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कांग्रेसः गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष का भविष्य

– डॉ. रामकिशोर उपाध्याय

कांग्रेस को छह माह में नया अध्यक्ष चुनना है। पार्टी का पिछले सौ वर्षों का इतिहास बताता है कि वहाँ गाँधी-नेहरू परिवार के सदस्य या उनके प्रतिनिधि को ही स्थायित्व मिल पाता है। यद्यपि परिवार की सहमति के बिना भी कई प्रभावशाली लोग अध्यक्ष बने किन्तु वे टिक नहीं पाए। पार्टी के भीतर भी परिवार का अपना संगठन है जो सभी को नियंत्रित करता है। गाँधी परिवार पर मुखर होनेवालों के लिए पार्टी से बाहर जाने का मार्ग खोल दिया जाता है।

अबतक कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को प्रश्नाकिंत करने वाले को अंततः पार्टी छोड़नी पड़ी है। स्वयं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को भी कांग्रेस छोड़नी पड़ी थी तथापि वे कांग्रेस के दोबारा अध्यक्ष बन गए थे और अत्यंत लोकप्रिय भी थे। ठीक इसी प्रकार सन् 1950 में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन भी नेहरू जी के चहेते प्रत्याशी आचार्य जे.बी. कृपलानी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष तो बन गए, किन्तु उन्हें पग-पग पर असहयोग और आलोचना का सामना करना पड़ा। टंडन जी को 1306 वोट मिले थे जबकि नेहरू समर्थित कृपलानी जी को 1092 मत मिले। इतने बड़े अंतर से जीतने वाले टंडन जी को भी अंततः विवश होकर अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा।

इंदिरा गांधी के समय की घटनाएँ तो सबको पता ही हैं। उन्होंने तो कांग्रेस को तोड़कर इंदिरा कांग्रेस बना ली और आज वही कांग्रेस मूल कांग्रेस मानी जाती है। कांग्रेस में वह कालखण्ड भी आया जब किसी नेता में शीर्ष नेतृत्व के समक्ष बोलने की हिम्मत नहीं थी। संजय गाँधी के सामने शायद ही कोई कांग्रेसी नेता खुलकर अपनी बात कह पता हो! राजीव गांधी अवश्य सौम्य और सज्जन माने जाते रहे। उनके बाद जबतक परिवार नेतृत्व के लिए तैयार हुआ उस काल में कुछ गैर गाँधी अध्यक्ष बन गए। किन्तु अंतिम `अ’ गाँधी अध्यक्ष सीताराम केसरी को सर्वाधिक अपमानजनक रूप से पद त्यागना पड़ा। सोनिया गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले जितेन्द्र प्रसाद के बेटे को अभी भी उनके पिता के कार्यों के लिए उलाहना दिया जाता है। अब उसी अध्यक्ष पद को लेकर पार्टी के भीतर से वरिष्ठ नेताओं का एक समूह गाँधी परिवार से प्रार्थना कर रहा है कि उसे एक स्थाई अध्यक्ष दे दिया जाए। चूँकि इस माँग में किसी योग्य अ गाँधी को पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने का आग्रह भी छिपा है इसीलिये इसे परिवार और पार्टी के प्रति विश्वासघात के रूप में देखा जा रहा है। अब इन नेताओं का भी पार्टी के भीतर-बाहर असहयोग एवं विरोध किया जा रहा है।

कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को चिठ्ठी लिखने वाले 23 नेताओं के पर कतरने का अभियान जोर पकड़ने लगा है। यद्यपि सोनिया ने व्यक्तिगत रूप से इन नेताओं को फ़ोन कर अपने मन में कोई वैर-भाव न होने का सन्देश दिया है किन्तु राहुल गाँधी ने जिस आक्रामकता के साथ उनपर भाजपा से मिले होने का आरोप लगाया और बाद में इसका कोई खंडन भी नहीं किया, इससे कांग्रेस के भीतर अब इन्हें गाँधी परिवार का विरोधी घोषित करने की प्रतियोगिता चल पड़ी है। इन नेताओं के लिए ‘इनको और न उनको ठौर’ वाली स्थिति निर्मित हो गई है। गुलाम नबी आजाद को अल्पसंख्यक होने के कारण राज्यसभा में पद से वंचित नहीं किया जाएगा किन्तु कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी और शशि थरूर को पार्टी ने लोकसभा एवं राज्यसभा में नवगठित कमेटियों में कोई स्थान नहीं दिया। पार्टी के भीतर अबतक ये लोग गाँधी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कारण महत्वपूर्ण माने जाते थे किन्तु अब इनपर निष्ठा परिवर्तन का आरोप लगने के कारण इन्हें धीरे-धीरे किनारे लगा दिया जाएगा।

चिठ्ठी पर हस्ताक्षर करने वाले युवा नेता जतिन प्रसाद के विरुद्ध यूपी के लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन और नारेबाजी हुई, उन्हें पार्टी से निष्कासित किये जाने की माँग भी की जा रही है। शशि थरूर तो राहुल गाँधी को अनावश्यक विरोध से बचने का सुझाव देने के कारण पहले ही विरोध का सामना कर रहे हैं। कपिल सिब्बल ने इस लड़ाई के लम्बे खिंचने के संकेत दिए हैं किन्तु अब अधिकांश के स्वर बदलते हुए दिख रहे हैं। गुलाम नबी आजाद और शशि थरूर निरंतर स्वयं को गाँधी परिवार का अनन्य सेवक बता रहे हैं, तो जतिन प्रसाद भी बार-बार आस्था का प्रकटीकरण कर रहे हैं। विरोधी नेता जानते हैं कि यदि किसी भी अ-गाँधी को अध्यक्ष पद पर बिठा भी दिया जाए तो गाँधी परिवार के सहयोग के बिना टिक नहीं पाएगा।

कांग्रेस के इस संकट का हल राहुल गाँधी के पास ही है। वे या तो अध्यक्ष न बनने की प्रतिज्ञा वापस लें और स्वयं अध्यक्ष पद स्वीकार करें या प्रियंका गाँधी को आगे लायें। इसके अतिरिक्त केवल एक मार्ग और है, वह यह कि परिवार के तीनों सदस्य एक साथ मिल-बैठकर परिवार के किसी निष्ठावान को अध्यक्ष पद पर बिठाकर राहुल को संरक्षक घोषित कर बची-खुची कांग्रेस को पुनः खड़ा करना आरंभ करें। अनिर्णय की स्थिति से कांग्रेस पार्टी का बचा-खुचा जनाधार भी लुप्त हो जाएगा और जो दो-चार प्रभावशाली युवा नेता बचे हैं वे भी इधर-उधर चले जाएँगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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