका रुतबा बढ़ेगा. इससे कमलनाथ को दोनों स्थितियों में फायदा होना था. दिग्गी जीते तो दिल्ली जाएंगे और हारे तो चुपचाप घर बैठेंगे. आखिरकार दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा बिछाए चक्रव्यूह में फंस गए.

दरअसल, 72 साल के दिग्विजय सिंह ने पिछला चुनाव 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा का लड़ा था. वैसे, दिग्विजय सिंह लगातार कह रहे थे कि राज्यसभा में मेरा कार्यकाल 2020 तक है. फिर भी अगर पार्टी चाहती है कि मैं चुनाव लड़ूं तो मेरी प्राथमिकता राजगढ़ लोकसभा सीट है. हालांकि, मैंने बता दिया है कि जहां से पार्टी कहेगी वहां से लड़ूंगा.

दो बार लोकसभा सांसद रहे दिग्विजय सिंह
दरअसल, यह राजनीतिक पासा उस वक्त के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने फेंका था. उन्होंने कहा था कि बड़े नेताओं को मुश्किल सीटों से लड़ना चाहिए. इसके बाद ही दिग्विजय कहीं से भी लड़ने को तैयार हो गए थे. दिग्विजय सिंह इसके पहले दो बार 1984 और 1991 में राजगढ़ से लोकसभा सदस्य रह चुके हैं. वहीं, 1989 में उन्हें राजगढ़ से ही बीजेपी के प्यारेलाल खंडेलवाल से हार का मुंह देखना पड़ा था.

खैर, दिग्विजय सिंह कमर कस कर भोपाल लोकसभा सीट से मैदान में उतर गए. जब तक बीजेपी ने अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया था, तब तक उनकी जीत के लिए तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे थे. भोपाल लोकसभा के अंतर्गत 8 विधानसभा क्षेत्र आते हैं. 2018 के विधानसभा में कांग्रेस को इन 8 में से तीन सीटों भोपाल उत्तर, भोपाल मध्य और भोपाल दक्षिण-पश्चिम पर जीत मिली थी. वहीं, बीजेपी को 5 सीटें बैरसिया, हुजूर, नरेला, गोविंदपुरा और सीहोर मिली थी. इसके बावजूद मुसलमान वोटों की संख्या अधिक होने कारण कहा जा रहा था कि दिग्विजय सिंह 30 साल बाद कांग्रेस को भोपाल से जीत दिला सकते हैं.

बीजेपी ने चला दांव
अब दांव चलने की बारी बीजेपी की थी. पहले चर्चा थी कि बीजेपी अपने वर्तमान सांसद आलोक संजर का टिकट काटकर पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को दिग्विजय सिंह के खिलाफ मैदान में उतार सकती है, क्योंकि उमा भारती भारती ही थी, जिन्होंने 2003 में दिग्विजय सिंह के 10 साल के शासन को उखाड़ फेंका था. ऐन मौके पर बीजेपी ने मालेगांव बम ब्लास्ट केस में आरोपी रहीं साध्वी प्रज्ञा यानी प्रज्ञा सिंह को उम्मीदवार बनाकर चुनाव को हिन्दू विरोधी विरुद्ध उग्र हिंदुत्व कर दिया.

आरएसएस और बीजेपी ने इस चुनाव को अपनी नाक की लड़ाई बना दिया. उन्होंने दिग्विजय सिंह को हिंदू विरोधी बताकर अपना चुनाव प्रचार अभियान शुरू किया. जैसे से प्रचार आगे बढ़ा साध्वी प्रज्ञा ने विक्टिम कार्ड खेलते हुए खुद को हिंदुत्व का प्रतीक बताया. आरएसस और बीजेपी के इस प्रचार अभियान से दिग्विजय सिंह चक्रव्यू की तरह फंस गए और अंत में उन्हें साढे तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से हार का सामना करना पड़ा.

साध्वी प्रज्ञा ने इस चुनाव ‘धर्म युद्ध’ बताया और कहा कि उन्हें ‘बाबरी मस्जिद को गिराने में सहयोग करने पर गर्व है.’ वहीं, दिग्विजय सिंह ने भी प्रचार के दौरान कई मंदिरों का दौरा किया. कंप्यूटर बाबा के नेतृत्व में सैकड़ों साधुओं ने ‘हठ योग’ किया. इसके जरिए दिग्विजय ने प्रज्ञा ठाकुर के हिंदुत्व के दांव को कुंद करने की कोशिश की लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पाए. उन्हें अपने राजनीतिक जीवन की दूसरी चुनावी हार का सामना करना पड़ा.

30 साल से जीत रही बीजेपी
यहां बताते चले कि भोपाल सीट 30 साल से बीजेपी का गढ़ थी. 1984 में केएन प्रधान कांग्रेस के टिकट पर भोपाल सीट से जीते थे. 1989 से यहां बीजेपी जीत रही थी. अब तक हुए 17 चुनाव में सिर्फ 5 बार कांग्रेस यहां जीत दर्ज कर पाई है. बीजेपी नेता उमा भारती और कैलाश जोशी भी भोपाल से सांसद रहे है. ये दोनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. साध्वी प्रज्ञा ने कांग्रेस के दिग्गज नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को 3 लाख 64 हजार 822 वोटों के अंतर से हराया.

दिग्विजय सिंह का राजनीतिक सफर
बता दें कि दिग्विजय सिंह 1971 में सक्रिय राजनीति में में आए, जब वह निर्दलीय चुनाव लड़कर राघोगढ़ नगर पालिका के अध्यक्ष बने. इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी जॉइन कर ली. 1977 में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीत कर राघोगढ़ विधानसभा क्षेत्र से विधायक बन गए. 1978-79 में दिग्विजय को प्रदेश युवा कांग्रेस का महासचिव बनाया गया. 1989 में राघोगढ़ से चुनाव जीतने के बाद दिग्विजय को अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री का पद दिया गया. बाद में उन्हें कृषि विभाग दिया गया. 1984 और 1991 में दिग्विजय को राजगढ़ से लोकसभा चुनाव में विजय मिली.1993 और 1998 में इन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. फिलहाल दिग्विजय सिंह दूसरी बार राज्यसभा सदस्य हैं.

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