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गणेश शंकर विद्यार्थी: जिनकी लेखनी से कांपती थी अंग्रेज सरकार

– योगेश कुमार गोयल

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता जगत के ऐसे महान पुरोधा थे, जिनकी लेखनी से ब्रिटिश सरकार इस कदर भयभीत रहती थी कि क्रांतिकारी लेखन के लिए उन्हें पांच बार सश्रम कारावास और अर्थदंड की सजा दी गई। उनके लेखों में ऐसी गजब की ताकत थी कि उनकी पत्रकारिता ने ब्रिटिश शासन की नींद हराम कर दी थी। बेमिसाल क्रांतिकारी पत्रकारिता के कारण ही गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार ‘प्रताप’ आज के दौर में भी पत्रकारिता जगत के लिए आदर्श माने जाते हैं।

गणेश शंकर विद्यार्थी एक निर्भीक पत्रकार, समाजसेवी, महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे स्वयं तो एक उच्च कोटि के पत्रकार थे ही, उन्होंने अनेक युवाओं को लेखक, पत्रकार तथा कवि बनने की प्रेरणा और ट्रेनिंग दी। कांग्रेस के विभिन्न आन्दोलनों में भाग लेने तथा ब्रिटिश सत्ता के अत्याचारों के विरूद्ध ‘प्रताप’ में निर्भीक लेख लिखने के कारण वे पांच बार जेल गए। जब भी उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तार किया जाता तो उनकी अनुपस्थिति में ‘प्रताप’ का सम्पादन माखनलाल चतुर्वेदी तथा बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ सरीखे साहित्य के दिग्गज संभाला करते थे।

26 अक्तूबर 1890 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में एक स्कूल हेडमास्टर जयनारायण के घर जन्मे विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा उर्दू तथा अंग्रेजी में हुई। इलाहाबाद में शिक्षण के दौरान ही उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हुआ। हिन्दी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के सम्पादन में वे पंडित सुन्दर लाल की सहायता करने लगे। कानपुर में अध्यापन के दौरान उन्होंने कर्मयोगी सहित कई और अखबारों में लेख लिखे और पत्रकारिता के जरिये स्वाधीनता आन्दोलन से गहरे जुड़ गए। कुछ समय बाद उन्होंने पत्रकारिता, सामाजिक कार्यों तथा स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ाव के चलते ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपना लिया और गणेश शंकर से ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ हो गए। उनकी उत्कृष्ट लेखनशैली से प्रभावित होकर हिन्दी पत्रकारिता जगत के पुरोधा पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1911 में अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उपसम्पादक के पद पर कार्य करने का ऑफर दिया किन्तु विद्यार्थी जी को ज्वलंत समाचारों, समसामयिक तथा राजनीतिक विषयों में ज्यादा दिलचस्पी थी, इसलिए उन्होंने द्विवेदी जी का प्रस्ताव स्वीकारने के बजाय महामना पं. मदन मोहन मालवीय के हिन्दी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ में नौकरी ज्वाइन की।

9 नवम्बर 1913 को उन्होंने एक क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में कानपुर से स्वयं ‘प्रताप’ नामक पत्रिका निकालना शुरू कर दिया। प्रताप के जरिये विद्यार्थी जी किसानों, मजदूरों और ब्रिटिश अत्याचारों से कराहते गरीबों का दुख-दर्द उजागर करने लगे। ब्रिटिश शासनकाल की उत्पीड़न और अन्याय की क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना उनकी पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण अंग था, जो ब्रिटिश हुकूमत को फूटी आंख न सुहाया और इसीलिए अपनी इसी क्रांतिकारी पत्रकारिता का खामियाजा उन्हें कई मुकद्दमों, भारी जुर्माने और कई बार जेल जाने के रूप में भुगतना पड़ा। 1920 में उन्होंने ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण निकालना शुरू कर दिया, जो मूलतः किसानों, मजदूरों और पीडि़तों का हिमायती समाचारपत्र बना रहा। उन्होंने ‘प्रताप’ के अलावा ‘प्रभा’ नामक एक साहित्यिक पत्रिका तथा एक राजनीतिक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन किया।

घटना जनवरी 1921 की है, जब रायबरेली के एक ताल्लुकदार सरदार वीरपाल सिंह ने किसानों पर गोलियां चलावाई थी। ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने उस घटनाक्रम का पूरा विवरण अपने अखबार में छापा, जिसके लिए उन्हें तथा ‘प्रताप’ छापने वाले शिवनारायण मिश्र पर मानहानि का मुकदमा दर्ज किया गया और उन्हें जेल हो गई। 16 अक्तूबर 1921 को विद्यार्थी जी ने स्वयं गिरफ्तारी दी और 22 मई 1922 को जेल से रिहा हुए। जेल में रहते हुए उन्होंने एक डायरी लिखी और रिहाई के बाद उन्होंने उसी पर आधारित ‘जेल जीवन की झलक’ नामक एक ऐसी श्रृंखला छापी, जिसे अत्यधिक पसंद किया गया और ‘प्रताप’ के साथ पाठकों का काफिला जुड़ता गया। उसके बाद तो अंग्रेजों ने उन्हें वक्त-बेवक्त लपेटने का कोई अवसर नहीं छोड़ा लेकिन विद्यार्थी अपने क्रांतिकारी विचारों से जरा भी नहीं डिगे।

जेल से रिहाई के कुछ ही समय बाद भड़काऊ भाषण देने के आरोप में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा फिर गिरफ्तार कर लिया गया और 1924 में तब रिहा किया गया, जब उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था। 1925 में राज्यसभा विधानसभा चुनाव में वे कानपुर से चुने गए और कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की स्वागत-समिति के प्रधानमंत्री भी नियुक्त हुए लेकिन 1929 में उन्होंने पार्टी की मांग पर त्यागपत्र दे दिया, जिसके बाद वे 1930 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुन लिए गए और उन्हें प्रदेश भर में सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व करने की अहम जिम्मेदारी दी गई। उसी दौरान उन्हें फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च 1931 को उनकी जेल से रिहाई हुई।

स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग कर रहे थे लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने दोनों समुदायों की भावनाओं को भड़काने का ऐसा खेल खेला कि जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे भड़कने लगे और देशभर में साम्प्रदायिक हिंसा फैलने लगी। कानपुर शहर भी साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस उठा। गणेश शंकर विद्यार्थी का मन इन दंगों से बड़ा व्यथित हुआ और वे स्वयं इन दंगों को रोकने तथा दोनों समुदायों में भाईचारा कायम करने के लिए लोगों को समझाते हुए घूमने लगे। कई जगहों पर वे लोगों को समझाने में सफल भी रहे और इन दंगों के दौरान उन्होंने हजारों लोगों की जान बचाई भी लेकिन वे स्वयं दंगाइयों की एक ऐसी टुकड़ी में फंस गए, जो उन्हें पहचानते नहीं थे। उसके बाद उनकी बहुत खोज की गई किन्तु वे कहीं नहीं मिले। आखिर में उनका पार्थिव शरीर एक अस्पताल में लाशों के ढेर में पड़ा मिला, जो इतना फूल गया था कि लोग उसे पहचान भी नहीं पा रहे थे। हजारों लोगों की जान बचाने के बावजूद गणेश शंकर विद्यार्थी स्वयं धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गए। इस प्रकार 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी दिए जाने के दो ही दिन बाद देश ने 25 मार्च 1931 को निर्भीक, निष्पक्ष, ईमानदार, यशस्वी व क्रांतिकारी पत्रकार भी खो दिया। 29 मार्च 1931 को उनका अंतिम संस्कार किया गया।

गणेश शंकर विद्यार्थी जीवन पर्यन्त जिस धार्मिक कट्टरता तथा उन्माद के खिलाफ आवाज उठाते रहे, वही धार्मिक उन्माद उनकी जिंदगी लील गया। 27 अक्तूबर 1924 को विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ में ‘धर्म की आड़’ शीर्षक से लेख में लिखा था, ‘‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसे लोग कुछ भी समझते-बूझते नहीं हैं। दूसरे लोग इन्हें जिधर जोत देते हैं, ये लोग उधर ही जुत जाते हैं।’’

वह गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे, जिन्होंने श्याम लाल गुप्त पार्षद लिखित गीत ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ को जलियांवाला हत्याकांड की बरसी पर 13 अप्रैल 1924 से गाया जाना शुरू करवाया था। ऐसे क्रांतिकारी पत्रकार और महान् स्वाधीनता सेनानी को उनके बलिदान दिवस पर शत-शत नमन।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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