– ऋतुपर्ण दवे
क्या पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव वाकई देश की राजनीति में नया प्रयोग का रास्ता बनने जा रहे हैं। यूँ तो अब तक इस मिथक को तोड़ा नहीं जा सका है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरता है। काफी हद तक सही भी है। उत्तर प्रदेश के उत्तराखण्ड में बँट जाने के बाद भी हैसियत में कोई कमी नहीं आई। लेकिन राजनीतिक दलों के बनते- बिगड़ते समीकरणों से नया कुछ होने के आसार से इनकार नहीं किया जा सकता। यह तो सही है कि जीतेगा तो लोकतंत्र लेकिन सत्ता की कुर्सी पर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में ऊँट किस करवट बैठेगा, कहना मुश्किल जरूर है।
देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले अकेले उत्तर प्रदेश की हैसियत 10 मार्च को किस मोड़ पर होगी, अभी कयास ही हैं। पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हालात काफी अलग हैं। सीधी टक्कर सत्ताधारी भाजपा व सहयोगियों तथा सपा व सहयोगियों के बीच है। बसपा और काँग्रेस मैदान में जरूर हैं पर रेस में दिखते नहीं। 2017 की तरह इसबार किसी लहर का कहर न होने से बाकी दलों की आस बची हुई है। हाँ, इस बात से इनकार नहीं कि चुनावी नतीजे 2017 से इतर होंगे।
उत्तर प्रदेश की सियासत का एक अलग मिजाज है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों को स्थानीय उम्मीदों व जातीय आधार पर तय करते हैं। अगड़े-पिछड़े और दलित मतदाताओं की भूमिका की छाप सबसे ज्यादा यहीं दिखती है। वोट कटवा, बी पार्टी, डमी कैण्डिडेट और धार्मिक मुद्दों पर जैसी संवेदनशीलता उत्तर प्रदेश में दिखा करती है, वैसी दूसरे राज्य में उतनी नहीं। इस कारण भी इसबार के चुनाव काफी अलग हैं। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अयोध्या विवाद निपटारे के बाद, तेजी से बन रहे राम मंदिर और राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट का वादा कि साल 2023 में गर्भगृह में रामलला विराजमान होंगे चुनाव में असर डालेगा। हिजाब का मसला भी ऐन चुनाव के वक्त भले ही सोची-समझी चाल या महज इत्तफाक हो लेकिन अलग ढंग से भुनाने की कोशिशें होंगी। उत्तर प्रदेश के पहले चरण और दूसरे चरण के मतदान के बाद राजनीतिक दलों के दावे कुछ भी हों लेकिन नतीजों का पिटारा खुलने के बाद ही समझ आएगा कि उत्तर प्रदेश का देश की राजनीतिक धारा मे कैसा दबदबा बना।
उत्तराखण्ड की सभी 70 व गोवा की 40 सीटों के चुनाव भी 14 फरवरी को निपट गए। चुनाव से ठीक पहले यहाँ भी हिजाब विवाद के बीच मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का वादा कि भाजपा सरकार बनी तो शपथ ग्रहण के तुरंत बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कराने खातिर ड्राफ्ट कमेटी बनेगी जिसके दायरे में विवाह, तलाक, जमीन जायदाद व उत्तराधिकार के मामले भी शामिल होंगे, बड़ा राजनीतिक पैंतरा रहा। भाजपा ने उत्तराखण्ड में बड़े-बड़े प्रयोग करते हुए चार साल के कार्यकाल में तीन मुख्यमंत्री बदले। धामी उनमें सबसे नए हैं। यहाँ आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और दिल्ली पैटर्न का प्रचार कर अपनी जड़ें जमाने तो काँग्रेस साख बचाने के लिए संघर्षशील दिखी।
सुन्दर समुद्र तटों और एक अलग तरह के खुलेपन के लिए मशहूर गोवा में भाजपा के लिए चुनौती पेश करने की कोशिशें कितनी सफल या विफल हुई, नतीजे बताएंगे। लेकिन हाँ इतना जरूर है कि मनोहर पर्रिकर जैसे ईमानदार नेता की कमी जरूर गोवा वासियों को सालती रही। पहली बार टीएमसी की धमाकेदार एँट्री से राजनीतिक समीकरण शुरू में जरूर बदलते दिखे। लेकिन जल्द ही कइयों की रुखसती से बड़े करिश्मे की उम्मीद बेकार है। आम आदमी पार्टी भी यहाँ पूरी दमखम से चुनावी मैदान में दिखी जिसका फायदा तय है। लेकिन शिवसेना की गोवा में एँट्री और 10 सीटों पर उम्मीदवारी से सत्ता तक पहुँचने वालों को कितनी मशक्कत करनी पड़ेगी यह वक्त बताएगा। मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल के निर्दलीय चुनाव लड़ने के बाद पणजी सीट से शिवसेना ने उम्मीदवार वापस कर भविष्य के बड़े संकेत जरूर दे दिए हैं। काँग्रेस कहाँ होगी? क्या इसबार सत्ता तक पहुँच पाएगी, इस पर संदेह सभी को है। हाँ, आत्मविश्वास से लबरेज अरविन्द केजरीवाल यहाँ भी दिल्ली सरकार का उदाहरण और सरकारी सेवाओं की डोरस्टेकप डिलीवरी से भ्रष्टाचार के पूरी तरह खात्मे का भरोसा दिलाकर 24 घंटे फ्री बिजली देने का चुनावी वायदा कितना दमदार रहा यह मतपेटियों के खुलने के बाद दिखेगा।
इस बार पंजाब की राजनीति एक त्रिकोण में जरूर फंसी दिखी। कैप्टन अमरिंदर की काँग्रेस से विदाई और भाजपा से दोस्ती तो सिध्दू के अलग-अलग तेवरों बीच ऐन चुनाव से ठीक पहले दलित कार्ड खेलकर नए मुख्यमंत्री चन्नी को फिर से मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करना पंजाब की राजनीतिक हवा का कितना रुख बदल पाएगा नहीं पता। वहीं आम आदमी पार्टी का भी भगवन्त मान को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर मतदाताओं को लुभाना राजनीति में नया प्रयोग जरूर है। लेकिन लोकतंत्र से इतर है क्योंकि विधायकों के बने बिना ही हक छीनना बेजा लगता है। भाजपा और अकाली दल आज भले एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हों लेकिन दखल और धमक की अनदेखी करना बड़ी भूल होगी। पंजाब में सरकार किसी एक दल की होगी या फिर चुनावों के वक्त के बाद कट्टर विरोधी मिल जुलकर सत्ता में बैठेंगे, यह देखने लायक होगा। लजीज पंजाबी डिशेज, मशहूर लस्सी के बीच ड्रग्स की सियासत से पंजाब की अलग बनती छवि का असर चुनावों पर दिख रहा है।
मणिपुर की 60 सीटों पर दो चरणों में 28 फरवरी और 5 मार्च को चुनाव होंगे। मणिपुर हिन्दू बहुल राज्य है और आखिरी चरण में चुनाव है। सो देश के नामीगिरामी चेहरों की शिरकत तय है। 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद काँग्रेस सत्ता से दूर रह गई। जबकि 21 सीटें जीत भाजपा ने स्थानीय दलों व विधायकों से गठजोड़ कर सत्ता हासिल कर ली। इस बार भाजपा गठबंधन की खास सहयोगी नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की बगावत कितनी असरकारक होगी यह नतीजे बताएंगे लेकिन भाजपा के 19 असंतुष्टों को टिकट देकर चुनाव को रोचक जरूर बना दिया है। जबकि काँग्रेस ने सेक्युलर दलों को साथ लेकर नई रणनीति बनाई है। बीते चुनाव में केवल 3 विधायक कम होने के बावजूद फौरन निर्णय में विफल काँग्रेस से 10 सीटें पीछे रहने वाली भाजपा सरकार बना ले गई। क्या इसबार भी ऐसा ही कुछ नया या दिलचस्प होगा। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी), नागा पीपुल्स फ्रण्ट (एनपीएस) के साथ ही वामपंथी खेमा भी पूरी तरह लामबन्द है जिससे चुनाव का एक अलग ही दृश्य नजर आता है। हाँ, इतना जरूर है कि यहाँ की राजनीतिक सोच अनप्रिडेक्टिबल यानी अप्रत्याशित होती है। क्या इस बार भी होगी?
तो क्या माना जाए कि पाँच राज्य मिलकर देश में 2024 में बनने वाली नई सरकार की तकदीर की तदबीर लिखेंगे या फिर अकेले उत्तर प्रदेश से ही यह रास्ता हमेशा की तरह निकलेगा? इंतजार है 10 मार्च का, नतीजे कुछ भी हों अगले आम चुनाव के लिए जहाँ ये लिटमस टेस्ट तो होंगे ही, मुमकिन है कि राजनीति की नई इबारत भी बनें।
( लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
Share: