नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक असाधारण और मानवीय दृष्टिकोण (Human perspective) वाले फैसले में उस युवक की दस साल की सजा रद्द कर दी, जिसे एक ऐसे मामले में दोषी ठहराया गया था. अदालत ने अंततः ‘सहमति से बने रिश्ते की गलतफहमी’ करार दिया. शीर्ष अदालत ने कहा कि यह उन दुर्लभ मामलों में से है, जहां न्याय ‘छठी इंद्री’ के आधार पर हुआ.
क्या है पूरा मामला?
मामला दरअसल दो लोगों की दोस्ती और उनके बीच बने प्रेम‑संबंध से शुरू हुआ था. दोनों की पहचान 2015 में सोशल मीडिया के जरिए हुई. संबंध धीरे‑धीरे गहराते गए और आपसी सहमति से शारीरिक रिश्ते भी बने. लड़की और उसके परिवार को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि शुरुआत से ही शादी की बात आगे बढ़ रही थी. लेकिन समय के साथ कुछ परिस्थितियां बदलीं. शादी की तारीख टलती गई, जिससे लड़की के मन में असुरक्षा पैदा होने लगी और उसने 2021 में युवक के खिलाफ IPC की धारा 376 और 376(2)(n) के तहत गंभीर आरोप लगाते हुए FIR दर्ज करा दी.
ट्रायल कोर्ट ने सुनाई 10 साल की सजा
ट्रायल कोर्ट ने इस शिकायत को स्वीकार करते हुए युवक को 10 साल की सश्रम कैद की सजा सुनाई. युवक ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां से भी राहत नहीं मिली. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और यहीं से इस केस ने एक बिल्कुल अलग मोड़ लिया.
जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की दो‑जजों की बेंच ने मार्च में नोटिस जारी किया. सुनवाई के दौरान उन्हें यह महसूस हुआ कि मामला कानूनी से ज़्यादा मानवीय है और इसकी सटीक प्रकृति समझने के लिए सिर्फ दस्तावेज पर्याप्त नहीं हैं. इसलिए अदालत ने एक अनोखा कदम उठाते हुए पीड़िता, आरोपी और दोनों पक्षों के माता‑पिता को सुप्रीम कोर्ट में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया.
शादी के लिए कोर्ट ने दी जमानत
जुलाई में सभी पक्ष अदालत में पेश हुए. जजों ने चैंबर में निजी तौर पर उनसे बात की. बातचीत में यह साफ हुआ कि दोनों के बीच रिश्ता वास्तव में सौहार्दपूर्ण था और शिकायत की जड़ गलतफहमियों और शादी टलने से उपजी असुरक्षा थी. जब दोनों ने जजों से कहा कि वे विवाह करना चाहते हैं और दोनों परिवारों ने भी इसकी पुष्टि की तो अदालत ने आरोपी को शादी करने के लिए विशेष जमानत दे दी.
सफल हुई शादी तो कोर्ट ने केस किया खत्म
जुलाई में दोनों की शादी हो गई. फिर दिसंबर में केस को दोबारा सूचीबद्ध किया गया, जहां कोर्ट को बताया गया कि दंपत्ति सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहा है. यही वह क्षण था जब अदालत ने इस लंबे, उलझे और भावनात्मक रूप से भारी मामले को अंतिम रूप दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला असाधारण है. क्योंकि इसमें जमानत मांगने आया व्यक्ति अंततः अपनी दोषसिद्धि और सजा, दोनों से पूरी तरह मुक्त हो गया. पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए कहा कि न्याय तभी संपूर्ण माना जाएगा जब स्थिति की वास्तविकता को समझकर समाधान निकाला जाए. अदालत ने माना कि यह मुकदमा मूलतः सहमति पर आधारित रिश्ते का ही विस्तार था, जिसे गलतफहमियों ने अपराध का रूप दे दिया.
कोर्ट ने नौकरी भी वापस दिलाई
अदालत ने सिर्फ सजा रद्द नहीं की, बल्कि आरोपी की नौकरी पर पड़े असर को भी ठीक किया. युवक सरकारी अस्पताल में कार्यरत था और केस के चलते निलंबित कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि उसकी नौकरी बहाल की जाए और निलंबन अवधि का पूरा बकाया वेतन भी दिया जाए. मध्य प्रदेश के सागर जिले के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (CMO) को निलंबन आदेश वापस लेने का निर्देश दिया गया.
SC के फैसले के मायने
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक आपराधिक मामले का अंत नहीं है. यह न्याय प्रणाली के उस मानवीय पहलू की भी ओर इशारा करता है, जहां अदालतें सिर्फ कानून की भाषा नहीं, बल्कि जिंदगी की वास्तविकताओं और रिश्तों की जटिलताओं को भी समझने की कोशिश करती हैं.
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