ब्‍लॉगर

दुर्भावना पर आधारित आंदोलन के दुष्परिणाम

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

महात्मा गांधी ने आंदोलनों को उच्च आदर्श पर प्रतिष्ठित किया था। सत्य के प्रति उनका आग्रह था। इसके आधार पर उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग चुना। इस पर वह अनवरत चलते रहे। उनके पहले दुनिया के अन्य देश इस प्रकार के संग्राम से अनभिज्ञ थे। शांति के माध्यम से किसी विदेशी सत्ता से टकराने की वह कल्पना नहीं कर सकते थे। महात्मा गांधी के विचार भारतीय चिंतन पर आधारित थे। इसमें अहिंसा को महत्व दिया गया। महात्मा गांधी के विचारों को विश्व स्तर पर सम्मान मिला। अनेक देशों में उनकी मूर्ति की स्थापित है। विश्व में शांति की जब भी चर्चा होती है, महात्मा गांधी का स्मरण किया जाता है। महात्मा गांधी की प्रेरणा से आजादी के बाद भी अनेक आंदोलन हुए। सत्य पर आधारित आंदोलनों को सफलता भी मिली। जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे के गांधीवादी आंदोलनों ने राष्ट्रीय स्तर पर अलख जगाई थी। जयप्रकाश नारायण व अन्ना हजारे का जीवन भी गांधी चिंतन पर आधारित था। इनके पास निजी संपत्ति के नाम पर दैनिक आवश्यकताओं तक सीमित सामग्री मात्र थी।

पिछले कुछ समय से चल रहे आंदोलन निराशाजनक रहे हैं। पहले असहिष्णुता के मसले पर आंदोलन चलाया गया। इसके बाद नागरिकता कानून पर आंदोलन हुआ। इस समय किसानों के नाम पर आंदोलन चल रहा है। यह सभी आंदोलन असत्य पर आधारित थे। कुछ अप्रिय घटनाओं को लेकर पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ने का आरोप लगाया गया। खास विचार के लोग सम्मान वापसी करने लगे। किसी ने कहा कि उनकी बेगम को भारत रहने पर डर लगने लगा है। इस आंदोलन ने दुनिया में भारत की छवि बिगाड़ने का काम किया। कुछ दिन में यह आंदोलन स्वतः समाप्त हो गया।

पड़ोसी मुल्कों में उत्पीड़ित भारतीय मूल के लोगों को नागरिकता प्रदान करने हेतु कानून बनाया गया। इस पर एकबार फिर दुर्भावना पर आधारित आंदोलन शुरू किया गया। कहा गया कि एक वर्ग विशेष की नागरिकता छीन ली जाएगी। कुछ ही दिनों में इस आंदोलन की असलियत सामने आ गई। नागरिकता कानून आज भी अस्तित्व में है। लेकिन इस पर हंगामा मचाने वाले पता नहीं कहाँ दुबक गए।

नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन को सुधार विरोधी बताया था। विपक्ष पर बौद्धिक बेईमानी और राजनीतिक छल का आरोप लगाया। सरकार ने कठिन और बड़े फैसले उन नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए उठाए जाने की जरूरत है, जिन्हें दशकों पहले उन्हें मिल जाना चाहिए था। विपक्षी दलों ने सत्ता में रहते हुए इन सुधारों वादा किया था। वर्तमान सरकार ने साहस के साथ तीन कृषि कानून बनाये। अब विपक्ष उनकी वापसी के लिए आंदोलन कर रहा है।

जाहिर है कि विपक्ष किसानों के नाम पर राजनीति करना चाहता है। किसानों की भलाई में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यह उनकी अवांछनीय और घृणित विशेषता है। उन्होंने यूटर्न लिया है। अपने द्वारा किए गए वादों पर सबसे दुर्भावनापूर्ण प्रकार की गलत सूचना फैलाई है। जन सामान्य को जो लाभ दशकों पहले मिलने चाहिए थे, वह वर्तमान सरकार उन्हें पहुंचा रही है। कॉंग्रेस सहित कई पार्टियों ने इसी तरह का वादा किया था। लेकिन अब स्वार्थी राजनीतिक कारणों से नए कानूनों के विरोध का समर्थन कर रही है। सरकार ने किसान संगठनों के साथ बारह बार बैठक की। लेकिन अभीतक नतीजा नहीं निकला।

गरीबों के लिए रसोई गैस सिलेंडर वितरण और शौचालय बनाने व डिजिटल भुगतान को बढ़ावा दिया गया। कोरोना कालखंड में भारत ने कई विकसित देशों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। हमारे बीच निहित स्वार्थ के तत्व भी हैं। जिनका एकमात्र उद्देश्य भारत का नाम खराब करना है। कोविड सभी देशों के साथ समान रूप से प्रभावित एक वैश्विक संकट था। ऐसे नकारात्मक अभियानों के बावजूद भारत ने बेहतर प्रदर्शन किया है। टीकाकरण में हमारी सफलता भारत के आत्मनिर्भर होने के कारण है। सरकार छोटे किसानों को हर तरह से सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे सभी उपद्रवों के सूत्रधार आन्दोलनजीवी ही रहे है। किसानों के नाम पर आंदोलन की शुरुआत शाहीनबाग अंदाज में हुई थी। उसकी तरह असत्य पर आधारित अभियान।

किसानों के नाम पर चल रहा आन्दोलन भी बड़े झूठ पर आधारित है। सीएए विरोध की तर्ज पर कहा जा रहा है कि कृषि कानूनों से किसानों की जमीन छीन ली जाएगी। वास्तविकता यह कि पुरानी व्यवस्था में किसान अपनी जमीन बेचने को विवश हो रहे थे। क्योंकि कृषि में लाभ कम हो रहा था। इसका फायदा पूंजीपति उठा रहे थे। नए कृषि कानूनों से किसानों को विकल्प उपलब्ध कराए गए है। इनको भी स्वीकार करने की बाध्यता नहीं है। किसानों को अधिकार प्रदान किये गए। देश में अस्सी प्रतिशत से अधिक किसान छोटी जोत वाले हैं। आंदोलन के नेताओं को इनकी कोई चिंता नहीं है। आंदोलन का स्वरूप अभिजात्य वर्गीय है। ऐसा आंदोलन नौ महीने क्या नौ वर्ष तक चल सकता है।

आंदोलन के नेता कृषि कानूनों का काला बता रहे हैं। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि इसमें काला क्या है, वह कह रहे हैं कि किसानों की जमीन छीन ली जाएगी, लेकिन उनके पास इसका जवाब नहीं कि किस प्रकार किसान की जमीन छीन ली जाएगी। कॉन्ट्रैक्ट कृषि तो पहले से चल रही है। किसानों को इसका लाभ मिल रहा है। ऐसा करने वाले किसी भी किसान की जमीन नहीं छीनी गई। आंदोलन के नेता कह रहे है कि कृषि मंडी समाप्त ही जाएगी। जबकि वर्तमान सरकार ने कृषि मंडियों को आधुनिक बनाया है। कृषि मंडियों से खरीद के रिकार्ड कायम हुए है। आंदोलन के नेता कह रहे है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त हो जाएगा। लेकिन वर्तमान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में अब तक कि सर्वाधिक वृद्धि की है।

जाहिर है कि यह आंदोलन भी सीएए की तरह विशुद्ध राजनीतिक है। इससे किसानों का कोई लेना-देना नहीं है। इसमें किसान हित का कोई विचार समाहित नहीं है। सीएए विरोधी आंदोलन जल्दी समाप्त हो गया लेकिन इस आंदोलन में किसान शब्द जुड़ा है। इसका लाभ मिल रहा है। इसी नाम के कारण सरकार ने बारह बार इनसे वार्ता की। संचार माध्यम में भी किसान आंदोलन नाम चलता है। जबकि वास्तविक किसान इससे पूरी तरह अलग हैं। उन्हें कृषि कानूनों में कोई खराबी दिखाई नहीं दे रही है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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