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उमाबाई कुंडापुर: जीवनभर बनी रहीं देशसेविका

– प्रतिभा कुशवाहा

उमाबाई कुंडापुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख गुमनाम नायिका हैं, जिनके बारे में हम देशवासियों को जानना चाहिए। वे देश की ऐसी योद्धा हैं जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के समय न केवल एक बड़े स्वयंसेवी संगठन का गठन किया, बल्कि उन्होंने ऐसी महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा जो कभी घर से बाहर नहीं निकली थीं। वे इस बात में भाग्यशाली रहीं कि उनकी शादी ऐसे परिवार में हुई, जो महिलाओं के मामले में प्रगतिशील था। इसी के कारण उन्हें अपनी ससुराल में पढ़ने-लिखने और काम करने का पूरा मौका मिला। इस अवसर को उन्होंने देश की सेवा में लगा दिया।

उनका जन्म मैंगलोर में 1892 में गोलिकेरि कृष्णराव और जुंगाबाई के घर हुआ। भवानी गोलिकेरि के नाम के साथ वे तेरह साल की अवस्था तक अपने माता-पिता के घर रहीं। उनकी शादी संजीव राव कुंडापुर से हो गया। अपने श्वसुर आनंद राव कुंडापुर के कारण वे आगे की पढ़ाई कर सकीं। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा मुंबई के अलेक्जेडर हाईस्कूल से पास की। शिक्षा पूरी करने के बाद उमाबाई अपने श्वसुर की सहायक के रूप में महिलाओं को पढ़ाने का काम करने लगीं। गौनदेवी महिला समाज के जरिए वे सामाजिक कामों से जुड़ गई थीं। कुछ साल व्यतीत होने के बाद उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। 25 वर्ष की अवस्था में ही उनके पति संजीव राव का देहांत टीबी की बीमारी से हो गया। अपने बेटे की मृत्यु के बाद आनंद राव अपनी पुत्रवधु सहित हुबली में आकर बस गए। यहां उन्होंने कर्नाटक प्रेस की स्थापना की। उन्होंने यहां भी बालिकाओं को शिक्षित करने की मुहिम के तहत तिलक कन्याशाला की स्थापना की। जिसको संवारने का काम उमाबाई ने संभाला।

1924 में स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के प्रमुख नेता डाॅ. एनएस हार्डिकर ने युवाओं को संगठित करने के लिए हिन्दुस्तानी सेवा दल का गठन किया। इसी संगठन की महिला विंग की नेता उमाबाई को बनाया गया और उन्होंने यह काम बखूबी संभाला। वे महिलाओं के शारीरिक प्रशिक्षण और ट्रेनिंग के लिए कैंम्प लगाती थीं। नाटकों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए भी उन्होंने महिलाओं को जोड़ा। उन्होंने बड़ी संख्या में सभी तरह की महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने का काम किया। यहां तक धारवाड़ जैसे पिछड़े इलाके की महिलाएं भी शामिल हुईं। इसी का परिणाम था कि बेलगाम में 1924 के अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन में 150 महिलाओं को सेवा के लिए भेजा गया था।

1932 में नमक सत्याग्रह के लिए उमाबाई को गिरफ्तार किया गया और उन्हें चार महीने यारवदा जेल में रखा गया। इसी बीच उनकी प्रेस को गैरकानूनी बताकर बालिका स्कूल सहित सील कर दिया गया। इसी बीच उनके श्वसुर आनंदराव का देहांत हो गया। यह उमाबाई के लिए बड़ी क्षति थी। बचपन से लेकर उन्होंने जो कुछ भी किया वह आनंद राव की छत्रछाया में रहकर ही किया था, वे उनके पथ प्रदर्शक रहे। इसलिए उमाबाई ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उनके ही पदचिन्हों पर चलने का निर्णय लिया।

नमक सत्याग्रह के समय काफी महिलाओं को जेल में रखा गया था। ऐसी महिलाएं जब जेल से रिहा हुईं तब उनमें से बहुतों को उनके परिवार ने स्वीकार नहीं किया। उमाबाई का घर ही ऐसी महिलाओं का शरणस्थल बना। 1934 में बिहार में भूकंप विपदा के समय उमाबाई और उनकी स्वयंसेवी महिलाओं ने रिफ्यूजी कैंप में जाकर रात-दिन सेवाकार्य किया। इन्हीं दिनों वे प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और आचार्य कृपलानी के संपर्क में भी आईं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अपने खराब स्वास्थ्य के कारण वे भाग न ले सकीं। लेकिन उनका घर स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सुरक्षित ठिकाना बना रहा। 1946 में महात्मा गांधी ने उन्हें कस्तूरबा ट्रस्ट, कर्नाटक ब्रांच का हेड बनाया। यह ट्रस्ट गांवों से महिलाओं को जोड़ने और उन्हें ग्राम सेविका बनाने के लिए प्रेरित करता था।

स्वतंत्रता मिलने के बाद उन्हें कई तरह के राजनीतिक पद और पुरस्कार देने की पेशकश हुई। उन्होंने देश की सेवा का कभी कोई मूल्य नहीं लिया। उन्होंने एवार्ड, पेंशन तक लेने से इनकार कर दिया। वे बाकी सारी जिंदगी हुबली के एक छोटे से घर ‘आनंद स्मृति’ में रहकर काम करती रहीं और 1992 को वे दुनिया छोड़ गयीं।

(लेखिका हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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