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विश्व पृथ्वी दिवस विशेष: जीना है तो धरती की भी सुनें

– गिरीश्वर मिश्र

जाने कब से यह धरती मनुष्य समेत सभी प्राणियों, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों आदि के लिए आधार बन कर जीवन और भरण-पोषण का भार वहन करती चली आ रही है। कभी मनुष्य भी (आज की तरह का) कोई विशिष्ट प्राणी न मान कर अपने को प्रकृति का अंग समझता था। मनुष्य की स्थिति शेष प्रकृति के अवयवों के एक सहचर के रूप में थी। मनुष्य को प्रकृति के रहस्यों ने बड़ा आकृष्ट किया और अग्नि, वायु, पृथ्वी, शब्द आदि सब में देवत्व की प्रतिष्ठा होने लगी और वे पूज्य और पवित्र माने गए। प्रकृति के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखते हुए उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखा गया। उसके उपयोग को सीमित और नियंत्रित करते हुए त्यागपूर्वक भोग की नीति अपनाई गई। विराट प्रकृति ईश्वर की उपस्थिति से अनुप्राणित होने के कारण मनुष्य उसके प्रति स्नेह और प्रीति के रिश्तों से अभिभूत था।

धीरे-धीरे बुद्धि, स्मृति और भाषा के विकास के साथ और अपने कार्यों के परिणामों से चमत्कृत होते मनुष्य की दृष्टि में बदलाव शुरू हुआ। प्रकृति की शक्ति के भेद खुलने के साथ मनुष्य स्वयं को शक्तिवान मानने लगा। धीरे-धीरे प्रकृति के प्रच्छन्न संसाधनों के प्रकट होने के साथ दृश्य बदलने लगा और मनुष्य बेहद उत्साहित हुआ और उनको स्रोत मान कर उनका दोहन करना शुरू किया। औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों में उलटफेर शुरू हुआ। प्रकृति को नियंत्रित करना और अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति में लगाना स्वाभाविक माना जाने लगा। बुद्धि-वैभव बढ़ने के साथ अपनी उपलब्धि पर आत्ममुग्ध इतराता-इठलाता मनुष्य अपने को स्वामी और प्रकृति को अपनी चेरी का दर्जा देना शुरू किया। प्रकृति को विकृत करना और कृत्रिम को अपनाने की जद्दोजहद के बीच जीवन का खाका ही बदलता जा रहा है।

प्रकृति में उपलब्ध कोयला, पेट्रोल और विभिन्न गैसों ने ऊर्जा के ऐसे अजस्र स्रोत प्रदान किए कि मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा को मानों पर लग गए। इतिहास गवाह है कि धरती की कोख में छिपे नाना प्रकार के खनिज पदार्थ की सहायता से नए-नए उपकरणों और वस्तुओं का निर्माण संभव है। इन उपलब्धियों के साथ मनुष्य की शक्ति और लालसा निरंतर बढ़ती गई है। भौतिक और रासायनिक विद्या के रहस्यों को जानने में हुई प्रगति के साथ मनुष्य की आशा आकांक्षा अनंत आकाश में विचरण करने लगी।

यह सर्वविदित है कि धरती के पदार्थों के ज्ञान से लैस होकर विकास और विनाश दोनों की राहें खुलती गईं। आणविक (न्यूक्लियर) ऊर्जा को ही लें। वह कितनी विनाशकारी है यह हिरोशिमा-नागासाकी के बम विस्फोट से प्रमाणित हो चुका है। दूसरी ओर उसका औषधि के रूप में भी प्रयोग है और उससे विद्युत उत्पादन विलक्षण रूप से मानवता के लिए सुखद (जोखिम!) सिद्ध हुआ है। इन परिणामों ने मनुष्य की विश्व-दृष्टि ही बदल डाली है। अपने अनुभवों से उत्साहित मनुष्य की लोभ-वृत्ति ने छलांगें लेनी शुरू की और प्रकृति के शोषण की गति निरंतर बढ़ती गई। पहले बड़े देशों ने शोषण की राह दिखाई और उनको विकसित कहा जाने लगा। तब छोटे देशों ने भी अनुगमन शुरू किया। यह मान कर कि प्रकृति निर्जीव, अनंत तथा अपरिमित है, मनुष्य ने अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की मुहिम छेड़ दी जो क्रमश: तीव्र होती गई है, यहाँ तक कि उसने हिंसात्मक रूप ले लिया है। इस तरह के कदम उठाते हुए यह अक्सर भुला दिया जाता है कि प्रकृति जीवंत है और ब्रह्माण्ड की समग्र व्यवस्था में धरती की इस अर्थ में ख़ास उपस्थिति है कि सिर्फ यहीं धरती पर ही जीवन की सत्ता है।

पर इस धरती की सीमा है और धरती की उर्वरता या प्राण शक्ति का विकल्प नहीं है। आज हम जिस दौर में पहुँच रहे हैं उसमें पृथ्वी को पवित्र और पूज्य न मान कर उपभोग्य सामग्री माना जा रहा है। आज स्वार्थ की आंधी में जिसे जो भी मिल रहा है उस पर अपना अधिकार जमा रहा है। आदमी की दौड़ चन्द्रमा और मंगल की ओर भी लग रही है। विकास के नाम पर आसपास के वन, पर्वत, घाटी, पठार, मरुस्थल, झील, सरोवर, नदी और समुद्र जैसी भौतिक रचनाओं को ध्वस्त करते हुए मनुष्य के हस्तक्षेप पारिस्थितिकी के संतुलन को बार-बार छेड़ रहे हैं। यह प्रवृत्ति ज़बर्दस्त असंतुलन पैदा कर रही है जिसके परिणाम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला, तूफ़ान, भू-स्खलन और सुनामी आदि तरह-तरह के प्राकृतिक उपद्रवों में दिखाई पड़ती है। मनुष्य के हस्तक्षेप के चलते जैव विविधता घट रही है और बहुत से जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ समाप्त हो चुकी हैं और कई विलोप के कगार पर पहुँच रही हैं। हमारा मौसम का क्रम उलट-पलट हो रहा है। गर्मी, जाड़ा और बरसात की अवधि खिसकती जा रही है जिसका असर खेती, स्वास्थ्य और जीवन-क्रम पर पड़ रहा है।

वैश्विक रपटें ग्लेशियर पिघलने और समुद्र के जलस्तर के ऊपर उठने के घातक परिणामों की प्रामाणिक जानकारी दे रही हैं जो इस अर्थ में भयानक हैं कि यदि यही क्रम बना रहा तो कई देशों के नगर ही नहीं कई देश भी डूब जाएंगे। प्रगति के लिए किए जाने वाले हमारे कारनामों से ऐसी गैसों का उत्सर्जन ऐसे स्तर पर पहुँच रहा है जो वायुमण्डल को ख़तरनाक ढंग से प्रभावित कर रही हैं। उल्लेखनीय है कि इस तरह कार्यवाही विकसित देशों द्वारा अधिक हो रही है। संसाधनों के दोहन का हिसाब लगाएँ तो भेद इतना दिखता है कि जर्मनी और अमेरिका की तरह ही यदि सभी देश उपभोग करने लगें तो एक धरती कम पड़ेगी और हमें कई धरतियों की ज़रूरत पड़ेगी।

इसके बावजूद कि प्रकृति के सभी अंगों में परस्पर निर्भरता और पूरकता होती है, हम बदलावों को नजरअंदाज करते रहते हैं। इस उपेक्षा वृत्ति के कई कारण हैं। एक तो यह कारण है कि ये परिवर्तन अक्सर धीमे-धीमे होते हैं और सामान्यत: आम जनों को उनका पता ही नहीं चलता। और कई महत्वपूर्ण बातों की जानकारी भी नहीं है। उदाहरण के लिए आक्सीजन, वृक्ष और कार्बन डाई आक्साइड इनके बीच के रिश्ते हम ध्यान में नहीं ला पाते। आज पेड़ों की आए दिन कटाई हो रही है और उसकी जगह कंक्रीट के जंगल मैदानों में ही नहीं पहाड़ों पर भी खड़े हो रहे हैं। जीवन की प्रक्रिया से इस तरह का खिलवाड़ अक्षम्य है पर विकास के चश्मे में कुछ साफ़ नहीं दिख रहा है और हम सब जीवन के विरोध में खड़े होते जा रहे हैं।

दूसरा कारण यह है कि प्रकृति और पर्यावरण किसी अकेले का नहीं होता। उसकी जिम्मेदारी समाज या समुदाय की होती है और लोग उसे सरकार पर छोड़ देते हैं। इसका परिणाम उपेक्षा होता है। अत्यंत पवित्र मानी जाने वाली नदियों का प्रदूषण इस तरह की गतिकी की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। आज काशी में गंगा और दिल्ली में यमुना घोर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं पर राह नहीं निकल रही है।

ऐसे ही वायु-प्रदूषण, मिलावट और तरह-तरह की सीमाओं के अतिक्रमण के फलस्वरूप जीवन ख़तरे में पड़ रहा है। अर्थात धरती का स्वास्थ्य खराब हो रहा है और उसे रोगी बनाने में मनुष्य के दूषित आचरण की प्रमुख भूमिका है। विकास की दौड़ में भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और बाज़ार-प्रधान युग में मनुष्यता चरम अहंकार और स्वार्थ के आगे जिस तरह नतमस्तक हो रही है वह स्वयं जीवन-विरोधी होती जा रही है। संयम, संतोष और अपरिग्रह के देश में जहां महावीर, बुद्ध और गांधी जैसे महापुरुषों की वाणी गुंजरित है और जिन्होंने अपने जीवन और कर्म से अहिंसा और करुणा का मार्ग दिखाया था हम निर्दय हो कर प्रकृति और धरती की नैसर्गिक सुषमा को जाने अनजाने नष्ट कर रहे हैं।

यदि जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा अपने जीवन की रक्षा के लिए करनी होगी। प्रकृति हमारे जीवन की संजीवनी है, भूमि माता है और उसकी रक्षा और देख-रेख सभी प्राणियों के लिए लाभकर है। इस दृष्टि से नागरिकों के कर्तव्यों में प्रकृति और धरती के प्रति दायित्वों को विशेष रूप से शामिल करने की जरूरत है। दूसरी ओर प्रकृति के हितों की रक्षा के प्रावधान और मजबूत करने होंगे।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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