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महिला समानता की जरूरत

महिला समानता दिवस 26 अगस्त पर विशेष

– प्रमोद भार्गव

प्रतिवर्ष 26 अगस्त को महिला समानता दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिवस की शुरुआत 1893 में न्यूजीलैंड से हुई। अमेरिका में 26 अगस्त 1920 को उन्नीसवां संविधान संशोधन करके पहली बार महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला। इसके पहले वहां महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक माना जाता था। इस्लामिक एवं गैर-लोकतांत्रिक देशों में आज भी महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक नहीं है। भारत में स्वतंत्रता के बाद से ही महिला को मतदान सहित सभी तरह के चुनाव लड़ने व प्रशासनिक पद प्राप्त करने के अधिकार पुरुषों के बराबर मिले हुए हैं। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में संविधान में 73वां संशोधन कर पंचायत और नागरीय निकाय चुनावों में महिलाओं को 33 प्रतिशत पद आरक्षित किए गए। त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली में कई राज्यों ने यही आरक्षण 50 प्रतिशत तक कर दिया है। इससे ग्रामीण महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हैसियत बढ़ी, वहीं वे घूंघट की ओट से बाहर आकर अपने अधिकारों के प्रति आवाज भी बुलंद करने लगीं। बावजूद जो ग्रामीण व शहरी मजदूर महिलाएं मुख्यधारा में नहीं आ पाईं, वे आज भी तमाम तरह की बदहाली झेलने को मजबूर हैं। इस कारण भारत ही नहीं दुनिया की निम्न आय वर्ग से जुड़ी महिलाओं को भूख से लेकर अनेक तरह की त्रासदियां झेलनी पड़ रही हैं।

आर्थिक विकास के दौर में सुरसामुख की तरह फैलती भूख की सबसे ज्यादा त्रासदी दुनिया की आधी आबादी महिलाओं को झेलनी पड़ी है। दुनिया की साठ फीसदी महिलाएं भूख, कुपोषण और रक्ताल्पता की शिकार हैं। नव-उदारवाद के चलते लगातार बढ़ रही आर्थिक विसंगति व असमानता से गरीब महिलाओं द्वारा बच्चे बेचने की खबरें भी आती रहती हैं। ऐसी घटनाएं जहां एक ओर महिला सशक्तिकरण के दावों की पोल खोलती हैं, वहीं यह हकीकत भी सामने आती है कि लाचार लोगों के लिए देश और प्रदेश सरकारों द्वारा चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं की महत्ता व उपादेयता वाकई कितनी है?

प्रकृतिजन्य स्वभाव के कारण औरतों को ज्यादा भूख सहनी पड़ती है। दुनिया भर में भूख की शिकार हो रही आबादी में से 60 प्रतिशत महिलाएं होती हैं। क्योंकि उन्हें स्वयं की क्षुधा-पूर्ति से ज्यादा अपनी संतान की भूख मिटाने की चिंता होती है। भूख, कुपोषण व अल्प-पोषण से उपजी बीमारियों के कारण हर रोज 12 हजार औरतें मौत की गोद में समा जाती हैं। महज सात सेकेंड में एक औरत मौत की गिरफ्त में आ जाती है। आधी दुनिया की हकीकत यह है कि परिवार को भरपेट भोजन कराने वाली मां को एक समय भी भोजन आधा-अधूरा नसीब हो पाता है। परिजनों की सेहत के लिए तमाम नुस्खे अपनाने वाली ‘स्त्री‘ खुद अपना जीवन बचाने के लिए जीवनदायी नुस्खे का प्रयोग नहीं करती। अपनी शारीरिक रचना की इसी विलक्षण सहनशीलता के कारण भूखी महिलाओं की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।

विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है, जिन्हें अल्प पोषण पाकर ही संतोष करना पड़ता है। ऐसे सर्वाधिक 90 करोड़ लोग विकासशील देशों में रहते हैं। विश्व के करीब 18 करोड़ बच्चे और 38 करोड़ कुपोषित महिलाओं में 70 फीसदी सिर्फ 10 देशों में रहते हैं और उनमें से भी आधे से अधिक केवल दक्षिण एशिया में। बढ़ती आर्थिक विकास दर पर गर्व करने वाले भारत में भी कुपोषित महिला व बच्चों की संख्या करोड़ों में है। मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार जैसे राज्यों में कुपोषण के हालात कमोबेश अफ्रीका के इथोपिया, सोमालिया और चांड जैसे ही हैं।

मध्य-प्रदेश में तमाम लोकलुभावन कल्याणकारी योजनाओं के सरकारी स्तर पर लागू होने के बावजूद नौ हजार से 11 हजार के बीच गर्भवती महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। गर्भावस्था या प्रसव के 42 दिनों के भीतर यदि महिला की मृत्यु हो जाती है तो इसे मातृत्व मृत्यु दर माना जाता है। इन मौतों में 50 फीसदी प्रसव के 24 घंटों के भीतर, गर्भावस्था के दौरान 25 फीसदी और प्रसव के 2 से 7 दिन के भीतर 25 प्रतिशत महिलाओं की मौत होती है। 25 प्रतिशत महिलाओं की मौत अत्याधिक रक्तस्राव, 14 फीसदी संक्रमण, 13 फीसदी उच्च, रक्तचाप और 13 ही फीसदी गर्भपात के कारण काल के मुंह में समा जाती हैं। शहरी क्षेत्र में 28.2 और ग्रामीण इलाकों में 41.8 प्रतिशत महिलाएं मानक स्तर से नीचे जीवन-यापन करने को अभिशप्त हैं।

महानगरों की झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की स्थिति बेहद चिंताजनक है। इन बस्तियों में रहने को अभिशप्त कुल आबादी में से 75 प्रतिशत महिलाएं कमजोरी, एनीमिया, आंत्रशोध, एमिबायोसिस की शिकार हैं। कुपोषण के चलते लकवाग्रस्त हो जाना इनकी मौत का प्रमुख कारण है। मुंबई की झुग्गी बस्तियों में रोजाना 700 बच्चे पैदा होते हैं, जिनमें रोजाना 205 मर जाते हैं। कथित उदारीकरण की चमक ने गरीबों के हालात इतने बद्दर बना दिए हैं कि स्थिति निचोड़कर सुखाने की भी नहीं रह गई है।

पिछले डेढ़-दो दशक के भीतर वैश्विक आर्थिकी ने असमानता के हालात इतने भयावह बना दिए हैं कि आज दुनिया के 20 प्रतिशत लोगों के हाथों में विश्व का 86 प्रतिशत सकल राष्ट्रीय उत्पाद, विश्व का 82 प्रतिशत निर्यात और 68 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश है। फोब्र्स पत्रिका के आवरण की सुर्खियां बनने वाले इन पूंजीपतियों में से भी ज्यादातर विकसित देशों के रहनुमा हैं। इसके ठीक उलट विकासशील देशों में रहने वाले 20 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो मात्र डेढ़ डाॅलर प्रतिदिन की आमदनी पर जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। ऐसी ही बदहाली के चलते विकासशील देशों के दो करोड़ शहरी बच्चे प्रतिवर्ष दूषित पेयजल के सेवन से काल के गाल में समा जाते हैं।

असमानता के ऐसे ही हालातों ने भारत में ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि खम्मम में एक लाचार महिला को अस्पताल का बिल न चुका पाने के कारण अपने कलेजे के टुकड़े को बेचना पड़ा था। हालांकि गरीबी और भुखमरी की लाचारी जो करा दे, सो कम है की तर्ज पर छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बुंदेलखंड सहित देश के अन्य राज्यों में बच्चों को बेचे जाने की घटनाएं आम हो गई हैं। इन प्रदेशों में गरीबी के अभिशाप के चलते मां-बाप जवान बेटियों को भी बेचने को अभिशप्त हैं।

वैश्विक आर्थिकी के चलते महिलाओं के आर्थिक रूप से मजबूत व स्वावलंबी होने का प्रतिशत बहुत मामूली है। लेकिन इस आर्थिकी के चलते जिस तेजी से असमानता की खाई चौड़ी हुई और बढ़ती महंगाई के कारण आहारजन्य वस्तुएं आमजन की क्रय-शक्ति से जिस तरह से बाहर हुईं, उसका सबसे ज्यादा खमियाजा गरीब महिलाओं को भुगतना पड़ा है। अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी के चलते भूख और कुपोषण की शिकार भी वही हुईं। गरीब महिला को यदि भूख और कुपोषण से उबारना है तो जरूरी है कि उदारवादी नीतियों पर अंकुश लगे और ग्रामीण आबादी को प्रकृति और प्राकृतिक संपदा से जोड़े जाने के उपक्रम बहाल हों? तभी नारी के समग्र उत्थान व सबलीकरण के सही अर्थ तलाशे जा सकते हैं और तभी भारत में समानता की बुनियाद मजबूत होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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