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लाकडाउन के दौरान सिजेरियन डिलीवरी में कमी

– डा. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

परिस्थितियां कैसे बदलती हैं इसका जीता-जागता उदाहरण चिकित्सालयों में सिजेरियन डिलीवरी के तेजी से घटते आंकड़ों से समझा जा सकता है। लाॅकडाउन के पहले सिजेरियन डिलीवरी आम होती जा रही थी। खासतौर से निजी चिकित्सालयों में सिजेरियन डिलीवरी का आंकड़ा बेहद चौंकाने वाली स्थिति में रहा है। पर कोरोना के चलते सिजेरियन डिलीवरी का स्थान सामान्य डिलीवरी ने ले लिया है। राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार लाॅकडाउन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में 64 से 91 प्रतिशत सिजेरियन डिलेवरी में कमी आई है। हो सकता है कि ये आंकड़े कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण हों पर इससे इनकार नहीं जा सकता कि 2020 के कोरोना काल में सिजेरियन डिलीवरी में काफी कमी आई है। सिजेरियन डिलीवरी तो उदाहरण है, तथ्य तो बता रहे हैं कि अन्य बीमारियों के इलाज में भी कमी आई है। दवाओं की मांग कम हुई है तो अस्पतालों में होने वाली बेतहाशा भीड़ में जबरदस्त कमी आई है। कोरोना ने छोटी-छोटी बीमारियों यहां तक कि छींक आने पर ही डाॅक्टरों के चक्कर लगाने और मेडिकल जांचों के चक्रव्यूह से बड़ी राहत दी है।

जहां तक डिलेवरी का प्रश्न है, विशेषज्ञों का मानना है कि सिजेरियन डिलीवरी अंतिम विकल्प या अति जटिलता की स्थिति में ही होनी चाहिए पर पिछले सालों में सिजेरियन डिलेवरी का चलन-सा देखने को मिला है। अब इसे चिकित्सकीय नैतिकता के दायरे में समझने की कोशिश की जाए या सामान्य नैतिकता के दायरे में, दोनों ही दृष्टि से गैरजरूरी सिजेरियन डिलीवरी को उचित नहीं माना जा सकता। पिछले साल टू मच केयर अभियान के तहत आईआईएम अहमदाबाद द्वारा देशभर में प्रसूति पर किए गए अध्ययन ने इस ओर खासतौर से ध्यान दिलाया गया है। देखा गया है कि निजी चिकित्सालयों द्वारा सबकुछ ठीक होने के बावजूद प्रायः सी-सेक्शन को प्राथमिकता दी जाने लगी। यह तब है जब चिकित्सक इस बात को भली-भांति जानते हैं कि सी-सेक्शन के कारण मां और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि यह तथ्य भी उभर कर आया है कि एक ओर सरकारी अस्पतालों में सिजेरियन प्रसव का आंकड़ा काफी कम है, वहीं निजी अस्पतालों में यह आंकड़ा सरकारी से कई गुणा अधिक है। मजे की बात यह है कि चिकित्सालयों द्वारा प्रेगनेंसी से लेकर डिलीवरी तक प्रेगनेंट महिला को परीक्षण में रखा जाता है, आए दिन सोनोग्राफी व अन्य जांचें होती है और अधिकांश मामलों में डिलीवरी के ठीक पहले तक निजी चिकित्सालयों द्वारा यही कहा जाता है कि सबकुछ सामान्य है और फिर डिलीवरी के लिए चिकित्सालय में लेकर जाते ही पता नहीं कैसे सबकुछ असामान्य हो जाता है। सामान्य डिलीवरी और सिजेरियन डिलीवरी के चार्जेज में अंतर होने के कारण कहीं पैसे का मोह तो इसका कारण नहीं बनता जा रहा है। पर कोरोना ने स्थितियां बदली हैं।

मुंबई के सायन हाॅस्पिटल के डीन डाॅ. भारमल का कहना है कि ”प्रसूति के दौरान दस से पन्द्रह प्रतिशत को ही सर्जरी की जरूरत होती है।” पर जबसे पांच सितारा सुविधायुक्त अस्पतालों की बाढ़ आई है और जिस तरह से कैशलेस इंश्योरेंस का चलन शुरू हुआ है तबसे सिजेरियन डिलीवरी में तेजी से इजाफा हुआ है। यह तो कोरोना की मार, लाॅकडाउन का दौर और उसके बाद भी कोरोना संक्रमण के बढ़तें मामलों के चलते सिजेरियन डिलीवरी की रिस्क अस्पताल और प्रसूताएं दोनों ही लेने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि कोरोना के कारण महिलाओं और नवजात बच्चों को बड़ी राहत इस मायने में मिली है कि सिजेरियन के कारण मां और बच्चा दोनों को ही तकलीफ होती है। जटिलताओं की भी आशंका रहती है। इसे कोरोना का सकारात्मक साइड इफेक्ट माना जा सकता है कि सिजेरियन में 61 से 91 प्रतिशत कमी के साथ अब सामान्य डिलीवरी होने लगी है। पुणे के मेडीकेयर हाॅस्पिटल के प्रेसिडेंट डाॅ. गणेश राख का कहना है कि यह सरकारों के लिए भी सोचने की बात है कि अब ऐसा क्या हो गया कि ज्यादातर बच्चे सामान्य डिलीवरी से होने लगे हैं। उनका मानना है कि लगभग 90 प्रतिशत मामलों में सिजेरियन डिलीवरी की आवश्यकता ही नहीं होती। यह वास्तविकता दर्शाने वाली सच्चाई है। इसे स्वीकारना होगा।

आज से पाच-छह दशक पहले स्थितियां बदली हुई थी। डाॅक्टर सबसे पहले नब्ज टटोलकर, जीभ देखकर, पेट दबाकर, सिर छूकर, आंखों के निचले हिस्से को देखकर ही बीमारी की पहचान करते थे। दो तीन दिन में दवा का फायदा नहीं होता था तब अन्य जांच का विकल्प होता था पर आज दवा बाद में पहले जांच होती है। इसी तरह सिजेरियन डिलीवरी का सिलसिला चला पर लगता है अब स्थितियां सुधरेंगी। कोरोना लॉकडाउन के कारण जिस तरह से सिजेरियन डिलीवरी में अच्छी खासी कमी आई है इसे शुभ संकेत ही समझा जाना चाहिए। आखिर प्रकृति को अपनी तरह से काम करने दिया जाना चाहिए। प्रकृति भी सामान्य प्रसव की ओर ही इंगित करती है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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