ब्‍लॉगर

उपचार के बिना एड्स रोगियों के ठीक होने से वैज्ञानिक हैरान

विश्व एड्स दिवस (01 दिसंबर) पर विशेष

– प्रमोद भार्गव

इतिहास में पहली बार देखने में आया है कि एचआईवी एड्स पीड़ित मरीज बिना किसी उपचार के अपने आप ठीक हो गया। इस वजह से दुनिया के विषाणु वैज्ञानिक और चिकित्सक हैरान हैं। क्योंकि इस बीमारी को लाइलाज माना जाता रहा है। ईसी-2 नाम दिए गए इस मरीज के स्वस्थ होने की रिपोर्ट 26 अगस्त की विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में छपी है। रिपोर्ट के अनुसार यह मरीज संक्रमित हुआ और फिर बिना किसी दवा के खुद-ब-खुद ठीक हो गया। इसी तरह इसी-1 व्यक्ति भी ठीक हुआ है। इस रोगी की 100 करोड़ कोशिकाओं की जांच की गई तो इसके शरीर में केवल एक सक्रिय विषाणु पाया गया लेकिन वह भी वंशानुगत रूप में निष्क्रिय अवस्था में मिला। आखिर में वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि इन दोनों रोगियों की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत है कि इन्होंने जानलेवा विषाणु को पूरी तरह नष्ट कर दिया। इन मरीजों को ‘एलीट कंट्रोलर्स’ का नाम दिया गया है। इसका मतलब है कि वो लोग जिनके शरीर में एचआईवी तो है लेकिन पूरी तरह निष्क्रिय या फिर इतनी कम मात्रा में है, जिसे किसी बगैर दवा के ठीक किया जा सकता है। इसीलिए इनमें एचआईवी से कोई हानि नहीं हुई।

यह शोध केलिफोर्निया विवि में सत्या दांडेकर के नेतृत्व में हुआ है। दुनिया में इस समय 3.50 करोड़ लोग एड्स संक्रमित हैं। इनमें से 99.50 फीसदी मरीज ऐसे हैं, जिन्हें प्रतिदिन विषाणुरोधक दवा दी जाती है। हालांकि एड्स को लेकर विरोधाभास की स्थिति हमेशा बनी रही है।

भारत में एड्स के सिलसिले में जहां रोगियों के घटने की खबरें आ रही हैं, वहीं कुछ समय पहले आई खबर आश्चर्यजनक खुशी देने वाली है। एचआइवी पीड़ित 49 महिलाओं ने स्वस्थ शिशुओं को जन्म दिया है। हरियाणा के हिसार स्थित सिविल अस्पताल में इन बच्चों का जन्म एक साल के भीतर हुआ है। अस्पताल की एड्स नियंत्रण प्रकोष्ठ की सलाहकार ममता का कहना है, एचआइवीग्रस्त गर्भवती के शिशु में वायरस का असर न हो, इसके लिए पीजीआई रोहतक के एआरटी केंद्र से इन महिलाओं को दवा दी जाती थी। इस दवा के असर से शरीर में पनपे सीडी-4 वायरस का असर कम हो गया। नतीजतन महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई। जिससे स्वस्थ बच्चे पैदा हुए। एड्स यानी ह्यूमन इम्यूनोडेफीशिएंसी वायरस (एचआइवी) के असर से लोगों में प्रतिरोधात्मक क्षमता क्षीण होती चली जाती है।

भारत में एचआइवी पीड़ित पहला मरीज 1986 में चैन्नई में मिला था। हरियाणा में रोहतक जिले के गांव बोहर में पहला एड्स का मरीज 1989 में मिला था। अभी भी हरियाणा में 28000 एड्स के रोगी पंजीबद्ध हैं। इस खबर से इस परिप्रेक्ष्य में दो बातें स्पष्ट हुई हैं, एक तो एड्स लाइलाज बीमारी नहीं रही, दूसरे एड्स पीड़ित महिलाएं इलाज के बाद स्वस्थ बच्चों को जन्म दे सकती हैं।

बीती शताब्दी में एड्स को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया था कि महामारी का रूप लेकर एड्स दुनिया को खत्म कर देगा। इसे भय का बड़ा पर्याय मान कर दिखाया जा रहा था। एड्स से जुड़े संगठनों की मानें तो पिछले दशक में हर साल 22 लाख लोग एड्स की चपेट में आकर दम तोड़ रहे थे, किंतु अब यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है। मसलन 1997 की तुलना में एड्स के नये मरीजों की संख्या में 21 फीसदी की कमी आई है। कहा जा रहा है कि यदि इस गति से एड्स नियंत्रण पर काम चलता रहा तो दुनिया जल्दी ही एड्स-मुक्त हो जाएगी। यहां हैरजअंगेज पहलू यह है कि एड्स के जब सभी मरीजों को उपचार मिल नहीं पा रहा है तो यह बीमारी एकाएक घटने क्यों लगी? दुनिया में आई आर्थिक मंदी और कोरोना संक्रमण से दुनिया की डांवाडोल हुई अर्थव्यवस्था ने भी एड्स की भयावहता को कम करने का सकारात्मक काम किया है। दरअसल अबतक एड्स पर प्रतिवर्ष 22 सौ करोड़ डॉलर खर्च किए जा रहे थे, लेकिन अब बमुश्किल 1400 करोड़ डॉलर ही मिल पा रहे हैं। इस कारण स्वयंंसेवी संगठनों को जागरुकता के लिए धन राशि मिलना कम हुई तो एड्स रोगियों की भी संख्या घट गई?

एड्स एक ऐसी महामारी है जिसकी अस्मिता को लेकर अवधारणाएं बदलने के साथ-साथ दुनिया के तमाम देशों के बीच परस्पर जबरदस्त विरोधाभास भी सामने आते रहे हैं। हाल ही में एड्स से बचाव के लिए जो नई अवधारणा सामने आई है, उसके अनुसार एड्स से बचाव के लिए टी.बी. (क्षय रोग) पर नियंत्रण जरूरी है। यह बात कनाडा के टोरंटो शहर में सम्पन्न हुए सोलहवें एड्स नियंत्रण सम्मेलन में प्रमुखता से उभरी। इस सम्मेलन में यह तथ्य उभरकर सामने आया कि दुनिया भर में जितने एच.आई.वी. संक्रमित लोग हैं उनमें से एक तिहाई से भी ज्यादा टी.बी. से पीड़ित हैं। अब सच्चाई यह है कि एड्स को लेकर दुनिया के वैज्ञानिक खुलेतौर से दो धड़ों में बंट गए हैं।

ब्राजील में कंसॉर्शियम टु रिस्पॉण्ड इफेक्टवली टु दी एड्स-टी.बी. एपिडेमिक (क्रिएट) द्वारा ग्यारह हजार लोगों पर एक अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ लोगों को सिर्फ एंटीरिट्रोवायरल दवा दी गई कुछ लोगों को सिर्फ टीबी की दवा आइसोनिएजिड दी गई जबकि तीसरे समूह को दोनों तरह की दवाऐं दी गईं। नतीजतन एंटीरिट्रोवायरल औषधि से टीबी संक्रमण से 51 प्रतिशत बचाव हुआ। सिर्फ आइसोनिएजिड से 32 प्रतिशत बचाव हुआ। जबकि मिली-जुली दवाएं देने से टीबी संक्रमण का खतरा 67 फीसदी तक कम हो गया। इस निष्कर्ष को महत्व देते हुए अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एचआईवी संक्रमित रोगियों के लिए मिली-जुली दवा देने की अनुशंसा की है।

इसके पूर्व एड्स के सिलसिले में विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में कहा गया था कि अफ्रीकी देशों में 38 लाख एड्स के रोगी हैं। तब अफ्रीकी राष्ट्रपति और वहां के वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट को नकारते हुए एड्स के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया था। इस रिपोर्ट पर सख्त असहमति जताते हुए अफ्रीकी सरकार ने न तो इस जानलेवा रोग से निजात के लिए दवाएं उपलब्ध कराईं और न ही एड्स के विरुद्ध वातावरण बनाने के लिए जन-जागृति की मुहिम चलाई। बल्कि इसके उलट अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति थावो मुबेकी ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर 33 विशेषज्ञों का पैनल बनाया। इस पैनल की खास बात यह थी कि इसमें सेंटर फॉर मालीक्यूलर एंड सेलुलर बायोलॉजी, पेरिस के निदेशक प्रो. लुकमुरनिर भी शामिल थे। लुकमुरनिर वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अमेरिकी वैज्ञानिक डा गैली के साथ मिलकर 1984 में एड्स के वायरस एचआईवी का पता लगाया था। इसके साथ ही इस पेनल में अमेरीका, ब्रिटेन, भारत और अटलांटा के सीडीसी के वैज्ञानिक डॉ ऑन ह्यूमर भी शामिल थे।

इस पैनल ने अप्रैल 2001 में अपनी अति महत्वपूर्ण रिपोर्ट अफ्रीकी राष्ट्रपति को सौंपते हुए एड्स के वायरस एचआईवी के अस्तित्व पर तीन सवाल उठाते हुए नये सिरे से इस पर अनुसंधान करने की सलाह दी थी। रिपोर्ट का पहला सवाल था कि संभावित एड्स पीड़ित रोगी में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होने की वास्तविकता क्या है, जिससे मौत होती है? दूसरा, एड्स से होने वाली मौत के लिए किस कारण को जिम्मेदार माना जाए? तीसरे, अफ्रीकी देशों में विपरीत सेक्स से एड्स फैलता है, जबकि पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता से, यह विरोधाभास क्यों? इस रपट में एड्स रोधी दवाओं की उपयोगिता पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरअसल इस परिप्रेक्ष्य में दबी जुबान से वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि एड्स रोधी दवाओं के दुष्प्रभाव से भी रोगी के शरीर में प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होती जाती है और नतीजतन रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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