बस अब और नहीं ईश्वर… अब और नहीं… क्या कर डाला यह… अपनी ही तपोभूमि को श्मशान बना डाला… शंखनाद करते कंठों को रुदन से भर डाला… भक्ति भाव से झूमते लोगों को मरघट के सन्नाटों की भेंट चढ़ा डाला… और कितनी लाशें, कितने शव, कितने आंसू… कोई भला अपने सृजन का स्वयं ही ऐसा विनाश करता है क्या… भक्ति में उठे हुए हाथ, झुके हुए सिर और निष्प्रभाव आप… यह तेरे होने की परीक्षा है… अस्तित्व को चुनौती है… युगों-युगों के विश्वास की परीक्षा है… एक महामारी तेरे विश्वास पर भारी पड़ रही है… तेरी दी हुई सांसें कोई और छीन रहा है… तेरा दिया अनुराग कोई लूट रहा है… विश्वास तेरा तार-तार है… सारा जग बेजार है… कोई किस रूप में तुझे चाहता है… कोई रब कोई अल्लाह तो कोई ईश्वर तुझे पुकारता है… लेकिन तू पत्थर की भांति कैसे निहार सकता है… जाना सबको तो एक दिन है…लेकिन अधूरी आशाएं, अधूरे सपने, मासूम से अपने इन्हें छोडकर कोई इस तरह कैसे जा सकता है कि ना अपनों का साथ हो ना अपनों का हाथ हो… सफेद चादर में लिपटी एक निर्जीव काया और ऐसी ही फूंकने की विवशता… क्या यह तेरी बनाई सृष्टि नहीं… यह तेरा प्रतीक स्वरूप नहीं…. फिर है क्या यह… मानव जाति के विनाश की इस विभिषिका का बोझ लिए जो बच जाए वो खेर मनाए और जो मिट जाए उनके अपने आंसू बहाएं… जीवन के संघर्षों की राह पर चलते हुए फिर तेरे सामने नतमस्तक हो जाए… यही होगा…लेकिन उन झुके हुए मस्तकों के सवालों के आगे आस्था कैसे सिर उठा पाएगी… रोक दो यह तांडव… खत्म करो यह विनाशलीला… पराजित कर दो इस महामारी को… जब दुनिया विरक्त विव्हल हो जाती है तो तेरे ही दर पर आती है… गुहार लगाती है.. और शांति पाती है… तुने सृष्टि बनाई… हवा, पानी, सूरज, धूप, छाया जैसी प्रकृति रचाई… लेकिन तेरी बख्शी सांसें आज मशीनों की मोहताज है… वातावरण में फैली वायु का प्रवाह प्राण बचाने के लिए मचल रहा है… इंसान इस विवशता को खेल समझ रहा है… अपने सृजन पर इठलाते मानव की प्रकृति से इस खिलवाड़ का तांडव दुनिया देख चुकी… चंद लोगों को जगत जीतने की इस अभिलाषा से उत्पन्न इस महामारी का विनाश करो.. चरम पर पहुंचे इस मर्म से मुक्ति दिलाओ… अपनी सृष्टि को बचाओ… हमारी आंतरिक शक्ति जगाओ… दुनिया को विश्वास दिलाओ… अपने होने का अहसास कराओ..
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