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कैसे बनेगा भविष्य का भारत?

– गिरीश्वर मिश्र

वैसे तो जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र जैसी प्राकृतिक रचनाओं से सजी यह सृष्टि परस्पर सम्बद्ध है और सभी तत्व एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं पर पृथ्वी वासी मनुष्य विकास क्रम में सब कुछ का कृत्रिम बंटवारा कर घरौंदों का निर्माण कर उस पर आधिपत्य जमा कर उसके स्वामित्व का भोग करते नहीं अघाते जिसके चलते संघर्ष, हिंसा और युद्ध जैसी घटनाएं होती हैं। इनसे न केवल मनुष्यता को आघात पहुंचता है बल्कि प्राकृतिक परिवेश प्रभावित होता है। आज जलवायु-परिवर्तन जैसी परिघटना के जो परिणाम दिख रहे हैं वे अच्छे भविष्य का संकेत नहीं देते और भेदों को भुला कर एकजुट होकर काम करने के लिए बाध्य कर रहे हैं। देश और राष्ट्र की सत्ता अलग अस्मिता, संप्रभुता की मांग करती है परंतु आज कोई भी देश अन्य देशों से पूरी तरह अलग नहीं रह सकता। भारत ने इस सत्य को पहचाना है और अतीत में हुई गलतियों न हों इसके लिए कमर कसी है। स्वतंत्र भारत ने विभिन्न देशों के साथ बराबरी और भाईचारे का नजरिया अपनाया।

मानवीय दृष्टि वाले गुटनिरपेक्ष भारत को चीन और पाकिस्तान जैसे द्वेष भावना रखने वाले पड़ोसियों से साबका पडा। इनके साथ अबतक हुई कई मुठभेड़ों से भारत ने यह सीखा है कि बदलते माहौल में अपनी सामर्थ्य बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है। साथ ही शक्ति-संतुलन के लिए वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के साथ बहुकोणीय संवाद भी बनाए रखना भी जरूरी है। औद्योगिक-आर्थिक गतिविधि के लिए दूर और नजदीक के देशों के साथ सहयोग जरूरी है। बहु ध्रुवीय होती जा रही दुनिया में अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ कब करवट बदलेंगी यह कहना मुश्किल होता है इसलिए सावधानी के साथ अन्य देशों के साथ दूरियां और नजदीकियां नियमित करनी होती हैं। विगत वर्षों में भारत ने आर्थिक सुधारों के साथ एक नए युग में प्रवेश किया है जब उसे एक प्रमुख अर्थ-तंत्र वाले राष्ट्र के रूप में परिगणित किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले लगभग सभी आर्थिक और राजनैतिक विमर्शों में भारत की सक्रिय भागीदारी रही है। भारत ने पड़ोसियों की मुश्किलों को आसान किया है। कोरोना महामारी के दौरान अनेक देशों को टीका उपलब्ध कराने और नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के विकास कार्यों और बुनियादी ढाँचे के लिए आर्थिक मदद की दृष्टि से भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

एशिया में भारत देश प्रकृति की अद्भुत रचना, अपनी भौतिक समृद्धि और ज्ञान की उत्कृष्टता के लिए प्राचीन काल से ही विदेशियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ था। इस क्रम में वह कइयों की लोलुप दृष्टि का भी केंद्र बनता रहा और अनेक आक्रांताओं ने यहाँ के शांतिप्रिय समाज के जीवन में विघ्न डाला। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो विशाल केंद्रीय शासन-सत्ता के गठन की जगह विकेंद्रित छोटे राज्य या जनपद की व्यवस्था ही यहाँ अधिक प्रचलित थी जहां लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों के पनपने की भी गुंजाइश थी। यहाँ के ऐसे राजनीति के परिदृश्य में आक्रांताओं का एकजुट हो कर तीव्र प्रतिरोध न हो सका और मानव-सुलभ दुर्बलताओं ने भी इसमें भरपूर सहयोग किया। विदेशी राजसत्ता के लगातार हस्तक्षेप की परिणति जो सघन रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकी वह मुग़ल सत्ता की थी जो कई सदियों लम्बी राजनैतिक दखल बन गई और उनकी कई पीढ़ियों ने यहाँ शासन किया जिसके दूरगामी परिणाम हुए। समाज की संरचना क्षत-विक्षत हुई , बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ।

कुछ अंशों में दोतरफ़े पारस्परिक प्रभाव भी पड़े पर सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम बड़े जटिल होते गए। राग द्वेष की विभिन्न धाराओं के बीच अस्मिताओं के द्वंद्व और वर्चस्व की लड़ाई चलती रही। इसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों की अपनी शक्ति के अनुसार सत्ता बनती बिगड़ती रही। इस क्रम में अंग्रेजों के दाख़िले ने जो एक छद्म ढंग से व्यापार के रूप में शुरू हुआ और अंतत: बर्तानवी साम्राज्य के उपनिवेश को स्थापित करने में सफलता पाई। इस घटना ने भारत की समझ को गढ़ने में एक युगांतरकारी असर डाला। भारत का एक नया पाठ, नया आख्यान तो बना ही जीवन के लिए पश्चिमी आधुनिकतावाद एक वैचारिक खाँचे के रूप में इस गहनता प्रतिष्ठित हुआ कि जो कुछ ‘भारतीय’ था वह संदिग्ध और प्रश्नांकित होता गया। यह सब इस तरह हुआ कि ज्ञान, जीवन और परिवेश के प्रति हमारे दृष्टिकोण में बदलाव इस तरह रच बस गया कि यूरो-अमेरिकी जीवन दृष्टि और ज्ञान-वैभव की सांस्कृतिक उपादेयता को बिना बिचारे आत्मसात् करते हुए अपने को इस तरह अनुकूलित करते रहे, बदलते रहे कि खुद को पहचानना ही मुश्किल होने लगा।

पश्चिम के आइने में देख-देख कर हमने अपनी नीतियों को बनाया और उस पर चलते रहे। देखते-देखते स्वतंत्रता मिलाने के बाद तीन चौथाई सदी बीत गई। अब स्वतंत्रता के ‘अमृत महोत्सव’ मनाने के ऐतिहासिक मौके पर देश के सामाजिक- सांस्कृतिक और राजनैतिक अतीत के पुनरावलोकन कर रहा है और इस प्रयास में उस त्याग और बलिदान की गाथा को याद किया जा रहा है जिसकी बदौलत स्वतंत्रता मिल सकी थी। यह कटु सत्य है कि देश के वर्त्तमान ढांचे की शुरुआत अखंड भारत के विभाजन और उसके साथ हुए भीषण रक्तपात के साथ हुई और कुछ चूकें भी हुईं जिनका दंश देश की नियति बन चुकी है । इतिहास पर गौर करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि जो राह चुनी गई और जिस तरह हम चले और चल कर हम जहां पहुंचे उसमें कुछ कमियां थीं और उनसे देश की मुश्किलें बढीं और उसकी जवाबदेही तय करने के बीच विभिन्न राजनैतिक दलों और मतों के अनुयायियों के बीच तल्ख आदान प्रदान भी समय-समय होते रहते हैं।

अब शताब्दी वर्ष यानी 2047 के भारत को शक्तिशाली राष्ट्र का स्वप्न बुनने और उसे देखने-दिखाने के उपक्रम भी शुरू हो गए हैं। राष्ट्रीय गौरव बोध के लिए ऐसा होना भी चाहिए पर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि इस मौके को आमतौर पर होने वाली औपचारिक रस्म अदायगी से बच कर गहन आत्म-मंथन के लिए ख़ास अवसर बनाया जाय। हमें इन मूलभूत प्रश्नों पर गौर करना होगा हमारे लक्ष्य क्या होंगे और हम कौन सा रास्ता अपनाएंगे ? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए भारतीय उप महाद्वीप की भू-राजनैतिक हलचलों और देश की आधार-संरचना और बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि यह देश आज विश्व के ऐसे देशों में गिना जाता है जहां युवा वर्ग का अनुपात अधिक है और उसका उत्पादन और आर्थिक विकास की दृष्टि से देश को बड़ा लाभ मिल सकता है। कृषि के क्षेत्र में भी देश आत्मनिर्भर हो रहा है और स्वास्थ्य, अंतरिक्ष और संगणक के क्षेत्रों में तकनीकी क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय उपलब्धियां दर्ज हुई हैं। दूसरी ओर व्यवस्था की दृष्टि से हमारे कानून, सरकारी लाल फीताशाही और चुनावी राजनीति इस कदर सब पर भारी हो रहे हैं कि आम आदमी ट्रस्ट और हताश हो रहा है।

विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र को एक संघीय ढाँचे में साबुत बनाए रखते हुए संसदीय प्रणाली के मद्देनजर समाज की आकांक्षाओं की पूर्ति की मांग कितनी मुश्किल है यह स्वतंत्रता के बाद हुए प्रदेशों के पुनर्गठन और देश के संविधान में हुए शताधिक संसोधनों से पता चलता है। समाज की वैचारिक रुझान स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में में हो रहे समकालीन आर्थिक-राजनैतिक बदलावों से अप्रभावित नहीं रह सकती। साथ ही सामाजिक विविधताओं के साथ चलने के लिए गतिशील संतुलन की जरूरत पड़ती है जो आज मीडिया और संचार की अति सक्रियता के दौर में अक्सर अपेक्षित और अनपेक्षित ढंग से जटिल रूप ले लेता है। इन सबसे उपजती गहमागहमी के बीच अब देश और राष्ट्र की वह सहज एकता अक्सर पृष्ठभूमि में जाती रहती है जो उसके स्वभाव में है।

कभी स्वातंत्र्य संग्राम में ‘बन्दे मातरम’ की मानसिकता के साथ एक भारत की प्रतिज्ञा के रूप में स्वदेशी, सर्वोदय और स्वावलंबन जैसी आचरणमूलक प्रतिबद्धताएं प्रमुख थीं और चरखा तथा खादी जैसे आर्थिक उपक्रम और बुनियादी तालीम जैसे शैक्षिक कार्यक्रम में उनको व्यावहारिक स्टार पर वरीयता दी जा रही थी । इनके साथ तादात्मीकरण बड़ा प्रखर रूप से प्रकट था। यह सब इस देश की मिट्टी और संस्कृति में अपने मूल स्रोत ढूढ़ कर पहचान रहा था और पा रहा था। पर कुछ ऐसा हुआ कि स्वाधीनता के लक्ष्य को देश के लिए, देश के द्वारा और देसी ढंग से आकार देने की कोशिश स्वाधीनता मिलने के बाद पलट सी गई। आर्थिक विकास देश की रीढ़ है पर आर्थिक विकास समाज और संस्कृति से परे नहीं हो सकता। आज अर्थ की स्वतन्त्र और सर्वोच्च प्रतिष्ठा से उपजी लिप्सा अपराध, धोखा, और जन-धन की हानि आदि विभिन्न रूपों में जिस तरह प्रकट हो रही है वह मूल्यहीनता और सामाजिक संवेदनशीलता के अभाव के संकट की ओर संकेत करती है। यदि आर्थिक दृष्टि से समृद्ध कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य हमें पाना है तो चरित्रवान और कुशल उद्यमशील समाज का निर्माण जरूरी होगा।

हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत अंग्रेजों का उपनिवेश था और जब एक उपनिवेश स्वतन्त्र होता है तो एक स्वतन्त्र यानी स्वायत्त देश के रूप में उसके सामने अपने को परिभाषित करने की और सामाजिक जीवन को अपने ढंग से संचालित करने की चुनौती खड़ी होती है। उसके सामने कई विकल्प होते हैं पर जो भी चुनाव होता है उसके दूरगामी परिणाम होते हैं। हमारी मुसीबत कुछ ज्यादा ही बढ़ चली थी क्योंकि हमने सोच विचार के चौखटे और पैमाने औपनिवेशिक व्यवस्था से ही उधार लिए थे और उनमें विश्वास भी था क्योंकि भारत-भूमि में ही वे जांचे परखे जा चुके थे। कह सकते हैं कि हम उसी में खो से गए थे। जो कुछ भी मिला और जिस रूप में मिला उसे स्वीकार कर लिया और उससे बाहर निकलने की कोई मशक्कत नहीं की। ख़ास तौर पर सामाजिक, शैक्षिक और कानून व्यवस्था के क्षेत्र में हमने अंग्रेजों का माडल अंगीकार कर लिया और उसी औपनिवेशिक तंत्र की परिधि में इन्डियन (भारतीय!) लोक तंत्र को चलाना शुरू किया। उससे परिचित होने के कारण सुभीता भी था और सब कुछ विना किसी परेशानी के पूर्ववत ही चलता रहा। लालफीताशाही अभी भी हमारी व्यवस्था पर बुरी तरह से हावी रही।

भारत ने वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति मजबूत की है परन्तु देश के भीतर आज शिक्षा, कानून या व्यवस्था के तंत्र की गुणवत्ता और प्रासंगिकता के लिए आधारभूत संरचना को दृढ बनाना आवश्यक हो गया है। यह तभी हो सकेगा जब देश के विकास और समाज की उन्नति को ध्यान में रख कर आचरण की शुद्धता और मानकों के अनुपालन के लिए कठोर नियम अपनाए जायें। तभी सच्ची स्वाधीनता मिल सकेगी।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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