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म्यांमारः भारत का मध्यम मार्ग

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

यह खुशी की बात है कि भारत सरकार अब म्यांमार (बर्मा) के बारे में सही और स्पष्ट रवैया अपना रही है। जिस दिन म्यांमार की नेता आंग सान सू ची को चार साल की सजा घोषित हुई थी, उसी समय मैंने लिखा था कि भारत सरकार की चुप्पी ठीक नहीं है। जब भी पड़ोसी देशों में लोकतंत्र का हनन हुआ है, भारत कभी चुप नहीं रहा है। चाहे वह पूर्वी पाकिस्तान हो, नेपाल हो, भूटान हो या मालदीव हो। लेकिन अब हमारे विदेश सचिव हर्षवर्द्धन श्रृंगला ने स्वयं म्यांमार जाकर उसके फौजी शासकों, सू ची के पार्टी नेताओं और कई देशों के राजदूतों से खुला संवाद किया है।

श्रृंगला ने साहसिक पहल की और फौजी शासकों से कहा कि वे जेल जाकर सू ची से मिलना चाहते हैं। फौजियों ने उसकी अनुमति उन्हें नहीं दी लेकिन इससे यह तो प्रकट हो ही गया कि भारत म्यांमार की घटनाओं के प्रति तटस्थ या उदासीन नहीं है। श्रृंगला ने फौजी शासकों को स्पष्ट कर दिया है कि भारत अपने इस पड़ोसी देश के लोकतंत्र के बारे में पूरी तरह से चिंतित है।

‘एसियान’ संगठन का म्यांमार सदस्य है लेकिन उसने आजकल म्यांमार का बहिष्कार कर रखा है लेकिन भारत उसके प्रति इतना सख्त रवैया नहीं अपना सकता। उसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि भारत के नगा और मणिपुर के बागियों को नियंत्रित करने में बर्मी फौज भारत की सक्रिय मदद करती है और दूसरा चीन वहां हर कीमत पर अपना वर्चस्व बढ़ाने पर आमादा है।

संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के फौजियों की काफी लानत-मलामत हो रही है लेकिन भारत ने म्यांमार पर मध्यम मार्ग अपना रखा है। वह फौज के खिलाफ खुलकर नहीं बोल रहा है लेकिन उस पर अपना कूटनीतिक दबाव बराबर बना रहा है ताकि बर्मा में लोकतंत्र की वापसी हो सके। भारत ने पहले भी सू ची और फौज के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी।

म्यांमार में स्थित महाशक्तियों के राजदूतों ने भी श्रृंगला को सचेत करना उचित समझा। यह सच है कि ‘एसियान’ और संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार के खिलाफ सिर्फ प्रस्ताव पारित कर देने से खास कुछ होनेवाला नहीं है। भारत का मध्यम मार्ग ही इस समय व्यावहारिक और उचित है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)

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