आइये आज आपको तीस बरस से बी जिय़ादा पुराने फिलेशबेक में ले चलें। ये साल 1991 का दौर है। इंदौर के नईदुनिया का बंटवारा हो चुका है। इंदौर की मिल्कियत अभय छजलानी साब के कने तो भोपाल का सरमाया मरहूम नरेंद्र तिवारी के वारिसान राजेन्द्र तिवारी और डॉक्टर सुरेश तिवारी के खाते में आता है। एक एक कील कांटे का बंटवारा होता है। तब भोपाल के रजिस्ट्रार फर्म एंड सोसायटी गंगा बाबू के मशवरे से भोपाल में अखबार का नाम बदल के दैनिक नईदुनिया कर दिया जाता है। माशा अल्ला इस अखबार में क्या रौनकें हुआ करती थीं। क्या महफिलें सजा करती थीं। पिरेस काम्पलेक्स के इस अखबार के दफ़्तर में तमाम नेता, अभिनेता और नोकरशाहों कि आमद-ओ-रफ्त रहती। पूरा दैनिक नईदुनिया का परिसर देर रात तलक रोशनी से रोशन रेता। झां बी खां इंदौर की नईदुनिया की तरा अखबार मालिक, संपादक वगैरा बजाय चैम्बरों के पूरे स्टाफ के साथ ही बैठते थे। अपनी पूरी ठसक और जलवे के साथ अखबार के एडिटर जनाब मदनमोहन जोशी (अब मरहूम ) दफ़्तर में नमूदार होते तो माहौल खिंच जाता। उन्ने और राजेंद्र तिवारी साब ने उस वखत की भोत जानदार एडिटोरियल टीम जुटाई थी। गोया के जाने माने पत्रकार देवप्रिय अवस्थी, राजेश बादल, मुकेश कुमार, सर्वदमन पाठक (हाल ही में इनका इन्तेकाल हुआ ), पूर्णेन्दु शुक्ला, सिद्धार्थ खरे (अब मरहूम), चंदा बारगल (मरहूम),गोपाल जोशी, पूर्णेन्दु शुक्ला, केडी शर्मा, राघवेंद्र सिंह और इन लफ्ज़़ों को लिख रहा ये खाकसार भी तब इस अखबार में रिपोर्टर था। इनके अलावा रविन्द्र केलासिया, विवेक सावरिकर मृदुल, संजय रायजादा, संजय चतुर्वेदी और संजय सक्सेना भी वहां उम्दा काम दिखा रहे थे। अखबार के बंटवारे वाली तारीख 1 अप्रेल 1991 को बड़े रूपोश अंदाज़ में पत्रकार उमेश त्रिवेदी, दिनेश जोशी, शिवकुमार विवेक,पंकज पाठक, अजय बोकिल, राजीव सोनी और राजेश सिरोठिया ने इंदौर वाली नईदुनिया के साथ जाने का फैसला कर जोशी जी को ज़ोर का झटका धीरे से दिया था। इससे उस दिन का अखबार निकलने में काफी दिक्कतें आईं। बहरहाल अखबार ने उम्दा रफ्तार पकड़ ली। मदन मोहन जोशी साब के ताल्लुकात की वजह से वहां आईएएस अशोक वाजपेयी साब बी आते और अपने मज़मून लिखते। घनश्याम सक्सेना साब संपादकीय लिखते। साहित्यकार ध्रुव शुक्ल और रमेश दवे भी नियमित कंट्रीब्यूट करते। तब दैनिक नईदुनिया के कॉलम अक्षर विश्व, पोथी पढ़ी पढ़ी और महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का कालम सुनो भई साधो बहुत मक़बूल थे। विवेक सावरिकर परसाई जी को कॉर्डिनेट करते थे। अखबार हर लिहाज से भोत जानदार निकलता था। उस वखत हर रिपोर्टर को दैनिक नईदुनिया मैनेजमेंट चाय के 30 कूपन देता था। अखबार के गेट पे एक छोटा सा ठिया था। वहां एडीटोरियल स्टाफ कूपन देके चाय पीता। इसी ठीये पे पांच रुपए का आलू पराठा मिलता था। इसे खाने के लिए भास्कर, नव भारत और जागरण के पत्रकार भी आते। लिहाज़ा ये ठिया पत्रकारों का मिलन स्थल ही बन गया था। बाकी इत्ती भेतरीन टीम धीरे धीरे बिखर गई। 1994 तलक देवप्रिय अवस्थी, राजेश बादल, मुकेश कुमार, चंदा बारगल सहित भोत सारों ने दैनिक नईदुनिया से रवानगी डाल दी। अखबार पिटने लगा। शायद साल1999 आते आते जोशी जी ने भी यहां से विदा ले ली। ये जो फोटू आप देख रहे हैं ये 1994 में देवप्रिय अवस्थी जी के फेयरवेल का है। इसमें मदन मोहन जोशी साब और राजेंद्र तिवारी साब के साथ उस वखत का एडीटोरियल स्टाफ नजऱ आ रहा हैं आज ये अखबार बस नाम भर को ही जि़ंदा है। महज तीन चार बंदे ही वहां हैं। गुजिश्ता दिनों सूरमा का किसी काम से वहां जाना हुआ तो गुलज़ार साब का ये शेर यकलख्त ज़ुबाँ पे आ गया-यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं, सौंधी सौंधी लगती है तब माज़ी की रुसवाई भी।
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