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एक सभ्यताई योद्धा ‘गुरु तेगबहादुर’

भानु कुमार

नई दिल्ली। यह महीना गुरु तेगबहादुर के जन्म का है। जबकि उनके जीवन में मई 1675 की घटना इतिहास महत्व की है। वे आनंदपुर साहिब में थे। वहीं कश्मीरी पंडितों का एक जत्था गुरु तेग बहादुर से मिलने पहुंचा। जत्थे में 500 कश्मीरी पंडित थे, जिसका नेतृत्व पंडित कृपा राम कर रहे थे।

पंडित कृपा राम ने गुरु को अपनी पीड़ा बताई। यह कहा- ‘कश्मीर में मुगलिया सल्तनत ‍इस्लाम को स्वीकार करने के लिए हिन्दुओं को तरह-तरह की यातनाएं दे रही है।’ बात गंभीर थी। पूरी घटना का विवरण सुनकर गुरु तेग बहादुर गहरी सोच-विचार में डूब गए। कुछ क्षण विचार कर वे उन पंडितों से बोले- ‘आप जाकर औरंगजेब से कह ‍दीजिए कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया तो हम सभी इस्लाम ग्रहण कर लेंगे।’

इसका परिणाम क्या होगा? उससे गुरु तेग बहादुर अच्छी तरह परिचित थे। कश्मीरी पंडितों की बात सुनकर औरंगजेब आग-बबूला हो उठा। उसने तत्काल गुरु तेग बहादुर को बन्दी बनाने के आदेश दिए। उन्हें दिल्ली लाया गया। खूब यातनाएं दी गईं। इसके बावजूद गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

आखिरकार वे कश्मीरी पंडितों के धर्म की रक्षा के लिए शहीद हो गए। अपने कश्मीरी भाइयों को जो वचन दिया था, उसे निभाया। गिनती करें तो इस घटना के 345 साल हो गए हैं। हर साल 23 नवंबर को गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस मनाया गया। वे सिखों के नौवें गुरु रहे हैं, इसलिए एक धारणा बन गई है कि शहीदी दिवस सिख परंपरा में मनाया जाने वाला धार्मिक पर्व है।

लेकिन, इतिहास को ठीक से पढ़ें और समझें तो सच उभरकर आता है। यह बात स्पष्ट होती है कि यह पर्व सही मायने में हिन्दुओं का उतना ही है, जितना सिख समुदाय का। एक अर्थ में यह भारतीय समाज का शहीदी पर्व है। गुरु तेग बहादुर की शहादत धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखने की पहली अहिंसक क्रांति थी। इससे पहले कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है, जहां दूसरों के धर्म की रक्षा के लिए किसी ने प्राण दिया हो।

एक बार इस सवाल पर विचार करें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने प्रतिरोध स्वरूप अपना जीवन बलिदान न किया होता, तब क्या होता? जवाब साफ है। आज जिस भारत को हम सभी देख रहे हैं, यकीनन वह नहीं देख पाते। खुद को बलिदान कर गुरु तेग बहादुर ने ऐसी परंपरा की नींव रख दी, जिससे भारत के सनातन धर्म के मूल भाव को कोई क्षति नहीं पहुंची।

आजाद भारत में जिस धार्मिक सहिष्णुता की बात होती है, गुरु तेग बहादुर की शहादत के बगैर वह समय के गर्त में दब गई होती। इस पर कोई बहस की गुंजाइश नहीं है कि धार्मिक आधार पर शोषण के खिलाफ प्रतिरोध की सबसे बड़ी सीख गुरु तेग बहादुर ने हमें दी।

उमध्यकालीन भारत के अराजक दौर में गुरु तेग बहादुर ने भारत के इतिहास की उस सभ्यता मूलक कड़ी को टूटने से बचा लिया, जहां ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के साथ-साथ ‘सर्वधर्म समभाव’ का भाव निहित है। एक अराजक वातावरण में गुरु तेग बहादुर सत्ता के खिलाफ खड़े हुए और ‘मानव अधिकार’ की अहिंसक लड़ाई लड़ी।


वे यह मानते थे कि धर्म के आधार पर भेद-भाव करना राज्य के लिए ठीक नहीं है। अगर ऐसा हो तो संघर्ष का तरीका शांति पूर्वक भी हो सकता है। वे अहिंसक प्रतिरोध के ताकतवर योद्धा थे। औरंगजेब के शासन काल में घनघोर हिंसा का दौर चल रहा था। उस कालखंड में गुरु तेग बहादुर ने इस तथ्य को स्थापित कर दिया कि विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी अहिंसक संघर्ष युगांतकारी और प्रभावशाली होता है।

इस गौरवशाली इतिहास का दुखद पहलू यह है कि भारत की बड़ी आबादी इस घटना से भली-भांति परिचित नहीं है। इतिहास लेखन के दौरान भी इस घटना को अधिक महत्व नहीं दिया गया।

यह बात ध्यान देने वाली है कि भारत के समाज पर राजनीति का असर तात्कालिक होता है, लेकिन धार्मिक आंदोलन का असर गहरे रहा है। शताब्दियों तक उसका असर समाज पर रहता है। गुरु तेग बहादुर ने समाज में जिस अलख को जगाया, उसकी ताप को आज भी लोग महसूस करते हैं।

उल्लेखनीय है कि गुरु तेग बहादुर अमृतसर में पैदा हुए थे। तारीख थी- 18 अप्रैल 1621, वे गुरु हरगोबिन्द सिंह के पांचवें पुत्र थे। सिखों के आठवें गुरु हरकिशन राय की मृत्यु के बाद गुरु तेग बहादुर जी को गुरुगद्दी पर बिठाया गया था। उनके बचपन का नाम ‘त्यागमल’ था।

महज 14 साल की उम्र में अपने पिता के साथ मुगलों से करतारपुर में लोहा लिया था। वहां पुत्र की वीरता से खुश होकर पिता ने उनका नाम त्यागमल से ‘तेग बहादुर’ रख दिया था।

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