इंदौर न्यूज़ (Indore News)

दीवार पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट पढ़ लेते हार और जीत, लेकिन कांग्रेस जनआक्रोश के भरोसे ही रही, तो भाजपा के दिल्ली दरबार ने किया चुनावी रणनीति पर कब्जा

  • अग्निबाण आंकलन… अभी दोनों ही प्रमुख दल 100 फीसदी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं, सट्टा बाजार से लेकर तमाम विश्लेषक भी 50-50 चांस बता रहे हैं सरकार बनाने के, अब तीन दिसम्बर को ही हकीकत लगेगी पता

इंदौर (Indore)। इस बार का विधानसभा चुनाव जहां रोमांचक रहा, वहीं अब परिणामों पर ही सबकी निगाहें टिकी है। तमाम विश्लेषकों, मीडिया से लेकर, जनचर्चा में किसी भी दल में 100 फीसदी सरकार बन ही जाएगी इस तरह के दावे सामने नहीं आ रहे हैं। शुरुआत में सट्टा बाजार ने भी जो आंकड़े दिए उसमें कांग्रेस की कुछ ही सीटें अधिक बताई है और भाजपा की उससे थोड़ी कम। यानी फिफ्टी-फिफ्टी के चांस ही 5-10 सीटें इधर-उधर होने पर संभव है और किसी भी दल की सरकार बन सकती है। कांग्रेस चाहती तो इस जन आक्रोश को और भी ताकतवर हथियार बनाकर मैदान में उतरती तो उसकी जीत की संभावनाएं दीवार पर लिखी इबारत की तरह हर कोई स्पष्ट पढ़ लेता। यानी तब लहर अंडरग्राउंड नहीं, बल्कि ग्राउंड यानी सतह पर बहती। साफ महसूस होती।

इसी तरह भाजपा भी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। इस बार भाजपा ने शुरुआत में तो कुछ नए प्रयोग किए, मगर बाद में वह भी एंटी इन्कमबेंसी के असर के चलते घबरा गई और फिर कोई नया प्रयोग उम्मीदवार चयन में तो नहीं किया। अलबत्ता चुनावी रणनीति पर अवश्य दिल्ली दरबार ने कब्जा कर लिया। पिछले साढ़े 9 साल से केन्द्र की सत्ता में काबिज भाजपा दरअसल चुनावी मशीन की तरह काम करती है और सरपंच से लेकर लोकसभा सांसद तक का चुनाव पूरी गंभीरता से लड़ती है। सत्ता के साथ-साथ सारे साधन-संसाधन तो झोंक ही दिए जाते हैं। वहीं उसके मजबूत संगठन के साथ-साथ उसे संघ का भी पूरा साथ मिल जाता है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों में अधिकांश चुनाव की बागडोर रहती है और वे ही प्रचार-प्रसार का सबसे बड़ा चेहरा भी होते हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास संगठन नाम की कोई चीज कभी नहीं रही।


थोड़े-बहुत प्रयास पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय महासचिव कमलनाथ ने प्रदेश में घूम-घूमकर किए भी। मगर कांग्रेस में पार्टी की बजाय उम्मीदवार ही चुनाव लड़ता है और वह खुद अपने बलबुते पर साधन-संसाधन, कार्यकर्ता जुटाने के साथ-साथ पूरी चुनावी तिकड़म-रणनीति भी खुद ही बनाता है। हालांकि कांग्रेस की ओर से भी उसके स्टार प्रचारकों में शामिल अध्यक्ष श्री खडगे सहित राहुल-प्रियंका और अन्य ने भी मोर्चा संभाला, लेकिन कांग्रेस का पूरा फोकस जनआक्रोश यानी एंटी इन्कम्बेंसी पर ही टिका रहा। कांग्रेस ने यह मान लिया कि चूंकि मध्यप्रदेश में आमने-सामने दो ही दल रहते हैं और कोई तीसरी शक्ति इतनी ताकतवर है भी नहीं। बसपा, सपा का कुछ असर थोड़ी-बहुत सीटों पर रहता है और आप पार्टी ने भी कुछ सीटों पर उम्मीदवार उतारे। ऐसे में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सभी 230 सीटों पर रहा। कुछ सीटों पर अवश्य इन दोनों दलों के बागियों ने त्रिकोणीय मुकाबला कर दिया। अब देखना यह है कि जनता यानी मतदाता ने क्या फैसला किया, जो कि 3 दिसम्बर को ही उजागर हो सकेगा, जिस दिन मशीनें परिणाम उगलेंगी।

इस बार डाक मतपत्र इसीलिए निर्णायक साबित होंगे
इस बार आयोग ने जहां 80 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों और विकलांगों को घर बैठे मतदान की सुविधा दी और 1 लाख से अधिक लोगों ने इस सुविधा का लाभ उठाया है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने जो वरिष्ठ पेंशन योजना यानी ओपीएस का वादा किया उससे भी डाक मतपत्रों की संख्या में इजाफा हुआ है, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवार को इस पेंशन योजना से लाभ मिलेगा। यही कारण है कि इस बार डाक मतपत्र जहां अधिक संख्या में डाले गए, वहीं कई सीटों पर यह निर्णायक भी साबित होंगे। इसीलिए कांग्रेस लगातार डाक मतपत्र गायब होने के आरोप भी लगा रही है।

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