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मणिपुर मुद्दा: समूचे राजनीतिक तंत्र को एकजुटता का संदेश देने की जरूरत

– हृदयनारायण दीक्षित

मणिपुर हिंसा पर विपक्ष का रवैया सकारात्मक नहीं है। सरकार की तरफ से विपक्ष को कई बार सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया। बीते मंगलवार को केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस अध्यक्ष व राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को पत्र भी लिखा। शाह ने आग्रह किया कि मणिपुर की स्थिति पर गंभीरता से चर्चा की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि, `हम सबका कर्तव्य है। संसद से मणिपुर को संदेश दिए जाने की जरूरत है कि सभी राजनीतिक दल मणिपुर की समस्या के समाधान के लिए एक साथ हैं।’

विपक्ष ने इस अपील का भी तिरस्कार किया। शाह ने सदन में भी कहा कि नारेबाजी करने वाले सदस्यों की समस्या के समाधान में कोई रुचि नहीं है। शाह ने याद दिलाया कि जनता सबको देख रही है। लेकिन विपक्ष ने सत्ता पक्ष की किसी भी अपील की तरफ ध्यान नहीं दिया। मणिपुर की परिस्थिति चिंताजनक है। पूरा देश चिंतित है। यह घटनाओं की शुरुआत से ही ध्यान देने योग्य रही है। सदन में समस्या पर पहले ही दिन से गंभीर विमर्श की आवश्यकता थी लेकिन विपक्ष विशेषतया कांग्रेस ने इसकी उपेक्षा की।


संसदीय परंपरा में विपक्ष का कर्तव्य महत्वपूर्ण होता है। ब्रिटिश संसदीय परिपाटी में विपक्ष को गवर्नमेंट इन वेटिंग कहा जाता है लेकिन कांग्रेस जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका के निर्वहन में असफल सिद्ध हुई है। दरअसल विपक्ष की भूमिका के निर्वहन में कांग्रेस अपने इतिहास में कभी भी प्रभावी नहीं रही। गैर जिम्मेदारी की बात 1969 से प्रारंभ होती है। तब कांग्रेस अपने ही अंतर्विरोधों से टूट गई थी। टूटे धड़े के नेता डॉ. राम सुभग सिंह 1969 से 1970 तक प्रतिपक्षी नेता रहे लेकिन विपक्ष की भूमिका शून्य रही। 1977 में कांग्रेस के नेता यशवंत राव चव्हाण विपक्षी नेता थे। तब भी कांग्रेस की प्रतिपक्षी भूमिका प्रभावी नहीं थी। जनता पार्टी की सरकार आंतरिक कलह में गिर गई। कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को समर्थन दिया।

कायदे से कांग्रेस चौधरी चरण सिंह की सरकार की समर्थक दल थी। लेकिन कांग्रेस ने विपक्ष के नेता का पद नहीं छोड़ा। 1989 में राजीव गाँधी नेता प्रतिपक्ष बने। कांग्रेस ने विपक्षी दल का दायित्व नहीं निभाया। उसने चंद्रशेखर को समर्थन दिया। समर्थक दल होने के बावजूद राजीव गाँधी ने नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं छोड़ा। लोकसभा अध्यक्ष ने भाजपा को प्रतिपक्ष माना। 1996 में जनता ने कांग्रेस को फिर से विपक्षी दायित्व सौंपा। कांग्रेस देवेगौड़ा की समर्थक बनी। फिर उसने गुजराल को समर्थन दिया। अटल सरकार के समय कारगिल घुसपैठ पर संसद में बहस हुई। कांग्रेस पाकिस्तान समर्थक मुद्रा में आई। इसी कांग्रेसी चरित्र का नतीजा है कि 2014 के जनादेश में जनता ने कांग्रेस सहित किसी भी दल को मुख्य विपक्ष के योग्य नहीं बनाया। संसद की कार्यवाही का असाधारण महत्व होता है। संविधान निर्माताओं ने संसद को अनेक दायित्व सौंपे हैं। विधि निर्माण और संविधान संशोधन के भी अधिकार संसद के पास हैं। संसदीय प्रणाली में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही महत्वपूर्ण होते हैं। दोनों को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

लोकसभा सचिवालय द्वारा 2011 में प्रकाशित ‘संसदीय पद्धति और प्रक्रिया‘ पठनीय है। इसके प्रारंभ में पं. जवाहरलाल नेहरू का उद्धरण है, `संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है, न केवल प्रभावोत्पादक ढंग से विचार व्यक्त करना जरूरी होता है बल्कि सरकार और विपक्ष के बीच सहयोग का आधार भी आवश्यक होता है। किसी एक विषय पर ही सहयोग काफी नहीं। बल्कि संसद के काम को बढ़ाने का आधार परस्पर सहयोग ही है।’ कांग्रेस पं. नेहरू के इस विचार को नहीं मानती। इसी पुस्तक में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का प्राक्कथन है, `संसद में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से मर्यादा क्षीण होती है। नागरिकों में लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए। आवश्यक है कि संसद लोगों की नजरों में अपनी अधिकाधिक विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए व्यवस्थित ढंग से काम करे।’ लेकिन आज की कांग्रेस ऐसे महत्वपूर्ण वरिष्ठ नेताओं की बात पर भी ध्यान नहीं देती।

संविधान के अनुसार सत्ता पक्ष संसद के सामने जवाबदेह है। जवाबदेही सुनिश्चित करना विपक्ष का कर्तव्य है। सरकार को जवाबदेह बनाने का काम सदन की सुचारू रूप से कार्यवाही द्वारा ही संभव है। चुनाव के समय आम जनता ही किसी दल या दल समूह को सरकार चलाने का अधिकार देती है। इसी तरह जनता ही किसी दल या समूह को विपक्ष की जिम्मेदारी सौंपती है। उसे सरकार को जवाबदेह बनाने का दायित्व सौंपती है। सरकार भी जनादेश से बनती है और विपक्ष भी। लेकिन कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। आदर्श राजनैतिक संस्कृति विकसित करने की जिम्मेदारी उसी की थी। लेकिन इसके बावजूद वह विपक्ष की मर्यादा का पालन नहीं करती। सीके जैन लोकसभा के महासचिव रहे हैं। जैन ने ‘प्रिसाइडिंग ऑफिसर्स कॉन्फ्रेंस‘ पुस्तक के विवरण में यूरोपीय विद्वान वाल्टर लिपिमैन को उद्धृत किया है। लिखा है कि `उच्च पदस्थ लोग संस्थाओं के प्रशासक मात्र नहीं हैं। वे अपने देश के राष्ट्रीय आदर्शों, विश्वासों और अभिलाषाओं के संरक्षक हैं। जिनके कारण देश लोगों का जोड़ नहीं एक राष्ट्र होता है।’ उच्च पदस्थ महानुभावों की जिम्मेदारी ज्यादा है। कांग्रेस को परंपरा और मर्यादा का अनुपालन करना चाहिए।

कांग्रेस मणिपुर के प्रश्न पर अपना दायित्व नहीं निभा पाई। उसने हठधर्मिता की। सदन की कार्यवाही पूरे सप्ताह बाधित हुई। सरकार की अपीलों पर भी ध्यान नहीं दिया गया। मणिपुर की चिंताजनक परिस्थितियों का राजनीतिकरण हुआ। कांग्रेस ने संसद जैसी पवित्र संस्था का भी इस्तेमाल अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए ही किया है। इसी सब से आहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने टिप्पणी की कि ऐसा गैरजिम्मेदार दिशाहीन विपक्ष आज तक नहीं देखा। संसद और संसदीय गरिमा में प्रधानमंत्री की आस्था सर्वविदित है। मणिपुर की घटना पर वे पहले ही दुख व्यक्त कर चुके हैं। गृह मंत्रालय मणिपुर की चुनौती के समाधान में जुटा हुआ है। लेकिन कांग्रेस अपनी राजनीति पर ही उतारू है।

विपक्ष केन्द्र सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव दे चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अविश्वास प्रस्ताव बहस के लिए स्वीकार किया जा चुका है। अविश्वास प्रस्ताव पेश करना विपक्ष का अधिकार है। लेकिन मणिपुर की विषम परिस्थितियों के मध्य अविश्वास प्रस्ताव का औचित्य नहीं है। इस समय सत्ता पक्ष व विपक्ष सहित सभी समूहों की एकता अपेक्षित है। सभी दलों के परामर्श से अविश्वास प्रस्ताव के विचारण के लिए तिथियां तय की जाएंगी। सत्ता पक्ष के पास स्पष्ट बहुमत है। अविश्वास प्रस्ताव का गिरना तय है। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में ऐसा प्रस्ताव पहले भी आया है। क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि विपक्ष अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन राष्ट्रहित में ही करेगा। देश को संदेश देने की जरूरत है कि समूचा राजनीतिक दल तंत्र मणिपुर की चुनौती के सामने एकजुट है। आमजनों को इसकी प्रतीक्षा रहेगी।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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