ब्‍लॉगर

कन्वर्जन रोधी कानून से डरता अल्पंसख्यक?

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

देश में एक मुद्दा इस समय बहुत बड़ा बनता जा रहा है और वह मुद्दा है अल्पसंख्यकों के अधिकार हनन का। जहां देखो वहां, आप किसी भी कोने में चले जाइए, आपको एक बात समान रूप से भारत का संविधान और उसकी आड़ लेकर सुनाई देगी, वह यह कि पिछले कई दशकों से बहुसंख्यक हिन्दू समाज देश में अल्पसंख्यकों पर तमाम अत्याचार कर रहा है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में अल्पसंख्यक भारी संकट में हैं और हिन्दुओं की धर्मान्धता ने उनका जीवन संकट में डाल रखा है। किंतु व्यवहार में जब इन बातों की तह में जाते हैं तब कुछ और ही दृश्य उभरकर सामने आता है और वह दृश्य कम से कम अल्पसंख्यकों के संकट में होने का नहीं है।

सबसे अधिक संकट में है हिन्दू संस्कृति
वास्तविकता में देखें तो देश में जो इस मिट्टी से पैदा हुई संस्कृति है, संकट उस पर ही सबसे अधिक गहराया हुआ दिखता है। ऐसा कहने के पीछे कई पुख्ता तर्क भी मौजूद हैं। इसे सिर्फ इससे समझ सकते हैं कि जब लव जिहाद के शिकार को संरक्षण देने एवं कन्वर्जन रोधी कानून बनाने का कोई भी राज्य सरकार प्रयास करती है तब उसका विरोध सबसे अधिक तेजी से कहीं होता दिखाई देता है तो वह अल्पसंख्यक ईसाई और मुस्लिम समुदाय है। समझ नहीं आता कि उन्हें कानून से इतनी दिक्कत क्यों है? आश्चर्य इस बात पर भी है कि जिस बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोगों ने देश का संविधान बनाते और उसे भारत में लागू करते समय ही ‘अल्पसंख्यक’ के नाम के साथ कई अधिकार संरक्षित एवं संवर्धित कर दिए थे, तब आज अल्पसंख्यकों के सामने कैसे बहुसंख्यक समाज के आचरण से अचानक से उन्हें डर लगने लगा है?

ईसाई समुदाय कर रहा कानून बनाने का विरोध
कर्नाटक में आर्चबिशप डॉ. पीटर मचाडो जो कह रहे हैं, उससे यही जान पड़ता है कि कर्नाटक सरकार प्रस्तावित कन्वर्जन रोधी कानून लाकर अल्पसंख्यकों के हितों को दबा रही है। याद होगा कि अभी कुछ दिन पहले ही यहां के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा था कि राज्य में जल्द ही एक धर्मांतरण रोधी कानून होगा और इस संबंध में अन्य राज्यों के इस तरह के कानूनों का अध्ययन किया जा रहा है। जब से उन्होंने यह कहा है तभी से इस राज्य में अल्पसंख्यकों के बीच खासकर ईसाई समुदाय में बेचैनी नजर आ रही है। किंतु क्या एक कानून के संदर्भ में चिंता की लकीरें उनके मानस पटल पर खिंचनी चाहिए ? जबकि यह कानून तो कन्वर्जन को रोकने के लिए है, इसका लाभ तो उनको भी होगा, जो हिन्दू नहीं हैं। लेकिन यहां बात कुछ अलग है और यह अलग बात यह है कि जो इस काम में संलिप्त हैं वे इसे होते हुए देखते रहना चाहते हैं। वस्तुत: सरकार यदि कानून बना देगी तो वे इस काम को आसानी के साथ आगे जारी नहीं रख पाएंगे।

यहां कोई तर्क के साथ बताए कि कैसे इस कानून के बनने से ‘अल्पसंख्यक’ के अधिकारों का हनन होगा ? आर्कबिशप रेवरेंड पीटर मचाडो सरकार के इस फैसले का विरोध क्यों कर रहे हैं? पीटर मचाडो किस आधार पर कन्वर्जन रोकने के लिए लाए जा रहे बिल को भेदभावपूर्ण और मनमाना करार दे रहे हैं ? कह रहे हैं कि इस बिल के कानून का रूप लेने से न केवल अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होगा, बल्कि राज्य में शांति और एकता को नुकसान पहुँचेगा। इससे अराजकता की स्थिति पैदा होगी। कर्नाटक का पूरा ईसाई समुदाय एक स्वर में इस कानून का विरोध कर रहा है।

संविधान के अनुच्छेद का भी हो रहा गलत इस्तमाल
अपने समर्थन में पीटर मचाडो संविधान के आर्टिकल 25, 26 का हवाला भी गलत तरीके से देने में परहेज नहीं कर रहे हैं जबकि संविधान के अनुच्छेद 25 (1) में अपने धर्म पर चलने और उसका प्रसार करने का अधिकार नागरिकों दिया गया है! अनुच्छेद 26 के तहत सभी धर्मों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने धार्मिक मामलों की देखरेख करने का अधिकार दिया गया है। किंतु पहचान छिपाकर, गलत नाम से यदि कोई गुमराह करे, फिर प्यार का हवाला देकर जबरन धर्म परिवर्तन और विवाह के लिए दबाव बनाए तब क्या इस अनीति, अपराध और षड्यंत्र को रोकने के लिए कानून नहीं होना चाहिए?

कहना होगा कि आज देश के तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश ने धर्मांतरण रोधी कानून लागू है, इसका कहीं ना कहीं सकारात्मक असर भी दिख रहा है। कायदे से तो केंद्र के स्तर पर इस कानून को बनना चाहिए था, किंतु यदि नहीं बन पा रहा है तो राज्यों को इसके लिए पहल करना चाहिए और जो राज्य यह कर रहे हैं, वह साधुवाद के पात्र हैं। यह धन्यवाद इन राज्यों के नेतृत्व को इसलिए भी है क्यों कि इन राज्यों की सरकार देश के संविधान को लेकर अधिक सजग एवं जागृत हैं।

यह कहती है भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भारतीय संविधान की प्रस्तावना को आप पढ़िए, वह कह रही है- ”हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की और एकता अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० “मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं।”

पहले प्रस्तावना के मूल रूप में तीन महत्वपूर्ण शब्द थे- सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न (सॉवरेन), लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) गणराज्य (रिपब्लिक), इसके बाद 42वें संशोधन में बदलाव करके समाजवाद (सोशलिस्ट), पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) शब्द जोड़ दिए गए। यह शब्द जोड़ना कितना सार्थक रहा या नहीं, फिलहाल इस विमर्श में न जाएं, यहां यह देखें कि राज्य के अर्थ में एक देश के रूप में भारत का पहला कार्य क्या है? इस उद्देशिका से तो जो समझ आता है वह यही है कि किसी के साथ राज्य कोई न तो भेद करेगा न ही कहीं भेदभाव या उत्पीड़न होने देगा।

अध्ययन के निष्कर्ष चौंकानेवाले
वरिष्ठ अधिवक्ता सुब्रमण्यम स्वामी का एक अध्ययन कहता है कि गैर-हिन्दुओं में 90 प्रतिशत वो लोग हैं जिन्हें जबरदस्ती उनके धर्म से हटाकर दूसरे धर्म को अपनाने के लिए मजबूर किया गया था। यहां ध्यान रहे कि जो भी अपनी मर्जी से धर्म बदलता है उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है, यह कन्वर्जन रोधी कानून उसके लिए है भी नहीं। यहां बात कुछ वर्ष पहले मध्य प्रदेश के भोपाल में हुए एक अध्ययन की कर लेते हैं, एक खबर के सिलसिले में जब तथ्य जुटाए गए तो ध्यान में आया कि धर्म परिवर्तन के सबसे अधिक आवेदन देनेवाले हिन्दू समुदाय से थे। यह आवेदन कर्ता के रूप में और बाहर से भी देखने पर संख्या औसत सात दिन में तीन के लगभग सामने आई थी। तथ्य यह है कि एक वर्ष में 150 से अधिक हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन हो रहा था, किंतु सामने से यह दिखाई कहीं नहीं दे रहा था। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि मध्य प्रदेश की राजधानी होने के कारण एवं तमाम अध्ययन, अध्यापन, रोजगार के साधन-अवसर होने के कारण से प्रदेश एवं देश के कई राज्यों, जिलों एवं छोटे कस्बों से पढ़ने-रोजगार के लिए युवा भोपाल पढ़ने आते हैं। जो स्थानीय लोग हैं, उनके मामले तो फिर भी उजागर हो जाते हैं लेकिन जो बाहर से आते हैं, अनेक बार उनके मामले सामने ही नहीं आते हैं । प्राय: इन सभी मामलों में शिकार हिन्दू बेटियां ही थीं। यदि उनकी एक अनुमानित संख्या इसके साथ जोड़कर देखी जाए तो आप सोच भी नहीं सकेंगे वह कितनी अधिक हो सकती है।

राष्ट्रीय बाल आयोग के अध्यक्ष का कथन भी सुनिए
यहां रिकार्ड में ऐसे अनेक केस हैं जिसमें कि झूठ बोलकर, अपनी धार्मिक पहचान छिपाकर बच्ची या बालिग को बरगलाने का प्रयास हुआ, फिर दैहिक संबंधों के आधार पर जबरन शादी के लिए मजबूर कर दिया गया। वस्तुत: यह तो एक जिले का आंकड़ा है। अब आप देश के 726 जिलों के बारे में विचार करें एवं स्वयं से निष्कर्ष निकालें कि यह कन्वर्जन का खेल किस स्तर तक गहरे रूप से फैला हुआ है। इस आधार पर आप स्वयं ही अनुमान लगाइये कि देश में धर्मांतरण का हर रोज का कितना बड़ा प्रतिशत होगा। अभी यह बहुत दिन पहले की घटना नहीं है, जब इसी महीने मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में क्रिश्चियन मिशनरी गर्ल्स हॉस्टल में चल रहे धर्मांतरण के धंधे का राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने पर्दाफाश किया। आयोग के अध्यक्ष ने हॉस्टल का औचक निरीक्षण करते हुए पता लगाया कि वहां आदिवासी हिंदू लड़कियां लाकर रखी गई थीं, जिन्हें धार्मिक पुस्तकें देकर ईसाई धर्म की ओर आकर्षित करने की कोशिश हो रही थी।

उन्होंने स्वयं एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा भी है, ”ईसाई मिशनरियों के छात्रावास का औचक निरीक्षण, चला रहे थे धर्मांतरण का धंधा।” इस वीडियो में आयोग के अध्यक्ष कहते हैं, ”इन्हें किसी प्रकार की खास ट्रेनिंग के लिए तैयार किया जा रहा था। ये बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे क्योंकि परिसर में कोई स्कूल नहीं था। ये अपने आप में जांच का विषय है कि बच्चे वहां आए कैसे और कैसे वो वहां रह रहे थे।” वह आगे कहते हैं, ”इस तरह इनका धर्मांतरण कराना न केवल कानूनी तौर पर बल्कि नैतिक तौर पर भी गलत है। हमने आदेश दिया है कि इस तरह धर्मांतरण की गतिविधि चलाने वालों पर कार्रवाई की जाए।”

ईसाई मिशनरी लगीं कन्वर्जन के खेल में
यह तो अच्छा हुआ कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की जानकारी में यह मामला आ गया। उन्होंने कार्रवाई भी कर दी। किंतु आप सोचिए कि देश में ऐसे कितने स्थान होंगे जहां रोज किसी न किसी छद्म रूप में कन्वर्जन का षड्यंत्र चल रहा है। तब फिर इस षड्यंत्र का पर्दाफाश क्यों नहीं होना चाहिए? भारतीय संविधान भी यही कह रहा है कि किसी के साथ किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव, छल-कपट देश भर में कहीं नहीं होना चाहिए। यदि कोई ऐसा करता हुआ पाया जाता है तो वह कानून की नजर में अपराधी है। ऐसे व्यक्ति पर विधि सम्मत कार्रवाई होनी चाहिए। अब कर्नाटक सरकार इसी संविधान के आईने में ही तो अपना नया कानून बनाने जा रही है, फिर अल्पसंख्यकों को डर किस बात का है? वस्तुत: यह सोचनेवाली बात है। आर्कबिशप का बयान साफ तौर पर इस ओर इशारा कर रहा है कि ईसाई मिशनरी देश भर में बड़े पैमाने पर कन्वर्जन के खेल में लगी हुई है, यदि एक के बाद एक राज्य इस तरह का कानून बना देगा तब फिर वे कन्वर्जन का कुचक्र नहीं रच पाएंगे, शायद यही डर आज उन्हें सबसे अधिक सता रहा है ।

(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।)

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